विचार स्वातन्त्र्य की मर्यादा

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-विजय कुमार

किसी भी लोकतान्त्रिक देश में विचार स्वातन्त्र्य होना ही चाहिए। फिर भी इस विषय पर बार-बार विवाद खड़े होते हैं। प्राय: लोग इसे राजनीति में घसीटकर इस या उस दल को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। इस संदर्भ में कानून भी अस्पष्ट और ढीले हैं।

कुछ समय पूर्व भाजपा नेता जसवंत सिंह की जिन्ना संबंधी पुस्तक पर गुजरात शासन ने प्रतिबन्ध लगाया था। तब कांग्रेस ने भाजपा के वैचारिक स्वातन्त्र्य को ढकोसला कहा था। इन दिनों जेवियर मोरो की स्पेनिश भाषा में प्रकाशित सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित सारो एल राजो (लाल साड़ी) नामक पुस्तक चर्चा में है। कांग्रेस वाले इसके विरुद्ध लेखक व प्रकाशक को धमकी दे रहे हैं। अब भाजपा वाले कांग्रेस को गरिया रहे हैं।

समय-समय पर ऐसी पुस्तकें विवादित और प्रतिबन्धित होती रही हैं; पर प्रश्न यह है कि प्रतिबन्ध के मापदंड क्या हों? केवल पुस्तकें ही नहीं, फिल्म, नाटक या चित्र भी विवादित हुए हैं। वस्तुत: कुछ लोग बिक्री बढ़ाने के लिए जानबूझ कर अपनी कृतियों को विवादित बना देते हैं।

जसवंत सिंह के प्रकाशक ने इसी लालच में पुस्तक के कुछ अंश जारी कर दिये थे; पर पुस्तक की गर्मी अगले दिन शिमला में हो रही भाजपा की बैठक तक जा पहुंची और जसवंत सिंह न केवल बैठक, बल्कि दल से भी बाहर कर दिये गये।

पुस्तक से प्रकाशक और लेखक दोनों ने लाखों रुपए कमाये। वैसे इसे शायद ही कोई पूछता; पर विवाद होने से अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। पाकिस्तान में भी इसका विमोचन और लेखक का सम्मान हुआ।

विचार करने पर इस बारे में कुछ बातें ध्यान में आती हैं। विश्व के हर देश और समाज में कुछ लोगों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा होती है। बहुत समय बीतने पर लोग उन्हें महामानव, अवतार या भगवान मान लेते हैं। फिर इनके बारे में चाहे सच हो या झूठ, लोग कुछ सुनना पसंद नहीं करते। यदि कोई कुछ कहे, तो लोग मारपीट पर उतर आते हैं।

इस मामले में हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु है। इससे उसकी बहुत हानि भी हो रही है। दूसरी ओर मुसलमान बिना पूरी बात पता लगाये, केवल अफवाह या षड्यन्त्र के आधार पर तोड़फोड़ पर उतर आते हैं। शासन भी उनके सामने मजबूर और असहाय नजर आता है। इसलिए उनकी उग्रता लगातार बढ़ रही है।

इस बारे में एक घटना उल्लेखनीय है। 1920 में लाहौर में मुसलमानों ने ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ तथा ‘बीसवीं सदी का महर्षि’ नामक पुस्तकें प्रकाशित कीं। पहली में श्रीकृष्ण के चरित्र पर झूठे लांछन लगाये गये थे, तो दूसरी में महर्षि दयानंद पर। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने ‘रंगीला रसूल’ नामक पुस्तक छापी। इसके तथ्य विख्यात इस्लामी ग्रन्थों से लिये गये थे।

इसके लेखक श्री चमूपति शास्त्री और प्रकाशक ‘आर्य पुस्तकालय’ के महाशय राजपाल थे। इससे मुसलमानों में हड़कम्प मच गया। उन्होंने लाहौर उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया, जिसमें वे पराजित हुए। इस पर भी उन्होंने छह अप्रैल, 1929 को महाशय जी की हत्या कर दी। इसकी याद में जून 1998 के विश्व पुस्तक मेले में गृह मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने महाशय जी को मरणोपरांत ‘फ्रीडम टू पब्लिश’ पुरस्कार दिया।

