उत्तर आधुनिकतावाद के विभ्रम और अस्मिता

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इन दिनों वास्तव और अवास्तव, व्यक्ति और अव्यक्ति, जीवन और मृत्यु, उपस्थित और अनुपस्थित आदि के बारे में सवाल नहीं किए जाते। जो कुछ भी कहा जाता है वह खास सीमा में रहकर ही कहा जाता है। इसी प्रसंग में देरिदा की प्रसिद्ध किताब ‘स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्स’ का जिक्र करना समीचीन होगा। इस किताब में देरिदा ने बड़े ही मार्के की बात कही है।

देरिदा ने लिखा है ऐसे विद्वान अब नहीं रहे जो वास्तव अर्थ में विद्वान हों और विद्वान की तरह ही भूत के बारे में बता सकें। परंपरागत विद्वान् भूत में विश्वास नहीं करते थे और नहीं इसे वर्चुअल स्पेस का नजारा ही कह सकते हैं। अब ऐसे विद्वान नहीं रहे जो बता सकें कि यथार्थ और अयथार्थ में अंतर क्या है,वास्तव और अवास्तव में अंतर क्या है। जीवित और मृत में अंतर क्या है। व्यक्ति और अव्यक्ति में अंतर क्या है। उपस्थित और अनुपस्थित में अन्तर्विरोध बताने वाले विद्वान नहीं रहे।

देरिदा इस किताब में वास्तव और अवास्तव के अलावा कोई तीसरा आयाम भी हो सकता है इसकी खोज करते हैं। यह मूलतः ‘है’ और ‘नहीं’ के बीच में किसी तीसरे की खोज का काम है। यह ‘और’ है। वे इसे भूत के रूपक के जरिए खोजने की कोशिश करते हैं।

मसलन् अस्मिता की धारणा को ही लें। अस्मिता का आधार पिता है। फलां का पिता दलित था अतः बेटा भी दलित होगा। मजेदार बात यह है कि पिता मर गया है। मरे की पहचान को हम जिंदा की पहचान के रूप में देख रहे हैं। अतः जो अस्मिता जी रहे हैं वह जिंदा है लेकिन जो नाम अस्मिता को दिया गया है वह मृत है। यहां पर पिता का भूत पीछा कर रहा है। पिता रूपी भूत वास्तव बेटे से काल्पनिक दूरी बनाए रखता है।

दिक्कत यह है कि अस्मिता भूत है और वर्तमान भी है। यह ऐसा शरीर है जो कभी था और आज भी है। यहां अन्य के संदर्भ से अस्मिता पहचान बनाती है और फिर अन्य में ही तब्दील हो जाती है। अन्य से अन्य का जन्म, अन्य के आधार पर स्व की पहचान, विषय और व्यक्ति की पहचान, चेतना ,स्प्रिट आदि का निर्धारण करने लगते हैं। देरिदा के यहां पर जो ‘भूत’है वह परंपरागत किस्म के सोच को चुनौती देता है। वह जीवित और मृत के बीच के विरोध में आश्वासन का काम करता है। वह स्व की पहचान, समय और स्थान की धारणा को भी चुनौती देता है।

आमतौर पर हम यही कहते हैं कि हमने कल भूत देखा था। या उस घर में भूत है। देरिदा ने सवाल किया है भूत के साथ बीता कल कैसे जुड़ गया ? जबकि भूत तो वह है जो समय और स्थान के परे है। समय के तीन रूप है भूत,भविष्य और वर्तमान। भूत इनमें से किसी के दायरे में नहीं आता। जब हम कहते हैं कि मैंने उस घर में भूत देखा तो हम भूल ही जाते हैं कि भूत घर में नहीं रहता। ज्योंही हम भूत को खोजने जाएंगे वह नहीं मिलेगा। ज्योंही भूत को खोजेंगे कि वह कहां है और कब देखा था ,उसका वास्तव में पता नहीं चलेगा। यही वह भूत है जो हमें अन्य के विमर्श में मिलता है और अन्य का विमर्श अंततः शून्य के विमर्श में विलीन हो जाता है। भूत हमेशा ‘कोई है’ और ‘कोई अन्य है।’ यहां इन दोनों में समानता है।

