अल्पसंख्यकवाद के निहितार्थ

-डॉ. मनोज चतुर्वेदी-   0154457_muslim_555
अभी हाल में राहुल गांधी की सिफारिश पर चुनावी समीकरण को ध्यान में रखते हुए लोकलुभावने रेवड़ी बांटने के करोड़ों वोट और कई अरबों नोट सुरक्षित रखने की काल्पनिक चाह में केंद्र सरकार ने हिन्दू समाज के हजारों वर्ष परंपरागत सभ्यता-संस्कृति के साथी अरिहन्तों (जैन) को अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया। मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिख, बौद्ध समुदायों के बाद जैन समुदाय भारत में अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त कर धार्मिक समुदाय बन गया, जबकि जैन धर्मावलंबी हजारों वर्षों से भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को अक्षुण बनाए हुए है। महात्मा महावीर के अनुयायी अर्थोपार्जन में अग्रिम पंक्ति पर रहते हुए राष्ट्र सेवा के समस्त आयामों को धारण किए हुए है। फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की यह अवधारणा क्या समाज को बांटने का शड्यंत्र नहीं है? क्या जैन समाज मात्र धार्मिक आधार पर अलपसंख्यक और बहुसंख्यक के खांचे में बांटा जाएगा। इस प्रकार की नीतियां भारतीय राष्ट्र की एकता और अखंडता में बाधक ही साबित होती है लेकिन विभाजनकारी राजनीति तो बांटने में ही, अलग करने में ही और आरक्षित करने में ही विष्वास करती है। उसका बस चले तो जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर तो विभाजन होगा ही, विभाजन का एक रूप पिता, पुत्र, माता,बहन, भाई, बेटी को बांट कर सत्तारूपी स्वाद को पाने का कुत्सित प्रयास भी किया जा सकता है और यही प्रयास भारतधर्मी धर्मों के प्रति भी किया जा रहा है।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून 1992 के खंड 2 की धारा सी के तहत देश में 50 लाख की आबादी वाले जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया गया। इसमें उन्हें सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में लाभ मिलने के साथ ही उनकी संस्थाओं में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होगा, वे वहां स्वनिर्णय के तहत वित्तिय और प्रषासकीय कार्य करने के लिए स्वतंत्र होंगे। जब हम भारत के नागरिक हैं तथा भारतीय संविधान में पुरी आस्था रखते हैं तो भला वित्तिय और प्रषासकीय अधिकारों में हस्तक्षेप क्यों नहीं किया जा सकता? जब हम सरकार के कर पर समाज सेवा करेंगे तथा सरकार से अनुदान लेंगे तो भला सरकार हस्तक्षेप क्यों नहीं करेगी। सरकार की ये कैसी नीतियां हैं जो स्वायत्ता और स्वनिर्णय के आधार पर अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देने में विश्वास करती है। क्या इससे बहुसंख्यक समाज के मन में अल्पसंख्यक समाज के प्रति विद्वेश, घृणा और मतभेद का रूप नहीं लेगी ? हमें तो ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र से तादातम्य संबंध स्थापित कर सके। देश का हर व्यक्ति यह अनुभव करे कि भले ही हम जाति, धर्म, भाषा के आधार पर संख्या में कम हैं लेकिन हम भारतीय हैं हमारे लिए राष्ट्र सर्वोपरी है, पर सरकारी नीतियां व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रही है। इसी का परिणाम है कि संप्रग सरकार अहिंसक और शाकाहारी समाज अरिहंतों (जैन धर्मावलंबियों) को विभाजित करने का कुत्सित प्रयत्न किया है जो वोट बैंक को सुदृढ़ करने की नीति का ही एक पक्ष है।
