महान स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप

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mahendra pratapराजा महेन्द्र प्रताप (जन्म: 1 दिसम्बर 1886, मुरसान, उत्तर प्रदेश – मृत्यु: 29 अप्रैल, 1979) एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे। ये ‘आर्यन पेशवा’ के नाम से प्रसिद्ध थे।
राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था। राजा घनश्याम सिंह जी के तीन पुत्र थे, दत्तप्रसाद सिंह, बल्देव सिंह और खड़गसिंह, जिनमें सबसे बड़े दत्तप्रसाद सिंह राजा घनश्याम सिंह के उपरान्त मुरसान की गद्दी पर बैठे और बल्देव सिंह बल्देवगढ़ की जागीर के मालिक बन गए। खड़गसिंह जो सबसे छोटे थे वही हमारे चरित नायक राजा महेन्द्र प्रताप जी हैं। मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंड़गसिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था, मानो खड़ग उनके व्यक्तित्व में साकार प्रताप बनकर ही एकीभूत हो गई हो। कुँवर बल्देव सिंह का राजा साहब (महेन्द्र प्रताप जी से) बहुत घनिष्ठ स्नेह था और राजा साहब भी उन्हें सदा बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। उम्र में सबसे छोटे होने के कारण राजा साहब अपने बड़े भाई को ‘बड़े दादाजी’ और कुँवर बल्देवसिंह जी को ‘छोटे दादाजी’ कहकर संबोधित किया करते थे।
जब राजा साहब केवल तीन वर्ष के ही थे, तभी उन्हें हाथरस नरेश राजा हरिनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था, किन्तु राजा साहब 7-8 वर्ष की अवस्था तक मुरसान में ही रहे। इसका कारण यह था कि राजा घनश्यामसिंह को यह डर था कि कहीं राजा हरिनारायण सिंह की विशाल सम्पत्ति पर लालच की दृष्टि रखने वाले लोभियों द्वारा बालक का कोई अनिष्ट न हो जाए।
राजा साहब पहले कुछ दिन तक अलीगढ़ के गवर्नमेन्ट स्कूल में और फिर अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। यही कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। राजा साहब को अलीगढ़ में पढ़ने सर सैयद अहमद ख़ाँ के आग्रह पर भेजा गया था, क्योंकि राजा साहब के पिताजी राजा घनश्याम सिंह की सैयद साहब से व्यक्तिगत मित्रता थी। इस संस्था की स्थापना के लिए राजा बहादुर ने यथेष्ट दान भी दिया था। उससे एक पक्का कमरा बनवाया गया, जिस पर आज भी राजा बहादुर घनश्याम सिंह का नाम लिखा हुआ है। राजा साहब स्वयं हिन्दू वातावरण में पले परन्तु एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। इसका एक सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम धर्म और मुसलमान बन्धुओं का निकट सम्पर्क उन्हें मिला और एक विशिष्ट वर्ग के (राजकुमारों की श्रेणी के) व्यक्ति होने के कारण तब उनसे मिलना और उनके सम्पर्क में आना सभी हिन्दू मुस्लिम विद्यार्थी एक गौरव की बात मानते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राजा साहब का मुस्लिम वातावरण तथा मुसलमान धर्म की अच्छाइयों से सहज ही परिचय हो गया और धार्मिक संकीर्णता की भावना से वह सहज में ही ऊँचे उठ गए। बाद में जब राजा साहब देश को छोड़ कर विदेशों में स्वतंत्रता का अलख जगाने गये, तब मुसलमान बादशाहों से तथा मुस्लिम देशों की जनता से उनका हार्दिक भाईचारा हर जगह स्वयं बन गया।