हमारे बीच में उत्तर आधुनिकता ने जितने भी विमर्श फेंके हैं वे सब भूत विमर्श हैं, ऐसे विमर्श हैं जो जीवन में हैं भी और नहीं भी। इनमें कौन सा विमर्श कब आरंभ हो जाए कहना मुश्किल है। विमर्श की अनिश्चितता ही है तो किसी भी चीज को उत्तर आधुनिक चंचल अवस्था में रखती है। उत्तर आधुनिक विमर्श कब आरंभ होता है और किस तरह आरंभ होता है, और किससे बंधा या जुड़ा हैं ?ये तीनों चीजें ध्यान देने योग्य हैं। इन पर ही राजनीतिक और साहित्यिक निर्णय निर्भर करता है।

उत्तर आधुनिकों ने वंचितों को केन्द्र में रखकर कोई गंभीर काम नहीं किया है। अथवा भूत ने कभी उत्पीडितों को सम्बोधित नहीं किया है। उत्तर आधुनिक सवालों पर हमेशा बहस बहुआयामी स्थितियों और अर्थों को जन्म देती है। प्रत्येक उत्तर आधुनिक साहित्य समस्या राजनीतिक अभिव्यक्ति से भरी होती है। चूंकि उत्तर आधुनिक का अर्थ अनिश्चित होता है अतः उसकी राजनीति भी निश्चित नहीं होती है। आलोचना जिस चीज को देखती है वह वास्तव और अवास्तव का अस्थिर रूप है। फलतः यथार्थ और अयथार्थ में जीवंत और मृत के बीच में अंतर करना मुश्किल है। इसके कारण राजनीतिक और साहित्यिक फैसले लेना असंभव हो जाता है। यानी उत्तर आधुनिकता का स्थायी भाव है दुविधा।

देरिदा ने ‘स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स’ में इतिहास की भिन्न धारणा का इस्तेमाल किया है। वैसे गौर से देखें तो इतिहास की परंपरागत धारणा का इस्तेमाल करने के कारण फुकुयामा और ल्योतार ‘इतिहास के अंत’ की थ्योरी पर एकमत हो जाते हैं। जबकि देरिदा भिन्न तरीके से देखते हैं। वैसे इन दोनों में कोई भी साझा तत्व नहीं है। ऐतिहासिक घटनाओं को देखने की परंपरागत धारणा के अनुसार इतिहास मृत है। प्रत्येक चीज एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी है। कोई भी धड़ा अपनी समझ के बारे में,उसके परिणाम के बारे में पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है।

उत्तरआधुनिकतावाद हमेशा नीचे से आता है। यह राजनीति के दोनों ओर होता है। वह अपना नीचे के बरक्स बचाव करता है। उत्तर आधुनिकतावाद राजनीतिक सिक्के के दोनों ओर के अनुमानों को काटता है। राममंदिर आंदोलन के संदर्भ में भाजपा और कांग्रेस की भूमिका इस संदर्भ में आदर्श नमूना है। दलित साहित्य प्रसंग ,अस्मिता राजनीति, और बहुजन समाज पार्टी का बदला हुआ नारा और मुहावरा ,जनगणना में जाति की गणना का फैसला और पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा मुसलमानों को नौकरियों में दिया गया 10 प्रतिशत आरक्षण इसके आदर्श उदाहरण हैं।

उत्तरआधुनिकतावाद ने प्रगतिशील या रेडीकल या क्रांतिकारी परिभाषा को भी बदला है। उत्तरआधुनिक जमाने में मीडिया और उत्तरआधुनिक विचारकों के रेडीकल उसे कहा जो फंडामेंटलिस्ट होता है। जबकि प्रगतिशील या क्रांतिकारी को कठमुल्ला कहा। इसके कारण राजनीतिक अवधारणाओं के अर्थ का बड़े पैमाने पर विपर्यय हुआ और उत्तर आधुनिकतावाद ने अराजनीतिकरण में बड़ी भूमिका अदा की। अराजनीतिक को महान प्रगतिशील घोषित किया गया। प्रगतिशील और कंजरवेटिव दोनों ही अपने-अपने कारणों से उत्तर आधुनिकतावाद का प्रतिवाद कर रहे हैं।

