संदर्भः- पेरिस जलवायु संधि पर 175 देशों ने किए दस्तखत
प्रमोद भार्गव
संयुक्त राष्ट्रसंघ के मुख्यालय में आयोजित ऐतिहासिक ‘पेरिस जलवायु परिवर्तन संधि हस्ताक्षर समारोह‘ में 175 देश काॅर्बन कटौती पर सहमत हो गए हैं। भारत की ओर से वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाष जावड़ेकर ने इस संधि पर न्यूयाॅर्क में हस्ताक्षर कर दिए हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री जाॅर्न केरी, जावड़ेकर और ऊर्जा मंत्री पीयूश गोयल के बीच हुई चर्चा से यह उम्मीद भी बढ़ी है कि आने वाले दिनों में भारत और अमेरिका जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाएंगे। हालांकि अमेरिका पहले ही ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई तक कमी लाने का ऐतिहासिक फैसला ले चुका है। भारत के ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान के महानिदेश क अजय माथूर ने यह दावा किया है कि भारत ने जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने और वास्तविक समाधान की दिशा में लंबी छलांग लगाई है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जलवायु में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने की दृष्टि से नई योजना की घोशित की है, ‘अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई तक कमी लाएगा,क्योंकि धरती के भविष्य को इस खतरे से बढ़ी दूसरी कोई चुनौती नहीं है।‘ इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अमेरिका कोयला आधारित बिजली का उत्पादन कम करेगा। अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसदी बिजली पैदा की जाती है। कोयले से बिजली उत्पादन में अमेरिका विश्व में दूसरे स्थान पर है। पर्यावरण हित से जुड़े इन लक्ष्यों की पूर्ति 2030 तक की जाएगी। इसी तर्ज पर अजय माथूर ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने की दिशा में भारत ने बड़ी पहल एलईडी प्रकाष व्यवस्था लागू करके की है। इसके तहत सामान बल्वों के स्थान पर दस करोड़ एलईडी बल्वों का इस्तेमाल शुरू किया गया है। इस प्रक्रिया से काॅर्बन डाइआॅक्साइड में ढाई करोड़ टन की कमी लाने में सफलता मिली है। इसकी अगली कड़ी में सघन औद्योगिक ईकाइयों की ऊर्जा खपत को तीन वर्शीय योजना के तहत घटाया जाएगा।
पिछले साल पेरु के षहर लीमा में 196 देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रीय संकल्पों के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हुए थे। इस सहमति को पेरिस में हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन में पारित कर दिया गया था। इस सहमति पर अमल करते हुए भारत और अमेरिका ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की जो घोषणाएं की हैं,उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पेरिस सम्मेलन के सार्थक परिणाम निकलने लगे हैं। इससे अमेरिका में 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम हो जाएगा। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन रात निकलकर वायुमंडल को दूषित कर रही हैं। अमेरिका की सड़कों पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16 करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा।
पेरिस में वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुबंध की दिशा में इस पहल को अन्य देशों के लिए भी एक अभिप्रेरणा के रूप में लेना चाहिए। क्योंकि भारत एवं चीन समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में एक अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया था। इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े काॅर्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा,जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा। अनेक छोटे द्विपीय देशों ने भी इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था। लिहाजा अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश काॅर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे।
पेरिस में हुई संधि एवं पेरू में पारित हुए संकल्प के पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा। यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही साबित हो गई थी। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन काॅर्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी। इस पर्दाफाश के बाद काॅर्बन उत्सर्जन की सीमा तय करने को लेकर चला आ रहा गतिरोध पेरू में संकल्प पारित होने के साथ टूट गया था। नए प्रारुप में तय किया गया है कि जो देश जितना काॅर्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन शीर्ष पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है।
यह सहमति इसलिए बन पाई थी, क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टाॅड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे। इनमें प्रमुख रुप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें। दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे। दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊजा्र कटौती की पहल भी इन्हीं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अकुंश लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाती। भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं। इसलिए ये विकसित देशों की हितकारी इकतरफा शर्तों के खिलाफ थे।
दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्ष करीब पांच अरब डाॅलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में 1 करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और शेष दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। इसी सिलसिले में भारत के कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन ने कहा है कि यदि धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्षियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूॅं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। लिहाजा वैज्ञानिकों की मंशा है कि औद्योगिक क्रांति के समय से धरती के तापमान में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसे 2 डिग्री सेल्षियस तक घटाया जाए। भारत और अमेरिका ने इस दिशा में उल्लेखनीय पहल शुरू कर दी है। अब चीन से अपेक्षा है। जिन 175 देशों ने संधि पर हस्ताक्षर किए हैं,यदि वे वाकई अमेरिका और भारत की तरह संधि की शर्तों के अनुसार अपने-अपने देशों में काॅर्बन की कटौती करते हैं,तो हम धरती के तापमान में कमी का अनुभव करने लग जाएंगे।