यदि इस घटना पर विचार करें, तो इसमें पहल मुसलमानों ने की। फिर उनकी पुस्तकें निराधार थीं, जबकि रंगीला रसूल तथ्यों पर आधारित थी, इसीलिए उसकी न्यायालय में भी जीत हुई।

कुख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन के कई चित्रों का सभी समझदार लोग विरोध करते हैं। इनमें उसने दुर्गा, सीता, सरस्वती, हनुमान, भारत माता आदि को अभद्र स्थिति में चित्रित किया है। दूसरी ओर उसने अपनी मां और मुस्लिम देवियों को पूरे वस्त्रों में सम्मान के साथ दर्शाया है। ऐसे में उसका विरोध होना ही चाहिए।

यहां यह भी स्मरणीय है कि उसने अपनी फिल्म ‘मीनाक्षी ए टेल आफ थ्री सिटीज’ को तुरन्त वापस ले लिया था। चूंकि इसके गीत ‘नूर उन अला नूर’ पर मुसलमानों को आपत्ति थी।

ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं। वर्ष 2004 में एक विदेशी लेखक की पुस्तक ‘शिवाजी, ए हिन्दू किंग इन मुस्लिम डायनेस्टी’ में शिवाजी का गलत चित्रण करने पर कुछ लोगों ने भंडारकर संस्थान, पुणे में तोड़फोड़ की तथा इसके एक सहलेखक के मुंह पर कालिख पोती।

तीन वर्ष पूर्व सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदरा में चंद्रमोहन नामक छात्र के चित्रों का हिन्दुओं तथा ईसाइयों ने बहुत विरोध किया। उसके कुछ चित्र इस प्रकार थे :-

(1). सलीब पर टंगे ईसा के लिंग में से निकलता वीर्य शौचालय में गिर रहा है।

(2). माँ दुर्गा गर्भ से निकल रहे एक शिशु की त्रिशूल से हत्या कर रही हैं।

(3). भगवान विष्णु ने विराट स्वरूप में अपना लिंग पकड़ा हुआ है, उनके आसपास कई लिंग फैले हैं। विष्णु के दशावतार भी चित्रित हैं।

(4). कई लिंगों से घिरा एक उत्तोजक शिवलिंग। चित्रकार का शरीर उसमें से उभर रहा है।

स्पष्टत: इन्हें कलाकार कहना कला का अपमान है। ऐसे व्यक्ति का स्थान सभ्य समाज नहीं, जेल या पागलखाना ही है।

वर्ष 2003 में कोलकाता फिल्मोत्सव में क्रिस्टोफर हिचंस की फिल्म हेल्स एंजेल (नरक का फरिश्ता) पर रोक लगा दी गयी। चूंकि इसमें हैती के तानाशाह डुवालियर और टेरेसा का मेलजोल तथा टेरेसा द्वारा चार्ल्स किटिंग से दान लेने के दृश्य दिखाये गये हैं।

तीन वर्ष पूर्व भारत भवन, भोपाल में कैलाश तिवारी की चित्र प्रदर्शनी (विषय : आतंकवाद से उपजी त्रासदियां) का सेक्यूलरों ने विरोध किया। क्योंकि इसमें गोधरा, कश्मीर, मुंबई आदि में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों के चित्र थे।

सोनिया के जीवन को दर्शाती फिल्म ‘राजनीति’ से कांग्रेसी नाराज हैं। इंदिरा गांधी पर बनी फिल्म ‘आंधी’ 1975 में प्रतिबन्धित कर दी गयी थी। तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ या सलमान रश्दी की ‘शैतानी आयतें’ की भी यही कहानी है।

इग्नू और एन.सी.ई.आर.टी की पुस्तकों में हिन्दुओं और भारत के बारे में बेहूदे प्रसंग छापकर नयी पीढ़ी पर क्या प्रभाव डाला जा रहा है, यह सोचने का विषय है।