उत्तरआधुनिकतावाद के संदर्भ में साहित्य में क्या घटा है इसके बारे में देरिदा ने बेहतर रोशनी डाली है। मार्क्स और हेमलेट का मूल्यांकन करते हुए लिखा है इस युग में साहित्य के सवाल राजनीति के सवालों को खोल रहे हैं। यही स्थिति राजनीति की है आप राजनीति के सवाल उठाते हैं तो उससे साहित्य के सवाल खुलते है। यानी साहित्य और राजनीति में एक-दूसरे के बरक्श सवाल उठ रहे हैं।

इसी तरह साहित्य में जो सवाल उठे हैं या उठाए जा रहे हैं वे निज या सेल्फ को उदघाटित करने वाले हैं। वे ही बातें लिखी जा रही हैं जो अस्मिता की संगति में आती हैं। निज की संगति में आती हैं। अपने से मिलते-जुलते विचारों को जब आप साहित्य में उठाते हैं तो आपको सैद्धांतिकी की कोई जरूरत नहीं होती।

साहित्य में अब आप अपने विचारों के जरिए विचारों की यात्रा करते हैं। जब आप अपने जरिए या अस्मिता के जरिए विचारों की यात्रा करते हैं तो आप अस्मिता के जितने भी लक्षण हैं उन सब पर सवालिया निशान लगाते जाते हैं और इस प्रकार अस्मिता पर ही सवाल खड़े कर देते हैं। अस्मिता पर सवाल वे ही खड़े करते हैं जो अस्मिता की सबसे ज्यादा वकालत करते हैं। वे आत्म के बारे में सवाल खड़े करते हैं। राममंदिर आंदोलन,दलित साहित्य,स्त्री साहित्य,आरक्षण आदि उत्तर आधुनिक प्रसंगों में यह सब घटता रहा है ।

उत्तर आधुनिकता के कारण साहित्य में अस्थिर करने वाले सवाल या नजारे के सवाल उठते रहे हैं। हाल ही में साहित्य में उठता ‘राय-कालिया’ विवाद नजारे का सवाल है। नजारे के सवालों का साहित्य से कोई संबंध नहीं होता। मौजूदा ‘राय-कालिया’ प्रकरण का साहित्य और साहित्यालोचना से कोई संबंध नहीं है।

वी.एन राय के बयान को साहित्य मानकर चलना गलत होगा। चाहे वह बयान साहित्यिक पत्रिका में ही क्यों न छपा हो। बयान तो बयान है वह साहित्य या आलोचना कैसे हो सकता है ? मुँह से निकली प्रत्येक बात आलोचना नहीं होती। लेखक का प्रत्येक कथन साहित्य नहीं होता। ऐसी स्थिति में हमें बयान,विचार और साहित्य के बीच में अंतर करना चाहिए। इन दिनों यह गलतफहमी हमारे बड़े बुजुर्गों को भी हो गयी है। मसलन नामवर सिंह जैसे बड़े आलोचक भी यह मानकर चल रहे हैं कि उनका प्रत्येक वाक्य साहित्य होता है। उनके भक्त भी यही मानकर उनके बोले को साहित्य बनाने में लगे हैं। अरे भाई यदि ऐसा ही होगा तो डाक्टर का प्रत्येक कथन मर्ज का उपचार माना जाएगा। गीतकार का प्रत्येक वाक्य गीत,संगीतकार का प्रत्येक कदम संगीत और शिक्षक का प्रत्येक कथन तो अकादमिक धरोहर की कोटि में ऱखना पड़ेगा। यह मूलतःविभ्रम है। विभ्रम में ज्ञान,तमीज,तहजीब,साहित्य खोजना विभ्रम से विभ्रम की ओर जाना है। इसका सर्जनात्मकता से कोई संबंध नहीं है।

