क्या वाकई लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है मीडिया?

शिवा नन्द द्विवेदी “सहर”

जब भी बात लोकतंत्र के निहित स्तंभों की होती है तो “मीडिया” का नाम अवश्य आता है। ऐसा पढ़ता एवं सुनता आया हूँ कि मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में अपना दायित्व निर्वहन कर रहा है। यानी “इट इज वन ऑफ़ द फोर पिलर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी”। सैद्धांतिक रूप से ऐसा कहा एवं माना जाता है कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ होते हैं जो इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था रूपी छत को सुदृढ़, स्वस्थ एवं परिशुद्ध बनाते हैं। परन्तु जब भी इस विषय पर मैं किसी विद्वान् अथवा राजनीति विश्लेषक के कथन से अलग हट कर सोचता हूँ हमेशा यही भ्रम-स्थिति बनी रहती है कि क्या वाकई “मीडिया” शब्द अथवा इसका अर्थ लोकतंत्र के स्तम्भ होने के मानकों पर खरा उतरता है? क्या यह तथाकथित स्तम्भ शेष तीन स्तंभों के साथ समानांतर सामंजस्य बना पाता है? मुझे स्पष्ट याद है कि लोकतंत्र शब्द पर विशेष अध्ययन का अवसर मुझे बी-ए प्रथम वर्ष में मिला और संयोगवश मेरा प्रथम अध्याय ही था “सरकार एवं व्यवस्था”! उक्त विषय पर मेरे शिक्षकगण से अकसर बहस होती रहती थी कि “क्या वाकई लोकतंत्र का कोई चौथा स्तम्भ भी है?”

अपने विचार को रखने से पहले मैं लोकतंत्र के तीन स्तंभों का संक्षिप्त विश्लेषण करना चाहूंगा। सैद्धांतिक रूप से लोकतंत्र के क्रमश: प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्तम्भ व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका है। इसके बाद तथाकथित स्थान आता है मीडिया का जो किसी भी दृष्टिकोण से ना तो इन तीन स्तंभों के तटस्थ समानांतर और ना ही लोकतंत्र कि स्थापना, संरचना, क्रियान्वन एवं संरक्षण के लिए अनिवार्य प्रतीत होता है। मेरे मत में “मीडिया” ठीक वैसी ही एक संस्था है जैसे कोई चिकित्सालय, पशुपालन, वन्य-संरक्षण संस्थान, स्कूल-विद्यालय एवं अन्य सरकारी – गैरसरकारी संस्थान। एक संक्षिप्त तुलनात्मक अध्यन के तौर पर अगर हम बात “व्यवस्थापिका” कि करें तो यह सर्व-विदित है कि “व्यवस्थापिका एक पूर्णतया गैर-निजी, एकल, लोक प्रतिनिधित्व की राष्ट्रीय संस्था या सभा है”! यहाँ व्यवस्थापिका को गैर-निजी कहने का सीधा तात्पर्य यह है कि इस सभा को ना तो किसी आम अथवा ख़ास द्वारा पंजीकृत कराया जा सकता है और ना ही व्यक्तिगत आधार पर संचालित एवं क्रियान्वित किया जा सकता है। इसे अद्वितीय कहने का आशय यह है कि किसी एक व्यवस्थित लोकतांत्रिक संरचना में राष्ट्रनिहित संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर संभव है किसी कि निजी इच्छा पर नहीं। व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व का अवसर मिल सकता है जो जनता के द्वारा प्रत्यक्ष(लोकसभा) अथवा परोक्ष(राज्यसभा) रूप से निर्वाचित हों और अपने निर्वाचकों के प्रति संवैधानिक रूप से उत्तरदायी हों। संवैधानिक रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी होना इस सभा को लोकतंत्र के प्रथम स्तम्भ होने के तटस्थ ले जाता है और साथ ही लोकतंत्र के स्तम्भ होने कि पुष्टि भी करता है।

