धर्मांतरण का इतिहास

गिरिजाशंकर अग्रवाल

kanak-4मध्य प्रदेश का आदिवासी बहुल जिला मण्डला का इतिहास बताता है कि धर्म प्रचार के नाम पर ईसाई मिशनरियां अधार्मिक तरीके से आदिवासियों को धर्म परिवर्तन करने के लिए बाध्य कर देती हैं। इस जिले के अतीत में जब जाते हैं तो मालूम होता है कि 26 अप्रैल सन् 1818 को अंग्रेजों ने मण्डला किले पर अपना अधिकार कर लिया था। इसके साथ ही मण्डला से मराठा अधिपत्य समाप्त हो गया था। मण्डला में अधिकार होते ही ईसाई मिशनरियों ने जिले में घुसपैठ प्रारम्भ कर दी। उनका मानना था कि धर्मान्तरित व्यक्ति ही सरकार के प्रति वफादार होकर अंग्रेजों को शासन करने में सहयोग प्रदान कर सकता है।

इसके लिए सन् 1830 के पूर्व ही जबलपुर में ईसाई मिशनरी का कार्यालय स्थापित हो गया था। सन् 1831 में सर डोनाल्ड मेकलोड सिवनी के डिप्टी कमिश्नर बनकर आये। उस समय मण्डला सिवनी जिले के अन्तर्गत था। उन्होंने मण्डला में आदिवासियों के बीच में धर्म प्रचार की सम्भावनाएं देखी। सन् 1840 में वे जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर बनाये गये। उन्होंने जबलपुर स्थित अमेरिकन मेथोडिस्ट एपीस्कोपल सोसायटी तथा अमेरिकन बेपटिस्ट सोसायटी के सहयोग से एक योजना बनाकर बर्लिन के पास्टर गोसपर को भेजी। बर्लिन में योजना स्वीकृत की गई। वहां से सन् 1841 में छह नवयुवकों को प्रशिक्षित कर भारत भेजा गया। इन्होंने सन् 1842 में मण्डला जिले के सुदूर आदिवासी क्षेत्र अमरकंटक तथा डिण्डौरी के बीच करंजिया में अपना निवास स्थान बनाकर योजना के अनुरूप खेती करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1842 के जून महीने में ही वहां भयंकर हैजा फैल गया जिसमें उनमें से चार व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। दो व्यक्ति वापस लौट पड़े। उनमें से एक की रास्ते में ही तथा दूसरे व्यक्ति की भी कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। चारों की समाधियां करंजिया में बनी हैं। धर्मान्तरण का पहला प्रयास विफल हो गया।

मि. मेकलोड बाद में पंजाब के गर्वनर बनाकर स्थानान्तरित कर दिये गये। लगभग 10 वर्ष तक योजना पर कोई प्रगति नहीं हो सकी। इसके बाद पुन: जबलपुर के सेशंस जज मिमोसले स्मिथ ने जबलपुर के चेपलिन मिडावसन् के सलाहकर बर्लिन के पास्टर गोसनर को पत्र लिखकर कुछ सहायता राशि प्राप्त की। उस राशि से चिरई डोंगरी में बालको के लिए एक अनाथाश्रम खोला गया जिसमें सन् 1860 तक मिरेवरेन्ड ई. चेम्पियन ने बहुत श्रम करके बहुत से बच्चों को प्रशिक्षित किया। मि. चेम्पियन के बाद रेवरेन्ड एच. डी. विलियमसन् मण्डला में पदस्थ हुए। उन्होंने गोंडी बोली की लिपि बनाई। व्याकरण तथा शब्दकोष भी बनाया और न्यू टेस्टामेंट का हिन्दी में अनुवाद भी किया। अब आदिवासियों के बीच में उन्हीं की बोली तथा भाषा में ईसाई धर्म का प्रचार करने के साधन उपलब्ध हो गये। इग्लैंड में बैठे अधिकारियों का मानना था कि आदिवासियों के बीच में उन्हीं की भाषा में प्रचार किया जाना चाहिए। शासकीय रिकार्ड के अनुसार सन् 1866 तक मण्डला जिले में एक भी ईसाई नहीं था। सन् 1912 में नैनपुर क्षेत्र को छोड़कर मण्डला में 871 ईसाई हो गये थे। सन् 1860 के बाद ही मण्डला में पांच चर्च बनाये गये। पटपरा में कुष्ठ रोग का एक अस्पताल, एक अनाथालय तथा एक स्कूल खोला गया। बाद में टिकरिया में मिशन का दफ्तर भी खोला गया। इसके बाद मण्डला जिले में ईसाई मिशनरियों का जाल फैलता चला गया और यह क्रम लगातार पचास वर्षों तक चलता रहा। इस दौरान सैकड़ों स्कूल, अनाथालय तथा अस्पताल खोले गये।