कुछ उत्तरआधुनिक मानते हैं साहित्य और साहित्य सिद्धांत में कोई भेद नहीं है। जबकि सच यह नहीं है। साहित्य का उदय ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है और पहले वह महज संयोग या दुर्घटनावश जन्म लेता है। यह कहना सही नहीं है कि साहित्य आता है तो उसके पीछे आलोचना भी चली आती है। भक्ति आंदोलन का महान साहित्य जब लिखा जा रहा था तो उस समय भक्ति आंदोलन की आलोचना पैदा नहीं हुई थी। इसी तरह रैनेसां के समय हमारे लेखक नहीं जानते थे कि यह रैनेसां काल है। यह तो 1940 के बाद नामकरण किया गया कि भारतेन्दु युग रैनेसां युग है। यही स्थिति अन्य काव्यांदोलनों की भी है।

कहने का आशय यह है कि साहित्य और साहित्यालोचना या सैद्धांतिकी में साम्य मानना गलत है। साहित्य का संदर्भ और साहित्यालोचना के संदर्भ में हमेशा बड़ा अंतर रहा है। भारतेन्दुयुग में साहित्य के जो प्रश्न हैं वैसे सवाल आलोचना ने नहीं उठाए हैं। वहां तो भाषा के और सामान्य सवाल उठाए गए हैं। साहित्य समीक्षा वहां नहीं लिखी गयी है। भारतेन्दु युग के निबंध लेखक हैं आलोचक नहीं हैं। मसलन भारतेन्दु के नाटकों पर जितना आजादी के बाद काम हुआ है वैसा लेखन भारतेन्दु युग के आलोचकों के यहां नहीं मिलता। यही हाल छायावाद का है।

साहित्य और साहित्यालोचना के विशेष संदर्भ में दो फार्मूले घटे हैं। पहला फार्मूला है जो साहित्य में ‘अंदर’ -बाहर’ का संबंध मानकर चलता है। दूसरा फार्मूला है जो साहित्य में सत्य और व्यवहार के अन्तस्संबंध पर जोर देता है। भारतेन्दु युग के आलोचक ‘अंदर- ‘बाहर’ के संबंध को नहीं मानते थे। इस संबंध पर ध्यान 1930-31 के बाद गया और यही वजह है छायावाद से छायावादियों का मोहभंग हुआ।

भारतेंदु युग में साहित्य की पत्रिकाओं में छपने वाली प्रत्येक सामग्री साहित्य के रचनात्मक दायरे में शामिल नहीं की गयी। उनके यहां सर्जनात्मक साहित्य और गैर सर्जनात्मक साहित्य का अंतर था। यह स्थिति लंबे समय तक बनी रही। इससे साहित्य का दायरा सीमित हुआ। हमारी अस्मिता का सीमित रुप उजागर हुआ । उस समय सर्जनात्मक पाठ पर जोर था।

लेकिन यह चीज ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं थी। सन् 1960 के बाद से हिन्दी आलोचना में मूलगामी बदलाव आता है और खुले पाठ की धारणा का प्रवेश होता है। अब साहित्य के आगे-आगे आलोचना चलने लगी। रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध, नामवर सिंह आदि की आलोचना में यह लक्षण साफ दिखते हैं। नई कहानी के प्रसंग में नामवर सिंह ने खासतौर पर आलोचना को साहित्य के आगे चलने वाली मशाल बना दिया,बाकी लेखक भी यह काम कर रहे थे।

