कमजोर प्रधानमंत्री के निहितार्थ

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मो. इफ्तेखार अहमद
सरकार को अदालती आदेश एक लोकतांत्रिक देश की निकम्मी कार्र्यपालिया पर न्यायपालिका का तमाचा से कम नहीं।
धोके से राजनीति में आने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कभी सपने में भी नहीं सोचे होंगे कि वे एक दिन भारत के प्रधानमंत्री
बनेंगे। इसे भाग्य का खेल कहें या महज संयोग। साल 2004 में यूपीए वन ने एनडीए की शाइनिंग इंडिया की हवा निकालकर अप्रत्याशित जीत दर्ज की। इस के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम सामने आया। इस बार सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने पर विदेशी मूल का मुद्दा उछालने और फिर कांग्रेस पार्टी से विद्रोह कर अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाकर राजनीतिक बवंडर मचाने वाले शरद पवार भी उनके समर्थन में खुलकर सामने आए, लेकिन पूर्ण बहुमत होने के बाद भी सोनिया गांधी ने विदेशी मूल के मुद्दे पर भाजपा और संघ नेताओं के विरोध प्रदर्शन की धमकी के बीच विरोधियों को राजनीतिक पटखनी देते हुए पीएम के पद को ठुकरा दिया। इसके बाद पार्टी व देश में सोनिया और मजबूत नेता के तौर पर उभरी। सोनिया को गोविंदा सरीखे कुछ नेताओं ने राष्ट्र माता का खिताब भी दे डाला था।
इसके बाद बारी आई पीएम के चुनाव की । इस दौरान अर्जुन सिंह और प्रणब मुखर्जी जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं पर सबकी निगाहें टिकी थी, लेकिन सोनिया को एक ऐसे प्रधानमंत्री की तलाश थी, जो उनकी सुपर प्रधानमंत्री की भूमिका को कभी खारिज नहीं कर पाए। लिहाजा काफी माथा पच्ची के बाद जो नाम कांग्रेस पार्टी आला कमान की तरफ से सामने आया, वह था एक कुशल वित्त नियंत्रक और देश में उदारीकरण व विकास की गंगा बहाने वाले पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का। डॉ. सिंह का नाम सामने आते ही ये आवाज उठने लगी कि सुपर प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी ही रहेंगी। मनमोहन सिंह तो रबड़ स्टैंप प्रधानमंत्री होंगे। इन आरोपों के बाद मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री की जो संज्ञा मिली, उसने कभी इनका पीछा नहीं छोड़ा। 15वीं लोकसभा चुनाव में तो कमजोर प्रधानमंत्री का मुद्दा इस कद्र गरमाया कि ये कमजोर प्रधानमंत्री बनाम लौह पुरुष के बीच  का अखाड़ा बन गया। भाजपा के वरिष्ठ नेता और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने तो मनमोहन सिंह को अमेरिकी तर्ज पर खुली बहस की चुनौती तक दे डाली, जिसे कांग्रेस पार्टी ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि भारत में इस तरह की परिपाटी नहीं रही है। अपने बचाव में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि किसी व्यक्ति का कमजोर या मजबूत होना इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि कौन कितना बोलता है, बल्कि इसका संबंध काम से है कि कौन कितना काम करता है। आडवाणी अपने इस मुहिम में विफल साबित हुए और यूपीए को दुबारा से बुहमत दिलाकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-टू फिर से सत्ता में काबिज होगई। इसके बाद लगा कि अब ये मुद्दा हवा हो चुका है, क्योंकि जनता ने मनमोहन सिंह की नेत्ृत्व वाले गठबंधन यूपीए-टू को जिता कर ये साबित कर दिया था कि मनमोहन सिंह कमजोर नहीं एक मजबूत प्रधानमंत्री हैं।
