सोनिया की भारत को देन : ईसाईकरण

ईसाईकरण

christianityदेश में तथाकथित बुद्घिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है जो यह मानता है कि इस देश में राष्ट्रीय एकता कभी नही रही और आज हम जिस देश को भारत के नाम से जानते हैं वह विभिन्न राष्ट्रीयताओं से मिलकर बना है। ऐसे लोगों की मान्यता को जे.एन.यू. बलवती करता आ रहा है। इसके कई प्रोफेसर ऐसे हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से भारत में विभिन्न राष्ट्रीयताओं की बात करते हुए कश्मीर पर भारत के अधिकार को भी अनुचित और साम्राज्यवादी माना है। इस प्रकार के विचारों को इस विश्वविद्यालय में प्रो. निवेदिता जब अपने विद्यार्थियों के सामने परोसती हैं तो हमारे विद्यार्थी इस पर तालियां बताते हैं। इस प्रकार की मान्यता रखने वाले लोगों का या बुद्घिजीवियों का मानना यह भी है कि भारत में विदेशी घुसपैठ की समस्या कुछ भी नही है और हिंदू धर्म विश्व का एक क्रूर धर्म है। स्पष्ट है कि इस धर्म को मिटा देना ही इनकी दृष्टि में उचित है। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए इन लोगों ने पूर्वोत्तर भारत का धर्मांतरण कराने में तथा बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ कराके आसाम का जनसांख्यिकीय आंकड़ा बिगाडऩे में देश घातक सहायता की है। जिससे देश के कई भागों में विखण्डनकारी शक्तियां बलवती होती जा रही हैं।

1962 ई. में पंडित नेहरू ने लोकसभा में चिंता प्रकट करते हुए कहा था कि-‘असम क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से भारी संख्या में मुसलमानों का अवैध प्रवेश देश के लिए घातक है।’ पंडित नेहरू जानते थे कि देश का बंटवारा किस आधार पर हुआ था? और अब यदि फिर बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ को जारी रहने दिया गया तो उसके परिणाम क्या होंगे? दुर्भाग्य रहा इस देश का कि जैसी चिंता नेहरू जी ने इस बांग्लादेशी अवैध घुसपैठ को लेकर संसद में 1962 में की थी वैसी ही चिंता श्रीमती गांधी भी अपने शासनकाल में करती रहीं, पर उनके ही उत्तराधिकारियों राजीव, सोनिया, राहुल के आते-आते पूर्वोत्तर की समस्या की ओर से कांग्रेस ने पूरी तरह आंखें बंद कर लीं। आज वहां की अधिकांश हिंदू जनसंख्या का धर्मांतरण करके ईसाईकरण कर दिया गया है। सोनिया ने ईसाईकरण की इस प्रक्रिया को समस्या का एक समाधान माना है, यह अलग बात है कि इससे समस्या और भी अधिक विकराल हो गयी है।

हमारे कांग्रेसी बंधुओं को गांधी की अहिंसा में, ईसाईयों की प्रेम-शांति की छलपूर्ण बातों में तथा इस्लाम के भाईचारे में अटूट विश्वास है। इसके लिए वह इन सबकी प्रशंसा भी करते हैं, पर हिंदुत्व की वैदिक संस्कृति के ‘मानवतावाद’ और ‘राष्ट्रवाद’ में तनिक भी विश्वास नही है। कितने दु:ख की बात है कि जिस व्यवस्था से वास्तविक शांति देश और विश्व में आ सकती है उसे ये प्रगतिशीलता में बाधक मानते हैं।

ईसाई पादरी पूर्वोत्तर भारत के ईसाईकरण के लिए राख में दवा मिलाकर रोगियों का उपचार करने का नाटक करते रहे हैं। इस दवा को वह रोगी को प्रभु यीशु का उसके लिए प्रसाद कहकर खिलाते हैं, और उसके ठीक होने पर उसे ‘यीशु का चमत्कार’ बताकर धर्मपरिवर्तन के लिए तैयार करते हैं। इस प्रकार के प्रपंचों से गरीब और अशिक्षित लोग इनके जाल में फंस जाते हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने तो 1956 में इस प्रकार की गतिविधियों को रोकने के लिए विधिवत एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। जिसे डा. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में गठित किया गया था। उस ‘नियोगी समिति’ ने आदिवासी क्षेत्रों में जाकर विदेशी पादरियों की गतिविधियों का अध्ययन करने के उपरांत अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट किया था कि ईसाई मिशनरी स्थापित करने का एक ढंग है, विदेशी पादरी किसी गांव को चुनकर वहां आ बैठता है। शनै: शनै: वहां के निवासियों से संपर्क करता है। दु:ख दर्द में काम आता है। उन्हें दवाइयां देता है। कुछ गरीबों को नकद रूपया व मक्की चना आदि खाद्यान्न भी दिया जाता है उधार के रूप में। बाद में कहा जाता है कि यदि वह प्रभु यीशु की शरण में आने को तैयार है तो पूरा ऋण माफ कर दिया जाएगा, तथा कुछ और सुविधाएं भी दी जाएंगी। ईसाई धर्म में दीक्षित करते समय नये कपड़े दिये जाते हैं। उन्हें खेती के लिए मुफ्त खाद-बीज आदि दिये जाते हैं। मुफ्त दवा दी जाती है। इस प्रकार लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित किया जाता है। नियोगी समिति ने उस समय यह भी स्पष्ट किया था कि 1950 से 54 तक ब्रिटेन, अमरीका, कनाडा, बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, नार्वे, स्वीडन, स्विटजरलैंड से 29.27 करोड़ रूपया भारत में ईसाईकरण के लिए दिया गया है।

