भारतीय सेना ने लिखी इंसाफ की पेशानी पर तारीखी इबारत

प्रणय विक्रम सिंह
भारतीय सेना ने इंसाफ की पेशानी पर कभी न मिटने वाली तारीखी इबारत लिख दी है। मसला जम्मू और कश्मीर के माछिल इलाके में चार साल पहले हुए फर्जी मुठभेड़ का है। इस मामले में सेना के दो अफसरों और 5 जवानों को आजीवन कारावास की सजा की सिफारिश की गई है। सेना ने इन सभी को आजीवन कारावास की सजा देने की सिफारिश की है। भारतीय सेना ने मच्छल फर्जी मुठभेड़ कांड में आरोपी सात जवानों को दण्ड देने का फैसला सुनाकर कर यह बेलाग पैगाम दिया है कि अब वह मानवाधिकारों को लेकर अधिक सचेत और अपने अफसरों/जवानों की जवाबदेही तय करने के प्रति ज्यादा गंभीर है। मच्छल प्रकरण की तुलना पथरीबल की घटना से की जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि पिछले एक दशक में माहौल कितना बदला है। साल 2००० में चित्तीसिंहपुरा नरसंहार के बाद अनंतनाग जिले के पथरीबल में फर्जी मुठभेड़ में पांच निर्दोष लोगों के मारे जाने के मामले में सेना आरोपी सैनिकों पर कार्रवाई को टालती रही। आखिरकार 2०12 में सुप्रीम कोर्ट के सक्रिय हस्तक्षेप के बाद वह उनका कोर्ट मार्शल करने को तैयार हुई। जबकि मच्छल कांड में उसने जम्मू-कश्मीर पुलिस एवं न्याय विभाग की मदद से तत्परतापूर्वक जांच की और अब आजीवन कारावास का आदेश दे कर मृतकों के परिजनों को इंसाफ प्रदान करने की कोशिश की है। नि:संदेह यह सिविल सोसायटी संगठनों के सघन प्रयास और न्यायपालिका के दखल का परिणाम है। लेकिन इसका संदेश यह भी है कि सैन्य नेतृत्व में जिम्मेदारी का भाव अब अधिक सुदृढ़ हुआ है। इससे न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि आंतरिक अशांति से ग्रस्त जिन दूसरे राज्यों में सेना तैनात है, वहां के लिए भी एक बेहतर मिसाल कायम होगी। मच्छल में मामला ऐसा नहीं था कि आरोपी सैनिकों ने कर्तव्य निर्वाह के दौरान अतिरेकपूर्ण कार्रवाई कर दी हो। बल्कि इनाम लेने के लिए षड्यंत्रकारी ढंग से तीन निर्दोष लोगों को हासिल करने और उन्हें आतंकवादी बताकर मार डालने का इल्जाम उन पर लगा था। तीन स्थानीय लोगों (जो खुद को आतंकवाद-विरोधी बताते हैं) ने तीन निर्दोष लोगों को कथित रूप से फांसा और उन्हें 5०-5० हजार रुपए में 4-राजपूताना राइफल के पूर्व कमांडिग अफसर समेत छह सैनिकों के हाथ बेच डाला। उन सैनिकों ने उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मारा डाला। हर आतंकवादी को मारने के लिए सेना की इस इकाई को डेढ़-डेढ़ लाख रुपए इनाम मिला। स्पष्टत: यह साजिश, अपहरण और हत्या का मामला था। इसमें न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ, बल्कि देश के साथ धोखा भी किया गया। निर्विवाद रूप से भारतीय सेना को ऐसी घटनाएं बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। अच्छी बात है कि उसने अपने व्यवहार से यही जताया है। 2०1० में मच्छल घटना के विरोध में कश्मीर में पथराव और जन-प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया था। उस पर पुलिस कार्रवाई में 12० से अधिक लोग मारे गए थे। इससे अलगाववादियों के इस प्रचार को आधार मिला था कि सेना घाटी में मानवाधिकारों का हनन कर रही है। दोषी सैन्यकर्मियों के कोर्ट मार्शल से ऐसी धारणाएं कमजोर पड़ेंगी। प्रदेश के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा है कि सेना ने 2०1० के माछिल फर्जी मुठभेड़कांड में कमांडिग अफसर (सीओ) सहित सात सैनिकों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। यह एक स्वागतयोग्य कदम है। उमर ने ट्वीट में लिखा, मैं आशा करता हूं कि हमें दोबारा माछिल फर्जी मुठभेड़ जैसी घटनाएं देखने को नहीं मिलेंगी। इसे हम एक चेतावनी के रूप में लें। वैसे सेना के हाथों मानवाधिकार हनन का यह पहला मामला नहीं है। जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूर्वोत्तर में भी ऐसी बहुत सारी घटनाएं हो चुकी हैं। अधिकतर मामलों में शिकायतें या तो अनसुनी कर दी जाती रही हैं या उन्हें आंतरिक जांच में रफा-दफा कर दिया जाता रहा है। मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए लोगों के परिजनों के संगठन ने ऐसी करीब डेढ़ हजार घटनाओं का ब्योरा जमा किया है। इनमें से छह मामलों की जांच कुछ महीने पहले सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक समिति ने की थी। समिति ने शिकायतों को सही पाया। पर अधिकतर मामलों की न तो जांच हो पाती है न दोषियों को सजा मिलती है। सच तो यह है कि हमारा राज्यतंत्र मानवाधिकार हनन के मामलों को गंभीरता से लेता ही नहीं, खासकर तब जब आरोप फौजियों पर हो। अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून ऐसे मामलों पर परदा डाल देने का जरिया बना हुआ है। यह कानून सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देता है। यह दलील दी जाती रही है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए ये अधिकार जरूरी हैं। पर माछिल सेक्टर में तीनों युवक आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के क्रम में नहीं मारे गए। ऐसे भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब सेना ने आतंकवादियों से मोर्चा लेने के दौरान नागरिकों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया। माछिल मामले में सैन्यतंत्र ने सकारात्मक रवैए का परिचय दिया है। वैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने कहा है कि कई राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर पुलिस की होती हैं, सेना की नहीं होती। खैर पुलिस से इतर सेना की भूमिका को परखा जाए तो ज्ञात होता है कि आंतरिक अशांति से ग्रस्त इलाकों में सेना को बेहद मुश्किल हालात में काम करना पड़ता है। इसके बावजूद वह अपना उद्देश्य तभी उचित रूप से प्राप्त कर सकती है, जबकि उसकी साख बेदाग रहे। अनुशासन और नियमों के पालन के मामले में कोई समझौता न करने का उसका रुख इसमें सहायक बनेगा।

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