इसी समय इग्लैंड में क्राइस्ट सेवा संघ नामक एक संस्था का जन्म हुआ जिसका उद्देश्य नवयुवको को प्रशिक्षित कर पादरी बनाकर विदेशों में धर्म प्रचार करने के लिए भेजा जाना था। सन् 1927 में आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी का एक छात्र हैरी वैरियर हील्मस एल्विन को पादरी बनाकर भारत भेजा गया। सन् 1927 में वह बम्बई में उतरा। उसने पहले पूना में महात्मा गांधी से परिचय प्राप्त किया। इसके बाद महात्मा गांधी के दाहिने हाथ जमनालाल बजाज से संपर्क किया। उनके घर में तीन-चार माह रुका। उसके बाद सेठ दीपचंद गोठी के साथ बैतूल जिले का दौरा किया। उसके बाद छिंदवाड़ा होते हुए मण्डला आ गया। डिण्डौरी के पास करंजिया के पास पाटनगढ़ में अपना निवास स्थान तथा गोंड सेवक मंडल एवं बाद में भूमिजन सेवा मंडल के नाम से संस्था बनाकर वह धर्म प्रचार में व्यस्त हो गया।

सन् 1935 में भारत सरकार की पार्लियामेण्ट में एक एक्ट पास कर मण्डला जिले को ‘एक्सक्लूडेड एरिया’ के अन्तर्गत कायम कर दिया। इस एक्ट का उद्देश्य यहां के मूल निवासियों की धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करना था। इसके लिए शासन ने स्कूलों को अनुदान भी दिया। परन्तु यह अनुदान उन्हीं संस्थाओं को दिया गया जो इन आदिवासियों को धर्मभ्रष्ट कर ईसाई बनाती थीं। ऐसे में अनुदान का उपयोग संस्कृति की रक्षा में न होकर, आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए हुआ।

24 अप्रैल सन् 1937 को सडवा छापर में एक अभूतपूर्व सम्मेलन हुआ जिसमें पूरे जिले के आदिवासियों को आमंत्रित किया गया। इस अवसर पर सडवा छापर में स्कूल, कुष्ठ रोग अस्पताल, धर्मशाला तथा बाजार का उद्घाटन हुआ। इस सम्मेलन में जबलपुर के तत्कालीन कमिश्नर या एच. सी. ग्रीनफील्ड आई. सी. एस. ने अपनी शिरकत दी। निमंत्रण पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा था कि सम्मिलित होने वाले व्यक्ति अपने साथ खाना पकाने तथा खाने का सामान साथ में लाएं। उन्हें शराब मुफ्त में मिलेगी। अस्पताल में इलाज कराने वाले को रहने के लिए मकान तथा बाड़ी के लिए जमीन मुफ्त में दी जाती थी।

इसी समय मण्डला जिले की कई आदिवासी संस्थाओं ने अपने-अपने वक्तव्य प्रसारित कर आदिवासी भाइयों को ईसाई मिशनरियों के चंगुल में न फंसने के लिए आग्रह किया जिसका सामान्य असर हुआ।

