सरकार के नियंत्रण में नहीं है पाक सेना

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-प्रमोद भार्गव- pakistan_terror_main1 लगातार दो भारतीय जवानों की शहादत से तय हो गया है कि पाकिस्तानी सेना का रवैया बदलने वाला नहीं है। जबकि पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के नरेंद्र मोदी सरकार के शपथ-समारोह में आने से उम्मीद बंधी थी कि हालात बदलेंगे और घुसपैठ पर अंकुश लगेगा। इसके उलट बीते दो माह में हालात बदतर हुए हैं। 19 बार सीमा पर संघर्ष विराम टूटा है। दो सैनिक षहीद हुए हैं और अनेक घायल हुए हैं। बल्कि अब संघर्ष विराम के उल्लंघन का क्षेत्रीय दायरा नियंत्रण रेखा लांघकर अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुच गया है। जिस तरह से पाक की नापाक हरकतें बढ़ी हैं, उससे साफ है पाक आतंकवादियों की घुसपैठ के साथ, भारतीय सेना को उकसाने का काम भी कर रहा है। इन वारदातों को खारिज करने की दृश्टि से अकसर यह बहाना उछाल दिया जाता है कि पाक सरकार के काबू में सेना नहीं है। किंतु यह तर्क गले उतरने वाला नहीं है, क्योंकि पाक की यही सेना वजीरस्तान में 400 आतंकवादियों को हाल ही में मौत के घाट उतार चुकी है और उसका यह ऑपरेशन आगे भी जारी है। लिहाजा एकाएक ऐसा नहीं माना जा सकता कि सरकार के नियंत्रण से सेना पूरी तरह बाहर है। दो जवानों की शहादत के बाद भी यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री अरुण जेटली नहीं चेते तो यह माना जाएगा कि वे मनमोहन सिंह सरकार की ढुलमुल नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। पाक और चीन के खिलाफ उनकी दहाड़ें गीदड़ भवकियां थीं। मोदी की रगों में दौड़ रहे खून को जनता पानी समझने लग जाए इससे पहले राजग सरकार को चेतने की जरुरत है। द्विपक्षीय संबंध बढ़ाने की दृष्टि से 25 अगस्त को इस्लामाबाद में भारत और पाक के विदेश सचिवों की जो बैठक होने जा रही है, उसे तब तक स्थगित रखा जाए, जब तक नवाज षरीफ सीमा पर हिंसक झड़पों का कोई ठोस भरोसा न दें ? पाक सेना जब शरीफ के कहने पर वजीरस्तान और ब्लूचिस्तान से आतंकवादियों का सफाया कर सकती है तो फिर वह भारत की ओर रुख करने वाले आतंकी संगठनों की नाक में नकेल क्यों नहीं डाल सकती ? पाक अधिकृत कश्मीर में जो आतंकी प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं, उन्हें जमींदोज क्यों नहीं कर सकती ? मोदी सरकार यदि पाक सरकार को समय रहते आतंकी संगठनों पर कड़ाई से कार्यवाही करने को विवश नहीं कर पाती और महज व्यापार के लिए बातचीत की प्रक्रिया जारी रखती है तो मोदी सरकार की जगहंसाई सप्रंग सरकार की तर्ज पर होने लग जाएगी। हिंसा और सीमा पर गोलियों की बौछारों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने की वार्ताएं भाजपा को मिले जनादेश का भी उल्लंघन हैं। पाक सेना कितनी दगाबाज है इसका खुलासा पाक के पूर्व लेफिटेंट जनरल एवं पाक खुफिया ऐजेंसी आईएसआई के पूर्व अधिकारी शाहिद अजीज ने ‘द नेशनल डेली’ में किया था। इसमें कहा गया था कि कारगिल युद्ध में पाक आतंकवादी नहीं, बल्कि उनकी वर्दी में पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक ही लड़ रहे थे और इस लड़ाई का लक्ष्य