हालांकि जैन समुदाय उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में पहले से ही अल्पसंख्यक वर्ग का लाभ उठा रहा था। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यक घोषित करने की यह रणनीति कुछ तथाकथित कांग्रेसी सांसदों, विधायकों तथा जैन धनासेठों के द्वारा अपने आप को जैन समाज का शुभचिंतक तथा नेता बनने की ही नीति का परिणाम है, क्योंकि समाज का हर तबका आज अपने वोट बैंक को सुदृढ़ करने में लगा हुआ है। अतः बार-बार समाज में कुछ तथाकथित लोगों द्वारा विषेश सुविधा की मांग उठने लगती है और इसी का परिणाम है कि आज जैन समाज अपने आप को दुखी और पराश्रित समझने लगा है। वह अपने भीतर बार-बार यह विचार करने के लिए विवश हो रहा है कि हमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर क्यों बांटा जा रहा है? हम तो इस प्रकार के विभाजनीकारी नीतियों के समर्थक नहीं हैं। जैन समाज ने स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वतंत्रता के पष्चात् राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका का यथा संभव निर्वाह किया है तथा कर भी रहा है।
हिन्दुओं से टुकड़ा-टुकड़ा कर अलग-अलग धर्म, जाति, उपजाति सम्प्रदाय खड़े किये जा रहे हैं। अल्पसंख्यक की अवधारणा अंग्रेजों की नीति रही है, जिन्होंने भाषा, वेशभूषा, बोली, जाति, उपजाति संप्रदाय के आधार पर इस शब्द की अवधारणा रखी और इसे सन 1947 के देश विभाजन के पश्चात अंग्रेजों के मानसपुत्रों ने मुस्लिमों के थोक वोटबैंक के कारण चुनावी लाभ के लिए पुर्नजीवन प्रदान किया। इसके परिणामास्वरूप नौकरी में आरक्षशण और वित्तीय सहायता आदि प्राप्त होने से अन्य धर्म, वर्ग की इसे प्राप्त करने की कोशिश में लगे। फलतः भारत की ’खड्ग भुजा’ के प्रतीक सिक्ख और आध्यात्म एवं समरसता के संदेशवाहक बौद्धों के बाद अब हिन्दुओं की सशक्त आर्थिक भूजा जैसे समाज की अल्पसंख्यक होकर हिन्दू धर्म से विलग हो गया। प्रदेश स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक अल्पसंख्यकों पर तमाम तरह की मेहरबानियां की जा रही हैं। इसके पीछे वोट बैंक के सुनिष्चितकरण के अलावा यह भी मूल कारण है कि हमारे देश में नामित अल्पसंख्यक को जो सुविधाएं प्राप्त हैं वो बहुसंख्यकों को नहीं मिलती क्योंकि संविधान किसी सरकारी दस्तावेज तथा सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में बहुसंख्यक नामक शब्द नहीं है, इसका अलग नाम, पहचान भी नहीं है। आज अल्पसंख्यक के नाम पर राजनीति संरक्षशण प्राप्त दबंगई प्रचलित है। इसका फायदा भी अल्पसंख्यक समुदाय के क्रीमी लोग उठाते हैं। आज यह देश विभाजन की नीति मात्र हिन्दू धर्म को ही खंडित नहीं कर रही, वरन् पूरे अखंड भारत को भी खण्ड-खण्ड कर अल्पसंख्यकों का देश बना रही है।
आजादी के बाद से ही कांग्रेस भाषायी जाति, उपजाति के साथ-साथ भिन्न’-भिन्न मत,पंथ, सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर हिन्दू समाज को बांटकर दुर्बल करना चाहती रहती है। षिक्षा संस्थानों, बैंको के लेन-देन, सरकारी नौकरियां तथा अन्य सभी सरकारी कामकाज में सरकार की तुष्टीकरण भेदभावपूर्ण नीति के परिणाम स्वरूप आज अल्पसंख्यक सूची में अपना नाम जोड़ने की होड़ लगी हुई है।
भारत में सदा से ’ एकम् सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’ अर्थात् सत्य एक ही है परन्तु विद्वान उसे अलग-अलग तरह से कहते हैं कि प्रचलित मान्यता रही है। ऐसे में भारतीय चिंतन एवं परंपरा के विपरीत राजनीतिक दलों में जिस प्रकार से तात्कालिक स्वार्थों के लिए दीर्घकालिक हितों पर आघात का चलन चला है। वह विष्वव्यापी भारत को पतन के मार्ग पर ही ले जाएगा, जिसमें किसी के उज्ज्वल भविष्य की कामना नहीं की जा सकती।
राष्ट्रीयता एवं सरसता की भावना ही पूरे समाज की एकजुटता को दृढ़ता प्रदान करती है। इसके विपरीत अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति देश तोड़क नीति है।
इसी विशय में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीषों बाल पाटिल तथा अनय बनाम भारत सरकार 2005 मामले के निर्णय में कहा था कि अंग्रेजों द्वारा आर्थिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचन मण्डल बनाने आदि कदमों से ही देश का विभाजन हुआ। अतः धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने की नीति देश में विभाजनकारी नीति को ही बढ़ावा देगी।

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