वेरियर एल्विन एक धर्मप्रचारक के रूप में भारत आया था। उसे भारत में फादर के पद पर पदस्थ किया गया था। आदिवासियों ने उसे तथा उसके सहयोगी श्यामराव हेवाले को छोटे भैया के नाम से सम्मानित किया। छोटे भैया तथा बड़े भैया दोनों ने मिलकर यहां की आदिवासी महिलाओं के साथ दैहिक संबध बनाये। स्वर्गीय रामभरोसे अग्रवाल ने वेरियर एल्विन की इस कुरूपता तथा अश्लीलता का वर्णन अपनी पुस्तक ‘गोंड जाति का सामाजिक अध्ययन’ में किया है। सन् 1934 के लगभग एल्विन को उसके कुकर्मों के कारण पदभार से उसे मुक्त कर दिया गया।

धर्तान्तरण में मुख्य रूप से आदिवासी समाज के नवयुवको को ही फंसाया जाता था। समाज के बड़े-बूढ़ों का धर्मान्तरण कराना पादरियों के लक्ष्य में शामिल नहीं था। ऐसे लोग न तो खेती कर सकते थे और न ही भविष्य में उनके द्वारा ईसाइयों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना थी। उनका धर्मान्तरण करने से उनके भरण पोषण की विवशता भी इन पादरियों पर पड़ने वाली थी। इसलिए ईसाई पादरी केवल नवयुवकों का धर्मान्तरण करते थे। ये नवयुवक मिशनरियों की भूमि पर खेती का काम करते थे। अगर ये विवाहित होते थे तो इनकी पत्नियां भी धर्मान्तरण कर लेती थीं। बच्चों की पढ़ाई इनके स्कूलों में हो जाती थी। ब्याज में रुपया भी उधार मिलता था। जिन नवयुवकों का विवाह नहीं हुआ होता था वे अपनी पसंद की लड़कियों से विवाह कर लेते थे और वे लड़कियां भी बिना प्रयास के ईसाई बन जाती थीं। उनकी संतान स्वाभाविक रूप से ईसाई ही पैदा होती थी। इसलिए इन पादरियों का लक्ष्य केवल युवा वर्ग ही होता था। ये नवयुवक अच्छे भविष्य की कल्पना से शीघ्र ही प्रलोभन में आ जाते थे।

दूसरी ओर आदिवासी समाज छिन्न-भिन्न हो रहा था। समाज में उन बड़े-बूढ़ों की हालत अत्यंत दयनीय हो रही थी जिनके लड़के और बहू-बेटियां धर्मान्तरण कर रहे थे। उनकी वृद्धावस्था का सहारा टूट रहा था। धर्मान्तरित दम्पति को समाज से बहिष्कृत माना जाता था। अपने माता पिता की सेवा करना उनका कोई लक्ष्य नहीं रह गया था। उनके ‘फादर’ बदल चुके थे। नई पश्चिमी सभ्यता ‘खाओं, पिओ और मौज करो’, उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया था। यह सब देख अधिकांश आदिवासियों के मन में अंग्रेजों के प्रति घोर अनादर और तिरस्कार की भावना भर गई।

ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों की अशिक्षा तथा गरीबी का लाभ उठाकर धर्म परिवर्तन कराया। धर्मान्तरित व्यक्ति अंग्रेजों का वफादार बन गया। उनकी देशभक्ति भारत के प्रति न होकर इंग्लैंड के प्रति हो गई। स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों की जो सूची हमारे पास उपलब्ध है उसके हिसाब से एक भी धर्मांतरित ईसाई ने स्वाधीनता संग्राम में योगदान नहीं दिया है। किसी भी ईसाई के शहीद होने की जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि ईसाई बन जाने पर भारतीय जन प्राय: राष्ट्र के विरोधी और यूरोप के भक्त बन जाते हैं।

स्वाधीनता के पश्चात भारतीय लोकसभा में धर्मान्तरण रोकने के लिए सन् 1954 में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया था। नियोगी कमीशन तथा देबर कमीशन को जांच का काम सौंपा गया था परन्तु आज तक कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। स्वाधीनता के उपरांत तो इन मिशनरियों को बे रोक-टोक काम करने की स्वाधीनता प्राप्त हो गई है।(भारतीय पक्ष)

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