सार्वभौम मानव धर्म का स्वरूप

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religionमनमोहन कुमार आर्य
संसार में कुछ सहस्र वर्ष पूर्व कई महापुरुषों द्वारा चलाये गये अनेक मत, पन्थ व सम्प्रदाय अस्तित्व में हैं जो अपने आपको धर्म की संज्ञा देते हैं। क्या कोई मनुष्य व महापुरुष बिना किसी पूर्व धर्म व मत की सहायता के कोई नया मत व पन्थ चला सकता है? इसका उत्तर न में मिलता है। सभी मनुष्य व महापुरुष जहां उत्पन्न होते हैं, वहीं की भाषा, वेशभूषा व परम्पराओं का प्रभाव उन पर होता है। वे नया मत चलाने के स्थान पर पूर्व प्रचलित मत में सुधार तो कर सकते हैं परन्तु पूर्णतया नवीन मत व उसके सिद्धान्त नहीं बना सकते। इसका कारण संसार में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों व महापुरुषों का अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम होना है। धर्म तो सृष्टि की आदि में सृष्टि व प्राणीमात्र के रचयिता द्वारा प्रवृत्त होता है। सभी मनुष्य व महापुरुष, इसमें कोई अपवाद नहीं है, अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने के लिए संसार में उत्पन्न वा जन्म लेते हैं। वह ईश्वर द्वारा किसी नये मत की स्थापना के लिए जन्म नहीं लेते। उन महापुरुषों द्वारा व उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों द्वारा किसी मत विशेष की स्थापना का कारण उनकी व उनके अनुयायियायें की निजी बौद्धिक सोच, क्षमता व कार्यों सहित सामयिक परिस्थितियां हुआ करती हैं। सभी मनुष्य व महापुरुष अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, नित्य, सूक्ष्म, एकदेशी, स्वतन्त्रकर्ता जीवात्मा होते हैं जिनके जन्म से पूर्व के संचित कर्म वा प्रारब्ध होता है जो उनके मनुष्य जन्म का कारण हुआ करता है। सभी जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् सीमित बुद्धि, सीमित ज्ञान व सीमित बल-सामथ्र्य वाले मनुष्य हुआ करते हैं। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के बिना संसार का कोई मनुष्य व महापुरुष ज्ञान व विज्ञान से युक्त किसी धर्म व मत का प्रचलन नहीं कर सकते। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की पहली आवश्यकता परस्पर व्यवहार के लिए भाषा व ज्ञान की होती है। यह भाषा व ज्ञान मनुष्यों को उनके अपौरुषेय शरीरों व सृष्टि के ही समान ही ईश्वर से प्राप्त होती हैं। सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को ईश्वर से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह वेद कहलाता है। यह ज्ञान चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इन वेदों को अधिकांशतः व पूर्णता से जानने वाले विद्वानों को ऋषि कहा जाता है। इनका मुख्य कार्य वेद विषयक अपना ज्ञान बढ़ाना, योग साधना कर ईश्वर का साक्षात्कार करना और वेद व धर्म का प्रचार करना होता है। काल क्रमानुसार संसार में परिस्थितियां बदलती रहती हैं। अनेक स्थानों पर उथल-पुथल हुआ करती है जिसका प्रभाव मनुष्यों, उनके अध्ययन व कार्यों सहित ज्ञान-विज्ञान व परम्पराओं पर पड़ता है। ऐसा इस सृष्टि में प्रायः सृष्टि के आरम्भ से ही होता आ रहा है। इसी क्रम में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का भीषण युद्ध हुआ था जिसका परिणाम देश में ज्ञान व विज्ञान की हानि के रुप में सामने आया। आज संसार में पौराणिक मत सहित जितने भी वेदेतर मत-मतान्तर हैं उनमें विद्यमान अविद्या व अज्ञान इसकी पुष्टि करते हैं।

आज संसार में अनेक धार्मिक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। इन सबका अध्ययन कर यदि एक सार्वभौमिक मनुष्य धर्म का निरुपण करना हो तो उसका स्वरुप क्या हो सकता है वा होगा, इस पर विचार किया जा सकता है। हम अपने अध्ययन के आधार पर इसका किंचित परिचय दे रहे हैं।