शिक्षा द्वारा जैसे-जैसे बुद्धि के कपाट खुले वैसे-वैसे ही अंग्रेज़ों की साम्राज्य लिप्सा के प्रति उनके मन में क्षोभ और विद्रोह भी भड़का। वृन्दावन के राज महल में प्रचलित ठाकुर दयाराम की वीरता के किस्से बड़े बूढ़ों से सुनकर जहाँ उनकी छाती फूलती थी, वहाँ जिस अन्याय और नीचता से गोरों ने उनका राज्य हड़प लिया था, उसे सुनकर उनका ह्रदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता था और वह उनसे टक्कर लेने के मंसूबे बाँधा करते थे। जैसे-जैसे उनकी बुद्धि विकसित होती गई, वैसे अंग्रेज़ों के प्रति इनका विरोध भी मन ही मन तीव्र होता चला गया।
राजा साहब जब अलीगढ़ में विद्यार्थी थे, उनके छोटे भाई दादा (बीच के भाई) कुँवर बल्देव सिंह प्राय: उनसे मिलने अलीगढ़ आते रहते थे। एक दिन वह उन्हें अपने साथ अलीगढ़ के अंग्रेज़ पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मिलाने ले गए। उस समय राजा साहब 19 या 20 वर्ष के नवयुवक थे। जब पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मुलाकात हुई, तो कुँवर बल्देव सिंह ने उसे सलाम किया परन्तु राजा साहब ने ऐसा न करके उससे केवल हाथ मिलाया। बाद में जब बातचीत का सिलसिला चला तो राजा साहब ने पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट को किसी प्रसंग में यह भी हवाला दिया कि हमारे दादा अंग्रेज़ों से लड़े थे। यह सुनकर सुपरिन्टेन्डेन्ट कुछ समय के लिए सन्न रह गया और कुछ मिनटों तक विचार-मग्न रहा। जब बाद में बातचीत का प्रसंग बदला तब वह सामान्य स्थिति में आ सका। इस प्रकार निर्भीकतापूर्वक अपनी स्पष्ट बात कह देने की आदत राजा साहब में बचपन से ही रही।
राजा साहब के बड़े भाई कुँवर बल्देव सिंह जी की शादी फरीदकोट में बड़ी शान से हुई थी और उसे देखकर उनके मन में भी यह गुप्त लालसा जाग उठी थी कि मेरा विवाह भी ऐसी ही शान और तड़क-भड़क से हो। राजा साहब के विद्यार्थी जीवन में ही सन 1901 में जब वह केवल 14 वर्ष के थे, यह अवसर भी आ गया। जींद नरेश महाराज रणवीरसिंह जी की छोटी बहिन बलवीर कौर से उनकी सगाई बड़े समारोह से वृन्दावन में पक्की हो गई और विवाह की तैयारी होने लगी। परन्तु इसी बीच एक महान दुर्घटना घट गई। जिस दिन राजा साहब का तेल चढ़ा था, उसी दिन दुर्भाग्य से मथुरा वृन्दावन मार्ग पर स्थित जयसिंहपुरा वाली कोठी में उनके पूज्य पिता राजा बहादुर घनश्यामसिंह जी का स्वर्गवास हो गया। इस दुर्घटना के कारण विवाह को भी स्थगित करने का भी विचार होने लगा, किन्तु अन्त में यही तय हुआ कि क्योंकि राजा महेन्द्र प्रताप गोद आ गये हैं, अत: देहरी बदल जाने के कारण अब विवाह नहीं रोका जा सकता।
रेल गाड़ियों में गई बारात