सियाचिन पर कब्जा करना था। चूंकि यह लड़ाई बिना किसी योजना और अंतरराश्ट्र्रीय हालातों का अदांजा लगाए बिना लड़ी गई थी, इसलिए तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने पूरे मामले को रफादफा कर दिया था। क्योंकि यदि इस छद्म युद्ध की हकीकत सामने आ जाती तो मुर्षरफ को ही संधर्ष के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता। इससे यह तथ्य तो प्रमाणित होता है कि पाकिस्तानी फौज इस्लामाबाद के पूरे नियंत्रण में नहीं है। आतंकी सरगना हाफिज सईद भारत-पाक सीमा पर खुलेआम घूम रहा है। जैश, लश्कर और हिजबुल के आतंकी दहशतगर्दी फैलाने में शरीक हैं। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सत्ता परिर्वतन भले ही हो गया है, लेकिन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का सैन्य संगठनों पर कोई नियंत्रण नहीं है, बल्कि वे सेना और आतंकियों के दबाव में हैं। यही वजह है कि नवाज शरीफ कश्मीर हड़पने की नीतियों से संबंधित फाइल खोलने को फिर से तत्पर हैं। उन्होंने कारगिल युद्ध के समय भारत से जो वादे किए थे, उन्हें भूला दिया है। इससे साफ होता है कि नरेंद्र मोदी सरकार को भी शरीफ की भ्रम में रखना चाहते हैं। इसी लेख में अजीज ने जनवरी 2014 में मेंढर क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के सर कलम किए जाने की जो घटना घटी थी,उस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान को चेताते हुए लिखा था,’ कारगिल की तरह हमने अब तक जो भी निरर्थक लड़ाइयां लड़ी हैं, उनसे हमने कोई सबक नहीं लिया है। सच्चाई यह है कि हमारे गलत कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं। पाक इस समय जिस तरह आंतरिक और बाहरी विपदाओं से जूझ रहा है, उससे उसकी आर्थिक बद्हाली बढ़ रही है।’ यहां कठिन होते जा रहे हालातों का एक कारण यह भी है कि वहां के राश्ट्र्रपति, प्रधानमंत्री और सेनानयक पद पर रहते हुए भी धर्म के नाम पर लोगों को भड़काने व आतंकवाद को शह देने का काम करते हैं, लेकिन जब पदच्युत हो जाते हैं तो देश छोड़ जाते हैं। मुर्षरफ और षरीफ ने भी यही किया था। पाक में हालात ऐसे ही बने रहे तो एक दिन जनता सड़को पर होगी और सेना को मनमानी पर उतरने का मौका मिल जाएगा। सीमा पर बद्तर हो रहे हालात और आतंकी घटनाओं के क्रम में वक्त आ गया है कि हम ईंट का जबाव पत्थर से दें। लेकिन हम हैं कि रिश्ते सुधारने की पहल अपनी ओर से करते हुए पाक के प्रति रहमदिली बरत रहे हैं। जबकि हमें सख्ती बरतने की जरूरत है। जरूरी नहीं कि यह सख्ती खून का बदला खून जैसी प्रति हिंसा का रूख अपनाकर दिखाई जाए। फिलहाल जब तक युद्ध की स्थिति निर्मित नहीं हो जाती है, तब तक जारी आर्थिक समझौतों को प्रतिबंधित कर दिया जाए। रेल सेवा बंद कर दी जाए। अभी दोंनो देशों के बीच व्यापार तीन अरब डॉलर तक पहुंच गया है। यदि यह व्यापार खत्म होता है तो इससे ज्यादा नुकसान पाक को ही होगा, क्योंकि पाक उत्पादक देश नहीं है। उसे खाद्य सामग्री से लेकर उपभोक्ता वस्तुएं भारत और चीन से निर्यात करनी होती हैं। यदि ऐसा होता है तो पाक में खाद्य व उपभोक्ता वस्तुओं का टोटा पड़ जाएगा, इस लिहाज से वहां का आम नागरिक पाक सरकार को आतंकवाद पर काबू पाने के लिए विवश कर सकता है। खेल, पर्यटन और तीर्थ यात्रियों की सुविधाओं में जो सरलीकरण किया गया है, उस पर भी फिलहाल अंकुश लगाना जरूरी है। इन प्रतिबंधों पर अमल की दृश्टि से यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई कठिनाई महसूस हो रही है तो उन्हें उसी अमेरिका से सबक लेने की जरूरत है, जिसकी आर्थिक नीतियों के वे मनमोहन सिंह की तरह अनुयायी बने हुए हैं। अमेरिका ने खुले तौर से ऐलान किया था कि उसके मित्र देश ईरान से कोई व्यापार न करें। भारत भी अपने व्यापारिक मित्र देषों से कह सकता है कि यदि वे पाक से व्यापार करते हैं तो हमसे वाणिज्यिक संबंध बनाये रखना मुश्किल होगा, लेकिन जिस तरह से मोदी और रक्षामंत्री अरुण जेटली की सैनिकों की षहादत पर बोलती बंद है, उससे लगता नहीं कि वे इस दिशा में कोई कठोर कदम उठा पाएंगे ? पाकिस्तान को विवश करने की दृष्टि से हमें अमेरिका के प्रति भी थोड़ा कड़ा रूख अपनाना होगा। क्योंकि पाक सेना की दबंगई बढ़ाने का परोक्ष रूप से काम अमेरिका ही कर रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को तीन अरब डॉलर की सालाना मदद कर रहा है। इसके पहले अमेरिका ने पाक को इतनी बड़ी धनराशि पहले कभी उपलब्ध नहीं कराई। ऐसा अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना बाहर निकालने की राणनीति के चलते कर रहा है। यह मदद पाक कूटनीति का पर्याय होने की बजाय, सेना और आईएसआई की कोशिशों का परिणाम है, इसलिए इस धनराशि का इस्तेमाल भारत के खिलाफ जारी आतंकी गतिविधियों में होना तय है। यहां गौरतलब यह भी है कि पाक-अफगान सीमा पर पाक के कारीब ड़ेढ लाख सैनिक तैनात हैं। अमेरिका सैनिकों कि जब अफगान से पूरी तरह वापिसी हो जाएगाी तब सेना की इस सीमा पर जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे में यदि इन सैनिकों की तैनाती भारत-पाक सीमा पर कर दी जाती है तो भारत की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। इस लिहाज से भारत के नेतृत्वकर्ताओं में यदि जरा भी दूरदर्शिता है तो जरूरी है कि वह पाक सेना की अफगान सीमा से वापसी के पहले कोई कारगर कदम उठा लें। इस स्थिति को पाक को मुहंतोड़ जवाब देने का मुनासिब वक्त भी कहा जा सकता है।

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  1. ऐसा कुछ भी नहीं है , यह बात केवल पाक के लिए भारत के सन्दर्भ में ही कही जाती है असल में पाक सरकार की नीयत कभी साफ़ नहीं रही चाहे कोई भी प्रधानमंत्री क्यों न बना हो , शरीफ भी शरीफ होने का केवल ढोंग ही करते है , वाकई में हैं नहीं और ये भी कि जब तक कोई बड़ा झटका पाक को नहीं लगे तब तक वह सुधरने वाला नहीं। वह इसलिए नहीं लग सकता क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय हालात हमारे माकूल पूरणतः कभी नहीं रहे चौधरी बना अमेरिका हमेशा ढुलमुल तरीका अपनाता है और आखिर दवाब भारत पर ही डालता है यही हाल अन्य देशों का है , यह सिरदर्द तो हमेशा ही रहना है , अब तो पिछली सरकारों के रहमोकरम से पाकिस्तान के आतंकवादी देश में इतने घुसे बैठे हैं कि कोई युद्ध हुआ तो अंदरुनी मोर्चे पर उनसे भी संभल कर रहना होगा

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