आज कांग्रेस की गलतियों से जहां-जहां ईसाईकरण की प्रक्रिया बलवती हुई है, वहीं-वहीं पृथकतावाद की बातें की जा रही हैं। कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी का इस पृथकतावाद को बढ़ावा देने में योगदान रहा है, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस को ईसाई मिशनरियों के कार्यों को कभी राष्ट्र विरोधी नही मानने दिया और ‘नियोगी समिति’ के प्रतिवदेन के आधार पर भारत में ईसाईकरण की प्रक्रिया को बाधित न होने देकर उसे राजीव गांधी के शासनकाल में तो सरकार की ओर से लगभग पूर्णत: संरक्षित करा दिया। यद्यपि कई ईसाई विद्वानों ने बाहरी ईसाई मिशनरियों के भारत में अवैध कार्यों की और राष्ट्रद्रोही आचरण की निंदा करते हुए उसे देश के हितों के प्रतिकूल बताने में भी संकोच नही किया है, पर सोनिया ने या उनके पति राजीव गांधी ने इस ओर ध्यान नही दिया। कई दूरदर्शी व राष्ट्रवादी ईसाई पादरियों ने बदली हुई परिस्थितियों में ईसाई समाज को भारत की सांस्कृतिक मूलधारा में समाहित करने के लिए गिरजाघरों आदि के भारतीयकरण का सुझाव दिया है। केरल के प्रसिद्घ ईसाई पत्रकार श्री के.जे. जोसेफ ने कहा था-‘‘अब समय आ गया है कि स्वतंत्र भारत में ईसाई अपने अल्पसंख्यक चरित्र को छोडक़र भारत की मूलधारा के साथ एकात्म होकर इस देश में समरसता स्थापित करें।’’ बंगलौर के युक्यूमेक्सियम क्रिश्चियन सेंटर के डायरेक्टर एम.ए. टामस ने भी लिखा है-‘‘यह खेद की बात है कि दूसरे देश की संस्कृति का भारत में अभी तक आयात किया जा रहा है। मेरा स्पष्ट मत है कि अब विदेशी पादरियों की इस देश में आवश्यकता नही है। उनकी जगह भारतीय पादरी ही सच्चे अर्थों में ईसा की सेवा के आदर्शों को क्रियान्वित कर सकते हैं।’’

पर क्या करें? जे.एन.यू. के प्रोफेसर इन बातों को मानने को तैयार नही हैं, और उनमें से कई आज भी अपने छात्रों को यही बताये जा रहे हैं कि भारत का धर्म बर्बर है और यहां जितना हो सके उतना वैचारिक भोजन बाहर से आयातित कर लोगों को परोसा जाए। राख में दवा मिलाने का यह गोरखधंधा जे.एन.यू. कर रहा है। देश के मौलिक स्वरूप को और इसकी संस्कृति को मिटा देने का फासीवादी कार्य इस विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है और उसके उपरांत भी उन लोगों को ‘फासीवादी’ कहा जा रहा है जो इस देश के मौलिक चिंतन में जीते हैं और इसको ‘विश्वगुरू’ बनाना चाहते हैं। षडय़ंत्र की परतें जैसे-जैसे सामने आने लगीं या जैसे ही इस षडय़ंत्र पर शिकंजा कसने की तैयारी मोदी सरकार की ओर से की गयी वैसे ही देश में नया बवंडर खड़ा हो गया। देश के लोग समझें कि षडय़ंत्र क्या है, उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं, और हमें उन्हें उखाडऩे के लिए क्या करना है?

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  1. चर्च देश में अंधविश्वास फैला कर लोगो को बेवकूफ बनाता है

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