राजा महेन्द्र प्रताप जी का विवाह जींद में बड़ी शान से हुआ। दो स्पेशल रेल गाड़ियों में बारात मथुरा स्टेशन से जींद गई। इस विवाह पर जींद नरेश ने तीन लाख पिचहत्तर हज़ार (3,75,000) रुपये व्यय किए थे। यह उस सस्ते युग का व्यय है, जब 1 रुपये का 1 मन गेहूँ आता था। विवाह में इतना अधिक दहेज आया था कि वृन्दावन के महल का विशाल आँगन उससे खचाखच भर गया। इस दहेज का बहुत सा सामान महाराज ने इष्ट मित्रों और जनता को बांट दिया। विवाह के समय राजा साहब की आयु केवल 14 वर्ष की थी और उनकी महारानी उनसे तीन वर्ष बड़ी थीं। इस छोटी अवस्था में भी महाराज में दानवृत्ति और त्यागवृत्ति विद्यमान थी। वह राज्याधिकार प्राप्त होने पर भी यथावत बनी रही, वरन् कहना चाहिए कि उनमें परोपकार की भावना निरंतर विकसित होती रही।
मुरसान राज्य के संस्थापक नन्दराम सिंह अपने परदादा माखनसिंह की तरह असीम साहसिक तथा रणनीति और राजनीति में पारंगत थे। औरंगज़ेब को नन्दराम सिंह ने अपने कारनामों से इतना आतंकित कर दिया, जिससे मुग़ल दरबार में नन्दराम सिंह को फ़ौजदार की उपाधि देकर संतोष की साँस ली। नन्दराम सिंह ने पहली बार मुरसान का इलाका भी अपने अधिकार में कर लिया और वे एक रियासतदार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके चौदह पुत्र थे, जिनमें से जलकरन सिंह, खुशालसिंह, जैसिंह, भोजसिंह, चूरामन, जसवन्तसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह इन आठ पुत्रों के नाम ही ज्ञात हो सके हैं। पहले जलकरनसिंह और उनकी मृत्यु के बाद खुशालसिंह नन्दराम सिंह के उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने अपने पिता की उपस्थिति में ही मुरसान में सुदृढ़ क़िला बनवाया[2] और पिता के उपार्जित इलाके में भी वृद्धि की। सआदतुल्ला से बहुत सा इलाका छीन कर मथुरा, अलीगढ़, हाथरस के अंतवर्ती प्रदेश को भी इन्होंने अपने राज्य में मिला लिया, घोड़े और तोपों की संख्या में भी वृद्धि की। शेष भाइयों में से चूरामन, जसवंतसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह ने क्रमश: तोछीगढ़, बहरामगढ़ी, श्रीनगर और हरमपुर में अपना अधिकार स्थापित किया। नन्दराम सिंह ने अपनी आंखों से ही अपनी संतति के हाथों अपने राज्य-वैभव की वृद्धि होती देखी।[3] यह 40 वर्ष राज्य करके सन 1695 ई. में स्वर्ग सिधारे।
राजा हरनारायण की मृत्यु के उपरान्त जनता ने स्वयं उन्हें अपने प्यार के कारण बचपन से ही राजा कहना प्रारम्भ कर दिया था और वह जनता के हृदयासन पर आज तक राजा के रूप में ही विद्यमान हैं। इस प्रकार राजा महेन्द्र प्रताप जी की ‘राजा की उपाधि’ जनता जनार्दन द्वारा प्रदत्त है। वह उन्हें अंग्रेज़ी दासता की विरासत से प्राप्त उपाधि नहीं है। सरकारी काग़ज़ों में अंग्रेज़ उन्हें सदा कुँवर ही लिखते रहे।
वृन्दावन में श्रावण की हरियाली तीज का झूला-उत्सव भारत प्रसिद्ध है। वृन्दावन के अधिष्टाता भगवान बाँके बिहारी जी वर्ष में केवल उसी दिन झूला झूलते हैं। इसी हरियाली तीज के अवसर पर महाराज ने अपने प्रथम पुत्र का जन्मोत्सव मनाने का निर्णय लिया। समस्त इष्ट मित्र व संबंधियों को आमंत्रण भेज दिये गए। महामना मालवीय जी सहित राजा साहब के संबंधी और मित्र गहने कपड़े और भेंट की सामग्री लेकर जन्मोत्सव में बड़े उत्साह से पधारे। सभी का यथायोग्य स्वागत सम्मान किया गया। एक विशाल यज्ञ मंडप में पंडितों ने यज्ञ कराया। यज्ञ के उपरान्त एक बधाई सभा हुई। इस सभा में राजा साहब ने भाषण देते हुए कहा कि मेरे आज जो पुत्र हुआ है, वह एक औद्योगिक शिक्षण संस्थान है। आप सब उसे आशीर्वाद दें। यह सुनकर सभा में हलचल मच गई। कुछ व्यक्ति राजा साहब की सराहना करने लगे तो कुछ इस प्रकार की गलतफहमी पैदा करने के लिए नाराज भी हुए। राजा साहब के एक वयोपृद्ध ग़रीब अध्यापक अल्ताज अली जो बच्चे के लिए बड़े उल्लास से जेबर व कपड़ा लेकर आये थे, राजा साहब को डांटने लगे। राजा साहब की दोनों माताएं यह समाचार सुनकर दु:खी हो गईं। उधर सभा में विद्यालय के नामकरण पर विचार होने लगा। यह सुझाव भी आया कि राजा साहब के पूज्य पिताजी के नाम पर विद्यालय का नाम हो, किसी ने कहा, स्वयं राजा साहब के नाम पर विद्यालय का नामकरण हो। किसी ने कहा ‘जाट विद्यालय’ हो, पर राजा साहब ने कहा श्री कृष्ण को प्रेमावतार भी कहते हैं और यह उन्हीं की लीला भूमि है, इसीलिए इसका नाम ‘प्रेम महाविद्यालय’ रखना चाहिए। सबने बड़े हर्ष से यह प्रस्ताव स्वीकार किया और इस विचार की प्रशंसा की।
अपने शासन काल में राजा साहब ने शिक्षा संस्थाओं और ग़रीबों की ओर विशेष ध्यान दिया। उनके लिए आपके द्वार सदा खुले रहते थे। अलीगढ़ के डी.ए.बी. कॉलेज और कायस्थ पाठशाला के लिए आपने भूमि दान में दी थी और हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी को भी भेंट दी थी। इसलिए आप विश्वविद्यालय के बोर्ड के सदस्य भी थे। बुलन्दशहर ज़िले में राजा साहब की काफ़ी बड़ी जमींदारी थी। वहाँ भी आपने अनेक संस्थाओं को हृदय खोलकर दान दिए। राजा साहब ने मथुरा के ज़िलाधिकारी को उस सस्ते जमाने में दस हज़ार रुपये दान दिए थे कि इस रकम से बैंक खोलकर उससे उनके मथुरा ज़िले के प्रजाजन किसानों को सहायता दी जाये। इसी प्रकार आपने 25 हज़ार रुपया देकर मथुरा ज़िले के अपनी ज़मीदारी के गांवों में प्रारंभिक पाठशालाऐं भी खुलवाईं।
राजा साहब जाति के आधार पर छुआछूत के उस समय भी घोर विरोधी थे, जब महात्मा गांधी इस देश में लौटे भी न थे। गांधी जी के अछूतोद्धार आन्दोलन आरम्भ होने से बहुत पहले ही आपने वृन्दावन जैसी पुराण पंथी वैष्णवी नगरी में रहकर भी इस अन्याय पूर्ण प्रथा के विरुद्ध जिहाद बोल दिया था। इस संबंध में कुछ घटना यहाँ दी जा रही हैं। यह वह युग था, जब सनातनी लोग अछूतों की छाया से भी छू जाना पाप मानकर स्नान करते थे और उन्हें बहुत ही हेय और घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। परन्तु राजा साहब ने सन 1911 में जब वे स्वास्थ्य लाभ के लिए अल्मोड़ा गये थे, एक टमटा के साथ भोजन कर लिया। टमटा ऐसी एक अछूत जाति थी, जिसकी छूई हुई वस्तु अपवित्र मानकर फेंक दी जाती थी। ऐसे व्यक्ति के साथ राजा साहब भोजन करें, यह बात उनके किसी साथी को पसन्द न थी। अत: चारों और काफ़ी कानाफूंसी हुई, परन्तु राजा साहब ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