इन दिनों शिकागो विश्वविद्यालय की वेण्डी डोनिगर द्वारा लिखित ‘द हिन्दूज : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ (पेंग्विन बुक्स) पर विवाद गरम है। इसके कुछ उदाहरण देखें।

(1). मुखपृष्ठ पर श्रीकृष्ण को नग्न स्त्रियों के बीच एक स्त्री के नितम्बों पर बैठे दिखाया है।

(2). लक्ष्मण सीता के प्रति कामभाव रखता था (पृष्ठ 14)। (3). हिन्दू धर्मग्रन्थों के विचारों के केन्द्र में कामुकता है (पृष्ठ 15)।

(4). हिन्दुओं का कोई मूल धर्मग्रन्थ नहीं है (पृष्ठ 25)।

(5). सूर्य ने कुन्ती से बलात्कार किया था (पृष्ठ 36)।

(6). गांधी जी की हत्या रा.स्व.संघ ने की।

(7). मंगल पांडे पर भांग, अफीम या शराब का प्रभाव था (पृष्ठ 579)।

(8). रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान थीं (पृष्ठ 586)।

(9). स्वामी विवेकानंद गोमांस खाते थे और उन्होंने लोगों को इसका सुझाव दिया था (पृष्ठ 639)।

(10). रामायण का राजनीतिक उपयोग भारत को ईसाइयों, मुसलमानों व अन्य धर्म वालों से मुक्त कराने में किया जा रहा है (पृष्ठ 667)।

(11). यमी ने अपने भाई यम से यौनाचार का असफल प्रयास किया था।

(12). तपस्या वस्तुत: आंतरिक कामाग्नि ही है।….आदि

उत्तर प्रदेश में बसपा शासन में राज्यमन्त्री पारसनाथ मौर्य के पुत्र डा. राजीव रत्न एक पत्रिका ‘अम्बेडकर टुडे’ निकालते हैं। पत्रिका स्वयं को भगवान बुद्ध और डा. अम्बेडकर के विचारों का समर्थक बताती है; पर उसमें इनके विचार कम और हिन्दू ग्रन्थों, देवी, देवताओं, अवतारों, मंदिरों, परम्पराओं आदि पर गन्दी और अश्लील टिप्पणियां अधिक होती हैं। शासकीय विज्ञापनों से भरी यह पत्रिका किसका भला कर रही है, कहना कठिन है।

यहां प्रश्न उठता है कि भाषण, लेखन, प्रकाशन या प्रसारण की स्वतन्त्रता की सीमा क्या हो; क्या इसकी आड़ में किसी धर्म, संस्था या व्यक्ति पर कैसी भी टिप्पणी की जा सकती है?

भारत लोकतान्त्रिक होने के साथ ही धार्मिक देश भी है। इसलिए किसी धर्म, देवी-देवता, पैगम्बर आदि पर लिखते या बोलते समय सावधानी रखनी चाहिए। देश और धर्म की रक्षार्थ मरने वालों पर भद्दी टिप्पणियों से लोग भड़कते हैं। इसलिए श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवाजी, प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह आदि के बारे में कुछ भी कह देने से विवाद होगा ही; पर इसी पलड़े में गांधी और नेहरू परिवार या टेरेसा जैसों को नहीं रख सकते। भारतीय इतिहास के हजारों दस्तावेज संदूकों में बंद हैं।

नेहरू से संबंधित कागज सोनिया के पास हैं। न जाने वे कभी खुलेंगे या नहीं ? विदेशियों पर तो इस मामले में बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता। हो सकता है, 50 साल बाद पता लगे कि जिन्हें हम भारत के रत्न या दल और देश का तारनहार समझते रहे, वे विदेशी जासूस थे।

विचार स्वातन्त्र्य संबंधी कानूनी अस्पष्टता और कछुआ-गति से चलने वाले न्यायालय के कारण ये बददिमाग लेखक, चित्रकार या फिल्मकार बार-बार सूरज पर थूकते हैं। जनता इनके विरुद्ध लाठी न उठाये, इसके लिए शासन, न्यायालय और बुद्धिजीवियों की निष्पक्ष सक्रियता आवश्यक है।

(लेखक  ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका के पूर्व सहायक संपादक हैं)

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