संघीय गठबंधन की बढ़ी उम्मीद

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shushilआखिरकार 17 साल पुराने राजग गठबंधन से जदयू ने गांठ खोल ही दी। भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को पार्टी में दी बड़ी ताकत के मद्देनजर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए झटके ने जदयू को अलग कर दिया। इस टूट की परिणति में अब तीसरे या चौथे मोर्चे को वजूद में लाने की बजाय ‘संघीय मोर्चा’ ;फेडरल फ्रंट को खड़ा करने की पहल ममता बनर्जी ने कर दी है। इस बाबत ममता  खुद आगे बढ़कर नीतिश कुमार और ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से बात कर चुके हैं। ममता के साथ बाबूलाल मराण्डी का झारखण्ड मोर्चा भी है। दरअसल पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओड़ीशा की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक एक जैसी हैं इसलिए इन्हें मोर्चे को वजूद में लाना आसान होगा। लेकिन कालांतर में ऊँट किस करवट बैठता है, कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता ? क्योंकि नए गठबंधनों की जो संभावित शक्लें हैं, उस तारतम्य में कांग्रेस अथवा भाजपा के बिना उनकी वैतरणी पार होने वाली नहीं है। यहां एक बड़ा एवं अहम् सवाल यह भी खड़ा होता है कि जदयू की गठबंधन तोड़ने की जिद मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बाधा दूर करेगी या आसान ? क्योंकि यदि राजग गठबंधन बहुमत में आता है तो प्रधानमंत्री बनने से जदयू ही रोक सकता था, गठबंधन से अलग होकर जिसका अधिकार उसने खो दिया है।

इस गठबंधन के टूटने से बिहार की नितीश कुमार सरकार को कोई खतरा नहीं है। उन्हें वैसे तो दोबारा से विशेष सत्र बुलाकर विश्वास मत हासिल करने की भी जरुरत नहीं थी, क्योंकि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार यदि विपक्ष सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाता है तो विश्वास मत सदन में प्राप्त करना जरुरी हो जाता है। लेकिन उन्होंने उन्हें विश्वास मत हासिल करने की पैरवी करके एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा की शुरूआत की है। यह विश्वास मत संवैधानिक और राजनैतिक मन्यता को पुख्ता करेगा। चूंकि जदयू के पास अपने 118 विधायक हैं और उन्हें 4 निर्दलीय विधायकों का समर्थन मिलना सहज है, इस लिहाज से अब तक भाजपा के सहयोग से चल रही इस सरकार को कोई खतरा नहीं है।

मौजूदा परिदृश्य में गठबंधन की सियासी जरुरत के बावजूद भाजपा और जदयू इसकी अहमियत को नजरअंदाज कर रहे हैं। गठबंधन के इन दोनों प्रमुख व बड़े दलों को गठबंधन की हैसियत का आकलन बिहार की महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में मिली पराजय के परिप्रेक्ष्य में करने की जरुरत है। इस चुनाव पर गठबंधन टूटने की संभावना का असर पड़ा है। गौरतलब है कि बिहार में भाजपा अगड़ों और जदयू पिछड़ों व अति पिछड़ों की पार्टी है। दोनों गठबंधन में साथ रहते हैं तो वोट-बैंक के बंटने का खतरा कम है। अलग होने पर इसका फायदा कांग्रेस और लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को मिलना तय है। ये दोनों संप्रग गठबंधन के अटूट सहयोगी हैं। महाराजगंज सीट गठबंधन का मजबूत माहौल बनाए रखने के कारण ही राजद इस सीट को जीत पाई। जबकि राजग गठबंधन टूटने की बयानबाजी टूटने के पहले ही शुरू हो गई थी। इसी कारण राजग उम्मीदवार की जीत आसान हुई।

नीतिश जिस धर्मपिरपेक्षता के सिद्धांत को लेकर राजग से अलग होने का दांव खेला है, उन्हें याद करने की जरुरत है कि रामविलास पासवान ने गोधरा दंगों के सिलसिले में ही राजग का साथ छोड़ा था। उन्हें उम्मीद थी कि उनकी इस पहल से मुस्लिम मतदाता उनके पक्ष में धु्रवीकृत होंगे और आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें इस त्याग का अप्रत्याशित लाभ मिलेगा। लेकिन पासवान बिहार में किस हाल में हैं, यह नीतिश शरद से ज्यादा कौन जानता है ? भाजपा से अलग होने के बाद मुस्लिम वोट लालू की झोली में जाएंगे। क्योंकि उनके साथ कांग्रेस भी है। जाहिर है, बिल्ली के भाग से छींका टूटा है तो अब लाभ में लालू ही रहेंगे। नीतिश तो हो सकता है, कलांतर में बिहार की सत्ता भी खो दें। तय है, जदयू ने मोदी की आड़ में अंधा दाव खेल दिया है।

इस टूट का अप्रत्यक्ष लाभ लोकसभा चुनाव में भाजपा को भी मिल सकता है। क्योंकिनितीश मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने भाजपा से अलग हुए हैं। यहां यह भी गौरतलब है कि जब राम विलास पासवान ने अपनी लोक जन शक्ति पार्टी को राजग गठबंधन से अलग किया था तब नीतिश ने पासवान को गठबंधन न छोड़ने की हिदायत देते हुए भाजापा की खूब तारीफ की थी। इसलिए ऐसा न हो कि बिहार के अन्य जातीय समुदाय भाजपा के हित में ध्रुवीकृत न हो जाएं। यदि ऐसा होता है तो 2014 के आमचुनाव में भाजपा शायद ही नुकसान उठाये ? वैसे भी संघीय मोर्चा यदि वजूद में आ भी जाता है तो ममता और नवीन पटनायक, नीतिश की बिहार में कोई मदद नहीं कर पाएंगे। जबकि मोदी के पास नीतिश की भरपाई करने को तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जे जयललिता तैयार खड़ी हैं।