राजा साहब में देश भक्ति की भावना आरम्भ से ही थी। सन 1906 में आप अपने साले जींद नरेश के विरोध के बावजूद भी कलकत्ता कांग्रेस में शामिल हुए थे। इसके उपरान्त प्रेम महाविद्यालय के छात्रों के एक दल के साथ एक स्पेशल बैगन बुक कराकर आप सन 1910 की प्रयाग कांग्रेस में भी सम्मिलित हुए। सब विद्यार्थियों को एकसी तनीदार नीची बगलबन्दी धारण करा कर ब्रजवासी वेषभूषा में यह दल प्रयाग पहुँचा था। इस वर्ष कांग्रेस अधिवेशन के साथ उसी मंडप में महाराज एक शिक्षण सम्मेलन भी करना चाहते थे, परन्तु श्री मोतीलाल नेहरू उन्हें कांग्रेस का पंडाल उपयोग के लिए देने को सहमत न हुए। तब राजा साहब ने 500 रुपये में एक नया शामियाना ख़रीदा, जिसमें लगभग 400 व्यक्ति बैठ सकते थे और कांग्रेस के साथ ही प्रयाग में एक अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन भी आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता झालावाड़ नरेश ने की थी।
१९०७ में उन्होंने सपरिवार पूरे विश्व का भ्रमण किया. टोरंटो से नियाग्रा प्रपात जाते समय जब वो लोगों को भारत की सभ्यता और दर्शन की विशेषताओं के बारे में बता रहे थे तो एक अमेरिकी कस्टम अधिकारी ने टिप्पणी कर दी की “परन्तु, ये सब विशेषतायें भारत को गुलाम होने से नहीं बचा सकीं”. इसने उन्हें झकझोर दिया.
१९११ में उन्होंने यूरोप के तकनिकी संस्थानों की यात्रा की ताकि उन्हें देखकर प्रेम महाविद्यालय को उन्नत बनाया जा सके.उस दौरान उन्होंने जर्मनी के शासक कैंसर विल्हेल्म को भी देखा.
भारत वापिस आकर उन्होंने गौरक्षा के लिए अभियान चलाया.देहरादून में घर लेकर रहना शुरू कर दिया और एक अख़बार भी निकलना शुरू किया जिसमे नैतिक शिक्षा और धार्मिक विषयों पर भी सामग्री रहती थी.
देहरादून से वृन्दाबन जाते समय उन्होंने ट्रैन में ही प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने का समाचार सुना और उसी समय अपने साथ चल रहे लोगों को कह दिया की वो “थियटर ऑफ़ वॉर” में जा रहे हैं.
उन्हें पासपोर्ट नहीं दिया गया अतः वो बिना पासपोर्ट के ही जर्मनी के लिए निकल पड़े और रास्ते में युद्ध के खतरों से बचते हुए जेनेवा पहुँच गए जहाँ राजा महेंद्र प्रताप जी ने प्रसिद्द क्रन्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा जी को तलाश किया और उनसे मिले. राजा साहब के साथ महात्मा मुंशीराम जी ( जो बाद में स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए)के पुत्र हरीश चन्द्र भी थे. श्याम जी कृष्ण वर्मा जी ने उन्हें लाला हरदयाल का पता दिया.वो उसी रात उनसे भी मिले.जहाँ वो अपने खाने के लिए कुछ आलू भून रहे थे.लाला हरदयाल जी ने उन्हें जर्मनी के कौंसल जनरल से मिलवाया.जिसने उन्हें जर्मनी जाकर सब कुछ देखने को कहा.लेकिन राजा महेंद्र प्रताप जी जर्मनी के सम्राट कैंसर से मिलना चाहते थे.और अंत में सरोजिनी नायडू के भाई चट्टोपाध्याय के साथ वो जर्मनी चले गए. लाला हरदयाल पहले ही बर्लिन पहुँच चुके थे.हरीश चद्र जी को कोई संस्कृत विद्वान मिल गयाथा अतः वो साथ छोड़कर उसके साथ लग गए.जर्मनी में महेंद्र प्रताप जी की अनेकों देशों के प्रमुख लोगों से भेंट हुई.और अंत में जर्मन सम्राट कैंसर से उनकी भेंट हुई जिसमे सम्राट कैंसर ने उन्हें संकेत दिया की यदि अफगानिस्तान की तरफ से सैनिक अभियान छेड़ा जाये तो जींद, पटिआला और नाभा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं.कैंसर ने भारत के लिए छेड़े जाने वाले अभियान में जर्मनी की सहायता का वायदा किया.