द्वितीय स्तम्भ के रूप में बात होती है “कार्यपालिका” की। लोकतंत्र के द्वितीय स्तम्भ के रूप में इसकी स्वत: पुष्टि इसलिए हो जाती है कार्यपालिका का सदस्य होने के व्यवस्थापिका का सदस्य होना अनिवार्य है अथवा लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित होना अनिवार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए लोक महत्त्व कि आवश्यकताओं को समझना एवं उनको उपलब्ध कराना, लागू कराना, व्यवस्थापिका से पास विधेयक को कानून के रूप लागू कराना, राष्ट्र प्रबंधन जैसी चीजें कार्यपालिका के मूल कर्तव्य में निहित होती हैं एवं कार्यपालिका अपने कर्तव्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति शत-प्रतिशत उत्तरदायी होती है! “लोकतंत्र के प्रथम स्तम्भ के प्रति उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता ही कार्यपालिका के कार्यपालिका के द्वितीय स्तम्भ होने कि पुष्टि करता है ”

लोकतंत्र के तृतीय स्तम्भ न्यायपालिका की बात करें तो इसकी कार्य एवं संरचना पद्धति थोड़ी सी भिन्न है, परन्तु सैद्धांतिक रूप से यह पूर्णतया लोकतान्त्रिक ढांचे को मजबूत बनाने एवं संवैधानिक संरक्षण का कार्य करती है। कार्यपालिका द्वारा लाये गए विधेयक को व्यवस्थापिका से पारित होने के पश्चात न्यायपालिका उस विधेयक कि संवैधानिकता कि जाँच करने के साथ ही आवश्यकतानुसार उस कानून कि व्याख्या भी करती है। न्यायपालिका द्वारा किया गया यह कार्य ही “न्यायिक पुनराविलोकन” कहलाता और यही न्यायपालिका कि सबसे बड़ी शक्ति है जो व्यवस्थापिका को भी काफी हद तक नियंत्रित कर संतुलित लोकतंत्र कि स्थापना में विशेष दायित्व का निर्वहन करती है। अगर न्यायपालिका को लगता है कि उक्त विधेयक असंवैधानिक है तो उसे निरस्त भी कर सकती है। संविधान के संरक्षण का दायित्व भी न्यापालिका में निहित है। इन तथ्यों से यह साफ़ होता है कि संविधान के मूल स्वरुप के संरक्षण का विशेष दायित्व भी न्यायपालिका के कन्धों पर है एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति पूर्णतया उत्तरदायी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि शासन एवं तंत्र को संचालित एवं परिभाषित करने के लिए संवैधानिक पद्धति ही सबसे बेहतर विकल्प है और न्यायपालिका संविधान के प्रति उत्तरदायी है। “संविधान के प्रति न्यायपालिका का यह उत्तरदायित्व ही उसे लोकतांत्रिक स्तम्भ के रूप खडा करता है।” इन तीनो स्तंभों के बीच सबसे बड़ी समानता यह है कि तीनो का निजीकरण नहीं हो सकता है और और तीनो में से कोई भी किसी व्यक्ति संप्रभु के अधीन नहीं हो सकती।

अब बात करें लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ मीडिया की। सर्वप्रथम प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह कथित चौथा स्तम्भ संवैधानिक रूप से किसके प्रति उत्तरदायी है? इसके निर्माण में जनता कौन सी लोकतान्त्रिक पद्धति का प्रयोग होता है? क्या इसमें राष्ट्रीय एकल एवं अद्वितीय संस्था होने के कोई लक्षण हैं? क्या यह पूर्णतया गैर-निजी तौर पर संचालित है?क्या यह पूर्णतया गैर-व्यावसायिक है? लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ सिर्फ सवाल पूछने का कर्तव्य रखता है या संवैधानिक रूप से इसके उत्तरदायित्व का भी कोई निर्धारण है? क्या यह पूर्णतया व्यक्ति संप्रभु के अधीन नहीं है? मेरे मत में उपरोक्त सभी सवालों पर गौर करें तो एक बात साफ़ तौर पर नज़र आती है कि “मीडिया” में लोक उत्तरदायित्व कि अनिवार्यता बिलकुल नहीं है। मीडिया के निर्माण में जनता का योगदान एक पेशेवर से ज्यादा कुछ भी नहीं है जैसे – टीचर, डॉक्टर ठीक वैसे ही पत्रकार। इसके निर्माण एवं गठन कि कोई लोकतान्त्रिक पद्धति नहीं बल्कि प्रशासनिक पद्धति है। इसके गैर निजी होने का तो सवाल करना ही बेमानी है क्योंकि आज का हर तीसरा पूंजीपति अखबार, पत्रिका, चैनल में निवेश करने में ज्यादा उत्सुक है और इसकी परिशुद्धता का आकलन इसी से किया जा सकता है।