कुछ दिनों तक ये मुद्दा शांत भी रहा, लेकिन वर्ष 2010 में जिस तरह एक के बाद एक घपलों और घोटालों की बाढ़ आने लगी और प्रधानमंत्री इन शिकायतों पर कार्रवाई करने के बजाए बेबस हाथ पर हाथ डाले बैठे दिखाई दिए। इसने अब ये साबित कर दिया कि वाकई मनमोहन सिंह एक कमजोर ही नहीं, बल्कि लाचार प्रधानमंत्री भी हंै। अपने ऊपर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप के बाद प्रधानमंत्री ने टीवी पत्रकारों के साथ वार्ता के जरिए इस मुद्दे पर देश की जनता से सीधी बात की और अपनी मजबूरीयां गिनाईं। प्रधानमंत्री ने खासकर टू-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में 1.76 लाख करोड़ के घोटाले का जिक्र करते हुए इसे गठबंधन की मजबूरी बताकर अपना दामन पाक-साफ दिखाने का प्रयास किया, लेकिन प्रधानमंत्री का बयान विपक्ष को एक और मुद्दा थमा गया।  भाजपा ने यह तर्क दिया कि प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार का बहाना बनाकर नहीं बच सकते। आखिर 70 हजार करोड़ के घपलेबाज ओलंपिक आयोजन समीति के अध्यक्ष किस गठबंधन दल से है? आदर्श सोसायटी छोटाले के मुख्य सुत्रधार और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वान भी क्या किसी सहयोगी दल के हैं, लेकिन इसका कांग्रेस पार्टी के पास कोई जवाब नहीं था। सिवाए भूमि घोटाले से घिरे कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री येदुयुरप्पा के गुनाहों को गिनवाने के। यानी एक गुनहगार की आड़ में दूसरे गुनहगारों को बचाने का खेल बखूबी खेला गया। इस दौरान एक बात जो प्रधानमंत्री ने कही वह यह कि मैं नौकरी कर रहा हूं। इससे ये साफ जाहिर होता है कि डॉ. सिंह को अपने पद की पॉवर और गरिमा का एहसास ही नहीं है, बल्कि वह अपने पद को किसी मल्टी नेशनल कंपनी के सीईओ के पद से आंक रहे हैं। इससे तो पता चलता है कि प्रधानमंत्री रिजर्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पद से ज्यादा के काबिल नहीं हैं। यही वजह है कि कई शिकायतों के बाद भी पीएम ने संचार मंत्री डी. राजा, ओलंपिक आयोजन समीति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और सीवीसी पीजे थॉमस के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पाए। यहां तक कि मनमोहन सिंह की सरकार गोदामों में सड़ रहे अनाजों को बांटने का निर्णय तक नहीं ले पाई। जो भी कार्रवाई हुई वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई। यूपीए सरकार के कर्ता-धर्ता अब तक काले धन के मुद्दे पर राजनीति कर रहे भाजपाइयों को एनडीए के छ: साल के शासनकाल में इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाने की बात कहकर बाोलती बंद करते रहे हैं, लेकिन अब यूपीए सरका को सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर लताड़ लगाई है कि काला धन वापस लाने हेतू क्यों नहीं एसआईटी का गठन किया जा सकता है।
इसे देखकर ऐसा लगता है कि भारत में पाकिस्तान जैसे हालात निर्मित हो रहे हैं। जहां सरकार के निकम्मा होने पर हर मामले
में सुप्रीम कोर्ट अपने चाबुक के दम पर सरकार को कुछ कड़े फैसले लेने पर मजबूर करती है। अब यहीं नजारा भारत में भी आम होता जा रहा है, जिसे देखकर ऐसा लगता है, मानो सरकार मनमोहन सिंह नहीं, सुप्राम कोर्ट चला रहा हो। कोर्ट के इस फैसले से भले ही लोगों को राहत मिलती हो, लेकिन अदालती आदेश एक लोकतांत्रिक देश की निकम्मी कार्र्यपालिया पर न्यायपालिका का तमाचा से कम नहीं है।

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