सार्वभौम मनुष्य धर्म के लिए पहली शर्त यह है कि वह प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला हो, इससे हानि किसी की किंचित भी न हो। सभी को विद्या, अभय व आवश्यकता की प्रचुर सामग्री उपलब्ध हो। सार्वभौम धर्म में मनुष्यों के किसी समुदाय में किसी के प्रति शत्रुता की भावना नहीं होनी चाहिये। धर्म का अर्थ अपना व दूसरों का सुधार करना होता है न कि अपनी संख्या बढ़ाने के लिए लोभ, लालच, प्रलोभन व भय देना। यदि कोई व्यक्ति सामाजिक नियम तोड़ता है तो उसके लिए सर्वसम्मत स्वीकृत नियमों के अनुसार दण्ड व्यवस्था होनी चाहिये। सार्वभौम धर्म का यह भी गुण होना चाहिये कि वह अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों की आलोचना को सहन करने वाला होना चाहिये। उसके विद्वान उन आलोचनाओं का अध्ययन कर आलोचकों का समाधान करें। यदि वह समाधान न कर सकें तो उसके लिए विद्वत गोष्ठी की जानी चाहिये जिसमें लिये गये निर्णय को स्वीकार किया जाना चाहिये। सार्वभौम मत व धर्म से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी सभी मान्यताओं की अपने शीर्ष विद्वानों से जांच पड़ताल करवाता रहे और उसमें समयानुकूल परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन होते रहें। ऐसा न करने का अर्थ यह होता है कि वह वह मत सत्य न होकर रूढ़िवाद व अन्धविश्वासों पर आधारित है जिसमें असत्य मान्यतायें भी विद्यमान हैं। सत्य मत, मान्यताओं, सिद्धान्तों वा धर्म को असत्य से डरने की आवश्यकता नहीं होती अपितु डरता असत्य का व्यवहार करने वाला है सत्य नहीं। जो मत व सम्प्रदाय अपनी किन्हीं व सभी मान्यताओं की आलोचना, समीक्षा व परीक्षा का अधिकार अपने व दूसरे अनुयायियों को नहीं देते वह जानते हैं कि कहीं न कहीं उनके मत में कमियां हैं। उनका भय ही आलोचनाओं से उन्हें दूर रखता है और तरह तरह की अनावश्यक व अनुचित दलीलें देते रहते हैं। यह बातें आधुनिक समय में अधिक दिनों तक चलने वाली नहीं हैं।

सृष्टिकर्ता ईश्वर ने संसार को चलाने व आगे बढ़ाने के लिए स्त्री व पुरुषों को बनाया है। इनमें कोई छोटा और कोई बड़ा नहीं है। स्त्री व पुरुष दोनों का ही समानाधिकार है। अतः किसी भी प्रकार का व किसी भी स्तर से लिंग भेद होना धर्म नहीं अपितु अधर्म वा पाप होता है। हां, स्त्री व पुरुषों को एक दूसरे की मान मर्यादा व गरिमा का ध्यान रखना चाहिये। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता नहीं होनी चाहिये जैसी की आजकल देश विदेश में देखने को मिलती है। बिना विवाह के दाम्पत्य जीवन व्यतीत करना और समलैंगिकता सामाजिक अपराध होना चाहिये। इसका समाज में युवक-युवतियों सहित अन्यों पर दुष्प्रभाव पड़ने के साथ इससे ईश्वर प्रदत्त वैदिक विवाह की सामाजिक व्यवस्था के भंग होने का भी भय है। ईश्वर द्वारा मनुष्य को यह जीवन सद्कर्म करने के लिए मिला है न कि स्वेच्छाचार करने व इन्द्रिय सुख मात्र भोगने के लिए। अतः प्राचीन काल से चले आ रहे नियमों को और अधिक सरल व सुस्पष्ट करना चाहिये। महर्षि दयानन्द जी यह काम कर गये हैं जिसे सत्यार्थ प्रकाश और संस्कार विधि आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। यहां यह भी बता दें कि महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा विवाह के जिन नियमों का विधान किया गया है वह सभी सामयिक, प्रासंगिक, आधुनिक एवं मनुष्य जाति के दीर्घकालिक सुख, निरोग रहने व उत्तम सन्तानों के जन्म के लिए आवश्यक व उपयोगी हंै। अतः मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर सभी को इनका पालन करना चाहिये।

समाज में मनुष्यों का वर्गीकरण भी आवश्यक है। यह केवल मनुष्य के गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर ही हो सकता है न कि जन्म के आधार पर। जिसकी जैसी व जितनी योग्यता हो उसको उसके अनुसार कर्तव्य व काम निर्धारित होने चाहिये और यथायोग्य अधिकार मिलने चाहिये। इस दृष्टि से जन्मना जाति व्यवस्था महत्वहीन व अनुचित है। गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार मनुष्य को ज्ञानी व अध्यापक (प्रथम वर्ग), ज्ञानी व वीर (द्वितीय वर्ग) तथा ज्ञानी, अन्याय से अपनी व दूसरों की रक्षा करने वाला, कृषि, गोपालन व व्यापार करने वाला (तृतीय वर्ग) यह तीन वर्ग बनाये जा सकते हैं। एक चैथा वर्ग भी बनाना होगा जो अल्प ज्ञानी व शारीरिक बल में अन्यों के समान व अधिक का हो सकता है। यह समाज के अन्य तीन वर्गों व वर्णों को सर्विस व सेवा देने वाला होगा। इन चारों वर्गों का निर्धारण विद्यालयों के योग्य व निष्पक्ष गुरुजन वा राज्य व्यवस्था से होना चाहिये। समाज में ऊंच-नीच, छुआ-छूत, काले-गोरे, सुन्दर-असुन्दर, लम्बा व नाटे का भेदभाव आदि नहीं होना चाहिये। सबके साथ उनके गुण-कर्म व स्वभावानुसार व्यवहार किया जाना चाहिये। जो इन नियमों को पालन न करे वा विपरीत कार्य करे तो उन्हें ऐसा दण्ड दिया जाना चाहिये जिससे वह इन नियमों को तोड़ने की जुर्रत न कर सकें। मनुष्यों व विद्वानों के आपसी मतभेद व निजी स्वार्थों के कारण मानव धर्म की शाखायें व प्रशाखायें प्रचलित नहीं की जानी चाहिये जैसा कि अतीत में हुआ व वर्तमान में भी हो रहा है। सबको यह जानना व मानना चाहिये कि सब एक ही पिता अर्थात् परमेश्वर की अमृत सन्तानें हैं जिन्हें अच्छे काम करके दुःख व बन्धनों से छूटकर जन्म व मरण से मुक्ति प्राप्त करनी है। अतः सभी समस्याओं का निदान व समाधान सत्य व असत्य का विचार कर किया जाना चाहिये।

