किसान आत्महत्या के निहितार्थ

– मुलखराज विरमानी

भारत के छोटे किसानों का बुरा हाल है। हमारी सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को राहत देने के लिए कानून तो बनाया परंतु उस कानून का पालन न करने के लिए सरकार के ही अधिकारी ऐसी दलीलें देते हैं कि जिससे आत्महत्या करनेवाले किसान के परिवार को क्षति की रकम देनी पड़े। भारत के कृषि मंत्री श्री शरद पवार ने राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि इस वर्ष विदर्भ में जनवरी से अप्रैल तक छह किसानों ने आत्महत्या की जबकि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का कहना है कि इस अवधि में इसकी गणना 343 है–यह पवार के आंकड़ों से 57 गुना है। इससे भी अजीब बात तो यह है कि भारत सरकार कृषि के उपमंत्री के.वी. थॉमस ने वहां के किसानों की आत्महत्या के आंकड़े 23 दिए। इसके विपरीत महाराष्ट्र सरकार के ही वसंतराव नायक फार्मरज सेल्फ रिलाइंस मिशन का कहना है कि केवल जनवरी में 62 किसानों ने आत्महत्या की। क्या शरद पवार राज्य सभा में यह कहकर कि चार मास में छह किसानों ने आत्महत्या की है, झूठ का सहारा तो नहीं ले रहे ताकि ढेर सारे आत्महत्या के आकड़ों से सरकार की बदनामी होती है और यह मानने से अधिक मुआवजा भी देना पड़ता है? इन सब महानुभावों के आंकड़ों का उद्गमस्थान तो महाराष्ट्र सरकार है फिर इनमें 5500 प्रतिशत का अंतर क्यों आ रहा है? पवार ने तो यह भी बताया कि 3 वर्षों में 3450 किसानों ने आत्महत्या की है जबकि नेशनल क्राइम ब्यूरो का कहना है कि यह आंकड़े 50,000 हैं। इन आंकड़ों को मानना ही पड़ेगा क्योंकि गरीबी और अनिश्चितता के कारण आत्महत्याएं की । इस संस्था ने यह भी चौंका देने वाली बात कही है कि लगभग 2,00,000 किसानों ने 1997 से 2008 तक आत्महत्या की। इन आंकड़ों पर विवाद तो है किंतु इस काम के लिए यही एक संस्था है, इसीलिए इसकी गणना ठीक माननी पड़ेगी।

सरकार आंकड़ों में हेर-फेर करती ही है ताकि आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को मुआवजा न देना पड़े। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो का कहना है कि 1999 से 2005 के अंतराल में 1.5 लाख किसानों ने आत्महत्याएं कीं। सरकार मुआवजा न देने के सौ बहाने बनाती है। अगर जमीन बाप के नाम पर है और सारा काम बेटा करता है और भूखमरी के हालत में आत्महत्या कर लेता है तो सरकार उस किसान की आत्महत्या को गणना में नहीं लेती है क्योंकि खेती की भूमि उसके नाम न होके उसके बूढ़े बाप के नाम है। फिर सरकार कहती है कि इस हालत में किसान के बेटे ने कर्ज से उत्पन्न समस्याओं के कारण आत्महत्या नहीं की। परिवार का बड़ा लड़का बाप के बूढ़े होने के कारण खेती का काम तो संभाल लेता है परंतु उसको विचार यह कभी नहीं आ सकता कि बाप के होते हुए भूमि अपने नाम करवा ले। सरकार के मंत्री किसानों की आत्महत्या को रोक नहीं पाये और न ही उनके पास प्रबल इच्छा और समय है। परंतु यह समस्या हर साल बढ़ती ही जा रही है। किसान आत्महत्या न करें इसके लिए उनको आमदनी के साधन बढ़ाने होंगे। भारत इतना बड़ा देश है और साधन संपन्न होने के कारण किसानों को खुशहाल बनाना संभव है। परंतु कारगर नीतियां बनाने के लिए हमारे मंत्रियों को इस ओर ध्यान और समय देने की आवश्यकता है। नीतियां बदलने की इच्छा हुई तो किसानों को खेती के साथ-साथ आमदनी के दूसरे साधन जुटाने होंगे। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के किसानों को दूध की उत्पादन से बहुत अधिक आमदनी हो सकती है। इसके लिए हमारे उद्योगपतियों को डेरी फार्मिंग में अधिक रुचि लेनी चाहिए। वह किसानों से दूध अधिक-से-अधिक और अच्छे दामों में खरीदें। इस समय की स्थिति यह है कि कई छोटे देश भी दूध और दूध से बनी वस्तुओं का निर्यात कर अपने किसानों की खुशहाली बढ़ा रहे हैं। और फिर हमारे देश में तो देशी गाय का दूध तो अमृत तुल्य माना जाता है। हमें चाहिए कि दूध और दूध से बनी वस्तुओं का आयात करनेवाले देशों को ठीक-ठीक बताएं कि वास्तव में दूध तो देशी गाय का पौष्टिकता के साथ-साथ शरीर के किसी प्रकार के रोग को पास फटकने नहीं देता और बुध्दिवर्धक तथा सर्वांगीण विकास में भी मदद करता है। इस समय न्यूजीलैंड के दूध और उससे बनी वस्तुओं का निर्यात 86 खरब डॉलर का है। खेद है कि भारत में उल्टी गंगा बहती है। जिस देश में कभी दूध की नदियां बहती थीं और आज भी बह सकती हैं, अगर नीतियों में बदलाव किया जाए और मंत्रियाें को कहा जाए कि हम राजनीति न करके ऐसी नीतियां बनाएं जिससे किसानों को लाभ हो। आज की परिस्थिति में किसान को गरीबी से निकालने के लिए उद्योगपतियों को डेरी फार्मिंग के काम में जाना चाहिए। भारत सरकार को हमारे उद्योगपतियों की मीटिंग बुलानी चाहिए जिसमें उद्योगपतियों को ऐसा सुझाव दिया जाए कि वे डेरी फार्मिंग के धंधे में सक्रिय भाग लें ताकि किसान दूध को बेचकर अपनी आमदनी बढ़ाएं और उनको आत्महत्या का सहारा न लेना पड़े।

* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

3 COMMENTS

  1. किसान की चिंता हर हल में होंना चाहिए वह समाज का भद्र व्यक्ति है कर्ज se उसेमें शर्म है

  2. किसानो की चिंता किसे है, हम तो अमेरिका के चरण वंदना में लगे है. भारत के पूंजीपतियो, मंत्रियो, उच्च पदों पर बैठे अफसरों की जेबे भरेंगी. बहुराष्ट्रीय कंपनिया चांदी काटेंगी.

  3. govt should take necessary seop to over come this problem .
    they should be motivated with financial powers , then motivated to market thieir product themselves without middleman

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