अब मैं जिक्र करूंगा मीडिया के कार्यों की, जिसमें प्रथम कार्य है संचार प्रेषण। यह एक संचार का माध्यम है जो जनता को घटित अघटित घटनाक्रमों, सरकार एवं प्रशासन के कार्यों अथवा समाज कि हर छोटी बड़ी चीजों कि जानकारी उपलब्ध कराता है। मीडिया के पक्ष में एक सकारात्मक पहलू यह है कि अक्सर लोकचेतना को जागृत करने में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान रहता है। परन्तु यह ठीक वैसा ही है जैसा स्वास्थ्य कल्याण विभाग द्वारा पोलियो ड्रॉप घर घर जाकर पिलवाना, बीमारियों से लोगों को अवगत कराना। तमाम संस्थाएं अलग-अलग स्तर पर राष्ट्रहित में कार्य कर रही है तो क्या सबको एक स्तम्भ के तौर पर देखा जाना उचित है? मीडिया ठीक वैसे ही काम कर रहा है जैसे स्कुल, अस्पताल एवं अन्य। मीडिया द्वारा किये जा रहे कार्य राष्ट्रहित एवं लोकहित में अवश्य हैं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि इसे व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के साथ चौथे स्तम्भ के रूप में देखा जाय। जहां तक मुझे ज्ञात है लोकतंत्र का इतिहास आधुनिक मीडिया के इतिहास से ज्यादा पुराना। ११वीं शताब्दी में जब प्रथम बार ब्रिटेन में लोकतंत्र कि स्थापना हुई थी उस दौरान मीडिया(ब्रोडकास्ट) नाम की कोई चीज़ नहीं थी।

उपरोक्त विश्लेषण के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच पा रहा हूँ कि लोकतंत्र कि छत सिर्फ टीन स्तंभों पर टिकी है। इस क्रम में मीडिया की स्थिति एक विभाग विशेष से ज्यादा नहीं परिलक्षित होती है और राष्ट्र का यह विभाग अन्य विभागों से ज्यादा प्रभावी, सक्रिय एवं महत्वपूर्ण है।

4 COMMENTS

  1. क्या वाकई लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है मीडिया? -by- शिवा नन्द द्विवेदी “सहर”

    इज इट वन ऑफ़ द फोर पिलर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी ? – नो

    यह संम्पूर्ण व्यापार बन चुका है – इसका समय / स्थान बिकाऊ है, इसके रेट तय हैं. पेड समाचार प्रसारित होते हैं.

    जो क्हो, माल दो, प्रकाशित करवा लो, दलीलें पेश करवा लो.

    लगभग प्रत्येक राजनेतिक दल का अपना-अपना मीडिया; fourth pillar कहाँ का रहा !

    – अनिल सहगल –

  2. आदरणीय —-शिवा नन्द द्विवेदी “सहर” जी सप्रेम आदर जोग ””
    साहित्य समाज का दर्पण है ;;समाज में जो कुछ होता रहता है वही हम साहित्य में ढूंढते हैं
    और मीडिया? स्वयं एक स्तम्भ है जो ब्यवस्था पर नहीं स्वतंत्र स्तम्भ है पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा पत्रकार स्वयं समाज की अच्छाई बुराई को भांपकर तय करता है पत्रकार या पत्रकारिता का उद्देश्य
    अच्छे समाज का सृजन करना है ”””””””’

  3. अच्छा है की हमारे देश मे अधिकांश लोग न टीवी देखते है ना अखबार पढते है और ना ही रेडियो सुनते है. वरना छद्म विदेशी निवेष एवम बिकाउ मिडियो तो देश को बट्टे खाते लगा देती. बेलगाम और गैरजिम्मेवार मिडीया देश के लिए घातक है. हाँ मिडीया अपने लिए आचार संहिता बना ले तथा अपने पुर्वाग्रही विचारो का सम्प्रेषण की बजाय जो हो रहा है उसको यथारुप पाठको के समक्ष पहुंचाने का काम करे तो उचित होगा.

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