संभावित संघीय मोर्चा या तीसरे मोर्चे की शक्लें साफ व मजबूत नहीं है। यदि शरद या ममता के नेतृत्व में संघीय मोर्चा वजूद में आ भी जाता है तो तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और जदयू की मिलाकर इनके पास कुल जमा 53 लोकसभा सीटें वर्तमान में हैं। आगे कई दल मिलाकर ये 100 के आंकड़े तक भी पहुंच पाएंगे, लगता नहीं है। मुलायम सिंह यादव अथवा शरद पवार के नेतृत्व में भी तीसरा मोर्चा आकार लेने के रास्ते तलाश रहा है। सपा, राकांपा और डीएमके गठजोड़ कर लें, तब इनका आंकड़ा 50 के भीतर ही ठहर जाता है। मुलायम उत्तरप्रदेश में मुस्लिमों का कितना ही तुष्टिकरण कर लें, वे ज्यादा से ज्यादा 22 से बढ़कर 40 सीटें हासिल कर पाएंगे। क्योंकि उत्तरप्रदेश में अखिलेश के सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से कानून व्यवस्था चौपट हुई है और अराजकता बढ़ी है, उसके चलते सवर्ण मतदाता और हर जाति का आर्थिक व बाहुबल के रुप में कमजोर तबका सपा से छिटका है। यही वजह है कि पिता-पुत्र की जोड़ी ब्राहम्ण मतदाताओं को लुभाने के लिए ब्राहम्ण सम्मेलन करने पर आमदा है। मुलायम ने राष्ट्रपति के और एफडीआई के मसले पर जिस तरह से ममता को धोखे में रखा, उसके चलते ममता उनसे खार खाए बैठी हैं। बसपा से तो उनकी जन्मजात सी दुश्मनी है। जाहिर है मुलायम अब तीसरा मोर्चा के कारगर औजार नहीं रहे। वामदलों के प्रति भी मुलायम अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। बाईदवे यदि नया मोर्चा वर्चस्व में आ भी जाता है, तब भी उसकी दाल कांग्रेस या भाजपा के बिना सहयोग के चलने वाली नहीं है। तय है नए मोर्चे की स्थिति बेढव और भानुमती के कुनबे सी रहेगी, जो स्थायी सरकार देने में असमर्थ होगा।

आज सबसे बड़ा संकट कांग्रेस और भाजपा में नेतृत्व कौशल का आ खड़ा हुआ है। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 23 भिन्न विचारधाराओं के दल शामिल थे। आज जदयू के अलग हो जाने के बाद तीन रह गए हैं। आडवाणी का हस्तक्षेप भी जदयू को रोक नहीं पाया धर्मनिरपेक्षता अब कोई सैद्धांतिक आधार नहीं रहा। यह कितना छद्म है, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि राजग गठबंधन में एक समय ममता, मायावती, जयललिता, फारुक अब्दुआ, रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक जैसे लोग शामिल रहे। वीपी सिंह ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा से सहयोग लिया था। वामदल भी इस सहयोग में भागीदार थे। मुलायम और मायावती ने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए भाजपा का समर्थन लिया। इन उदाहरणों से साबित होता है कि धर्मनिरपेक्षता का वर्तमान संस्करण और आचरण मतदाताओं से छल के रुप में ही पेश आता रहा है। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल अपने-अपने स्वार्थपूर्तियों के लिए भाजपा का सहयोग लेते रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के इस छद्म का असर अब मतदाता पर बहुत ज्यादा नहीं पड़ता। गुजरात के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भाजपा को विधानसभा चुनाव में मिली जीत इस तथ्य का प्रमाण है।

डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र में जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार चल रही है, उसका हाल भी भाजपा जैसा ही है। पिछले नौ साल में नेतृत्व की अकुशलता के चलते संप्रग से टीआरएस, बसपा, पीडीपी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और झारखण्ड विकास मोर्चा अलग हुए हैं। इस सरकार को सबसे बड़ा समर्थन राकांपा के महज नौ सांसदों का है। हालांकि 10 सांसदों वाले तीन अन्य दल भी इस गठबंधन में शामिल हैं। बाकी तो सपा और बसपा के रहमोकरम पर यह सरकार अपने दिन गिन रही है। इन सब हालातों से रुबरु होते हुए साफ होता है कि 2014 में कोई दल या मोर्चा बहुमत के आंकड़े को छूने वाला नहीं है। ऐसे में नेतृत्व कौषल की राजनीतिक प्रखरता सामने आने की जरुरत है। यह तभी संभव है, जब राजनीतिक दल और उनके नेता संकीर्ण हितों से उपर उठें ? जनता के मनोभावों को समझें ? गठबंधन के धर्म को आगे बढ़ाने के लिए उसके मर्म को भी समझने की जरुरत है। संघीय व्यवस्था की रक्षा के बहाने एकजुट होने की कवायदे में फिलहाल ऐसा कुछ नहीं दिखता। दुखद यह है कि जिस तरह के घटनाक्रम सामने आ रहे हैं, वे मर्म पर ही चोट करने वाले हैं, ऐसे में गठबंधन धर्म का पालन कैसे होगा, यह कहना नामुमकिन ?

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