इस संदर्भ में देखें तो ये लोग साहित्य को खुले पाठ की तरह देख रहे थे। उसे एक क्रमबद्ध व्यवस्था की तरह देखने की बजाय मनमाने क्रम में रखकर देख रहे थे। नई कहानी आंदोलन का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उसने साहित्य के आगे आलोचना या साहित्य सैद्धांतिकी को रख दिया था। ऐसा करते हुए उन्होंने साहित्य की अस्मिता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया। अब तक साहित्य की अस्मिता प्रधान थी,लेकिन नईकहानी के समय आलोचना की अस्मिता प्रधान हो गयी। साहित्य की पहचान को,नई कहानी की पहचान पर ही सवाल खड़े किए गए। बाद में इसको साहित्य ने हजम कर लिया। अब साहित्यालोचना उन कृतियों की ओर चली गई जिन लेखकों के बारे में हम कम जानते थे,जिनको स्थापित करने की जरूरत थी, जो अपने को उपेक्षित महसूस करते थे। यह काम स्वयं नामवर सिंह ने किया, उन्होंने ‘कहानी-नई कहानी’ लिखने के बाद उन कवियों पर लिखा जो प्रगतिशील थे लेकिन आलोचना में स्थापित नहीं किए गए थे। इस तरह के लेख उनकी किताब ’कविता के नए प्रतिमान’ और ‘ कविता की जमीन और जमीन की कविता’ में देख सकते हैं। वे इस क्रम में ‘अंदर-बाहर’ की थ्योरी का इस्तेमाल करते हैं और कविता के जरिए साहित्य की अस्मिता को पुष्ट करते हैं।

इस क्रम में एक और फिनोमिना सामने आया है जो ‘अंदर-बाहर’ की सैद्धांतिकी का अतिक्रमण करता है। वह है ‘बाहर से बाहर की ओर’ यात्रा । इस मॉडल के प्रसंग में नामवर सिंह की दो किताबें ‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’ और ‘जमाने से दो-दो हाथ’ को रखा जा सकता है। इन किताबों में शामिल निबंध ऐसे समय में लिखे गए जब साहित्य में ‘अंदर और अंदर’ जाने की बातें की जा रही थीं। उस समय साहित्य में ‘बाहर से बाहर’ का मॉडल लागू किया गया । इस मॉडल में पुनरावृत्ति के चांस ज्यादा होते हैं, अतः नामवरसिंह के विचारों में पुनरावृत्ति दिखाई देती है।

ये किताबें ‘साहित्य’ और ‘राजनीति’ के बीच में गंभीर विभ्रम की सृष्टि करती हैं। खासकर ‘जमाने से दो-दो हाथ’ के बारे में यह तय करना मुस्किल है कि यह साहित्य की किताब है या राजनीति की। इस किताब के संपादक और प्रकाशक को भी यह तय करने में मुश्किल आयी है कि इस किताब को किस केटेगरी में रखे।

नामवर सिंह की हाल में प्रकाशित चार किताबों ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’,‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’, ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ और ‘जमाने से दो-दो हाथ’ में लेखक और संपादक यह मानकर चल रहे हैं कि प्रत्येक चीज साहित्य है। यही वह बुनियादी समझ है जिसके तहत इन किताबों को साहित्योलोचना के नाम पर प्रसारित किया जा रहा है। प्रत्येक चीज साहित्य है, का दावा असल में ‘हर चीज राजनीतिक है’, नारे की तर्ज पर गढ़ा गया है। प्रत्येक चीज साहित्य है के नाम पर ही बेबकूफियों,लफंगई और बेहयाई को भी साहित्य की कोटि में रखा जा रहा है। ‘प्रत्येक चीज साहित्य है’ के नारे का साहित्य के अंदर के संसार से कोई संबंध नहीं है।

‘सब कुछ राजनीति या साहित्य है’ के नाम पर जो विभ्रम चल रहा है उसने यह समस्या भी पैदा की है कि प्रत्येक पाठ की राजनीतिक रीडिंग की जा सकती है। इस धारणा के पीछे यह समझ है कि साहित्य में राजनीतिक कल्पनाओं के अतिक्रमण की क्षमता होती है। इसके अलावा यह भी कह सकते हैं कि राजनीति से बच नहीं सकते। बल्कि साहित्य में राजनीति संभव है। ऐसे भी आलोचक हैं जो प्रत्येक साहित्यिक कृति को राजनीतिक नजरिए से नहीं पढ़ते। वे मानते हैं कि कुछ पाठ ऐसे हैं जो राजनीति के बाहर हैं। जैसे रामचरितमानस आदि।

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