नये सार्वभौम धर्म में समाज में अन्धविश्वास, रूढ़िवाद व कुरीतियों का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, सामाजिक असामनता आदि कृत्रिम व मनुष्य निर्मित परम्परायें हैं जो वैदिक ज्ञान के प्रकाश में अप्रासांगिक हो चुकी हैं। इन्हें मानने से लाभ कुछ नहीं अपितु हानि ही हानि होती है। अन्य मतों के भी अधिकांश कार्य व मान्यतायें इसी प्रकार की हैं। वह सब भी बन्द होने चाहियें। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि, अजर, अमर आदि असंख्य गुणों से विभूषित है। उसको जानकर उन गुणों के अनुरुप ही उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जानी चाहिये। सभी मनुष्यों को पूर्ण शाकाहारी होना चाहिये। सभी प्रकार के पशुओं के मांस, तामसिक भोजन व खाद्य पदार्थों पर प्रतिबन्ध होना चाहिये। गोपालन आवश्यक होना चाहिये। बड़े बड़े चरागाह होने चाहियें जहां युवा व बूढ़ी गाय रखी जायें। इनसे मिलने वाले गोदुग्ध, गोबर, गोमूत्र का सभी को अपने योगक्षेम के लिए उपयोग करना चाहिये। मांसाहारी व पशुओं को मारने वाले को कठोरतम दण्ड दिया जाना चाहिये। ईश्वरोपासना के बाद मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण को शुद्ध रखे। उसे अनावश्यक दूषित न करे और प्रति दिन अपने निवास व निकटवर्ती सभी स्थानों को स्वच्छ रखने के प्रति सावधान व जागरूक रहें। सभी मनुष्यों को अपने शरीर के निमित्त से उत्पन्न मल-मूत्र, रसोई के कार्यों, वस्त्र शोधन, स्नान आदि से जो प्रदूषण वायु, जल व पृथिवी में होता है उसके निवाराणार्थ प्रयत्न करना चाहिये। इस निमित्त वह प्रातः व सायं गोघृत व साकल्य से अग्निहोत्र कर वायु व वृष्टि जल को शुद्ध करें जिससे प्राणियों को सुख हो। इसकी सरलतम विधि महर्षि दयानन्द ने प्रदान की है जिसमें अग्निहोत्र के सभी पहलुओं का यथोचित ज्ञान है। इनका सभी मनुष्यों को पालन करना चाहिये जिससे सभी स्वस्थ, निरोग, दीर्घजीवी, प्रसन्न, परोपकारी व सेवाभावी होकर एक दूसरे को लाभ पहुंचा सकें। महर्षि दयानन्द द्वारा किये गये वैदिक विधानों के अनुसार माता-पिता की सेवा, विद्वान अतिथियों का सत्कार व पशु-पक्षियों के आहार का प्रबन्ध भी सभी मनुष्यों को यथासामथ्र्य प्रतिदिन करना चाहिये।

उपर्युक्त व्यवस्था ही संसार के सभी मनुष्यों का सार्वभौमिक धर्म है। जितनी शीघ्र यह व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी उतना ही शीघ्र विश्व में कल्याण व शान्ति स्थापित होगी। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो संसार में स्थाई शान्ति होना दुष्कर है। यह भी निवेदन करना है कि महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज ऐसे ही विश्व मानव धर्म, जिसे वैदिक धर्म कहते हैं का पर्याय है। इन्हें सार्वभौमिक धर्म सहित अन्य नाम यथा मानवधर्म भी कह सकते हैं। आर्यसमाज इन्हीं सार्वभौमिक मान्यताओं का प्रचार व प्रसार करता है। आर्यसमाज सत्य का प्रचारक और असत्य का खण्डन करने वाला संसार का सर्वोच्च व महत्वपूर्ण संगठन है। आईये ! इसके कुछ सार्वभौमिक नियमों को लिख कर लेख को विराम देते हैं जो इस प्रकार हैं। सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। 2- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। 3- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब (मनुष्यों व श्रेष्ठ पुरुषों) आर्यो का परम धर्म है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। 5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिएं। 6- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 7- सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। 8- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। 9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उननति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। और 10- सब मुनष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालन में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें। इति।

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