काबुल जाते समय रास्ते में मिश्र के शासक से भी विएना में भेंट की.इस्तांबुल में तुर्की के सुल्तान से मुलाकात की.वहां से उन्हें अफगानिस्तान के आमिर के नाम एक पत्र दिया गे.और भारत की कुछ रियासतों को भी पत्र भेजे गए.
अंत में लाला हरदयाल आदि से भारत की अंग्रेजों से मुक्ति के इस युद्ध हेतु प्रस्थान के लिए विदा ली गयी.और अंत में काबुल पहुँच कर अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्लाह खान से मुलाकात हुई.
अंत में १ दिसंबर १९१५ को भारत के बहार भारत की पहली अस्थायी सरकार बनायीं गयी जिसमे राजा महेंद्र प्रताप को राष्ट्रपति घोषित किया गया.मौलाना बरकतुल्लाह को प्रधान मंत्री और मौलाना उबैदुल्ला को गृह मंत्री बनाया गया.उनका यह कार्य ही उन्हें सर्वधर्म समभाव का प्रतीक मानने के लिए काफी है.और जो लोग उनके जन्मदिवस के आयोजन को सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा मान रहे हैं उन्हें अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है.
एक और भ्रान्ति का भी निराकरण आवश्यक है.अक्सर राजा महेंद्र प्रताप जी को मार्क्सवादी बता दिया जाता है.और उनके लेनिन, ट्रोट्स्की,एम.एन. रॉय आदि से निकट सम्बन्ध थे और वो जर्मनी, ऑस्ट्रिया,बुल्गारिया तुर्की और रुसी की मिलीजुली सेना बनाना चाहते थे लेकिन उसके पीछे उनका उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से जोरदार टक्कर लेना था.और उन्होंने अपनी आत्मकथा में ये लिखा भी है की ऐसी सेना सोवियत रूस को आसानी से पार कर सकती थी और भारत को आज़ाद कर सकती थी.उन्होंने जर्मनी के सम्राट कैंसर से कहा भी था की इम्पीरियल जर्मनी को समाजवादियों की कोई आवश्यकता नहीं थी लेकिन ये समाजवादी सेना एशिया के लिए बहुत सहायक हो सकती थी.अतः ये कहना अधिक सुसंगत होगा की राजा महेंद्र प्रताप जी एक उत्कट राष्ट्रवादी थे.
अफगानिस्तान में शाह हबीबुल्ला की मृत्यु होने के बाद अमानुल्लाह खान वहां के बादशाह बन गए थे और उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था.अपने मिशन में सोवियत रूस की सहायता लेने के उद्देश्य से राजा महेंद्र प्रताप ने रूस जाकर लेनिन से भेंट की.१९२० में अफगानिस्तान के शासक अमानुल्लाह खान द्वारा अंग्रेज़ों से संधि कर ली. और राजा महेंद्र परताप द्वारा गठित अस्थायी सरकार भी समाप्त हो गयी.
उसके बाद दो दशक से भी अधिक समय तक दुनिया के विभिन्न देशों में उन्होंने भारत की आज़ादी के बारे में अलख जगाये रखी और जापान में प्रसिद्द क्रांतिकारी रास बिहारी बॉस का घर उनका अपना घर जैसा बन गया था.दुनिया के अनेक देशों में अपने द्वारा स्थापित “वर्ल्ड फेडरेशन” की स्थापना की.चीन में सन यात सेन जैसे राष्ट्रवादी नेताओं से भी अनेकों बार भेंट की.और चालीस के दशक के अंत में ही वो भारत वापिस लौटे.उन्होंने देहरादून में अपना वर्ल्ड फेडरेशन का केंद्र स्थापित कर दिया.और वहीँ पर बहुत लम्बे समय तक रहे.
इस लेखक को ये सौभाग्य प्राप्त है की अक्टूबर १९६८ में जब नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस द्वारा स्थापित आज़ाद हिन्द सरकार की रजत जयंती मनाई जा रही थी तो देहरादून में हुए कार्यक्रम में राजा साहब मुख्या अतिथि थे और करनाल प्रीतम सिंह अध्यक्ष.उस दौरान और उसके बाद भी अनेकों बार इस लेखक को राजा साहब से मिलने के सुअवसर मिले और उन्हें निकट से जानने का अवसर मिला.
उनके जन्म दिवस के अवसर पर उन्हें शत शत नमन

4 COMMENTS

  1. साधुवाद : महान स्वतन्त्रता सेनानी महेंद्र प्रताप सिंह का विवाह जींद रियासत के महाराजा रणबीर सिंह की बहन बलवीर कौर से हुआ था। यह गर्व की बात हैं। परंतु देश की आजादी के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 में जींद, नाभा व पटियाला रियासत ने उस समय अंग्रेज सरकार का साथ दिया था। वर्ना हम 90 वर्ष पहले आजादी का जश्न मनाते।

  2. अनिल जी एक प्रश्न हैं आपसे राजाजी ने जो ६ हजार भारतीय युद्ध कैदी योसे सेना बनाई थी ओर जो लडाई हुई उसके परीपेक्ष मे विस्तृत विवेचन मिल सकता है? कोई पुस्तक हैं?

  3. बंधुवर – अनिल गुप्ता जी –
    आपने राजा महेंद्र प्रताप जी के बारे में विशद जानकारी दी – हार्दिक धन्यवाद। उनके बारे में जितनी जानकारी मुझे पहले से थी वह केवल उनके मुरसान, मथुरा, वृन्दावन, अलीगढ तथा देहरादून संबंधों तक सीमित थी लेकिन आप के लेख से काफी कुछ पता चला।

    • धन्यवाद गोयल जी.मेरे विचार में विदेशी मदद से भारत को स्वतंत्र कराने का उनका विचार यद्यपि उस समय सफल नहीं हो पाया लेकिन इसी से संभवतः द्वित्तीय विश्वयुद्ध के समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने प्रेरणा ली होगी.और राजा महेंद्र प्रताप जी जापान में क्रन्तिकारी रास बिहारी बोस के घर काफी समय रहे थे. और वहां से अपने वर्ल्ड फेडरेशन को संचालित किया था. रास बिहारी बोस द्वारा प्रवासी भारतियों का जो संगठन बनाया गया था वही नेताजी के अधीन आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के रूप में संगठित होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में जुटा था जिसने अंग्रेजी साम्राज्य को खोखला कर दिया था और इसी के कारण भारत आज़ाद हुआ.१९५४ में ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री एटली भारत आये थे और उन्होंने पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल न्यायमूर्ति चक्रबर्ती महोदय को बताया था कि नेताजी कि आज़ाद हिन्द फ़ौज़ और बाद में लाल किले में उन पर चले मुक़दमे के कारण अंग्रेजों का भरोसा फ़ौज़ में भारतीय सैनिकों की अंग्रेजी राज के प्रति वफ़ादारी पर से उठ गया था तथा मुंबई के नौसेना विद्रोह ने अंग्रेजी साम्राज्य में अंतिम कील ठोक दी थी.इसी कारण उन्होंने सत्ता का हस्तांतरण किया.आपकी टिप्पणी के लिए मैं आभारी हूँ.

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