ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा का उल्लास

-हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय दर्शन में ‘इच्छाशून्यता’ की महत्ता है। गीता दर्शन में आसक्तिरहित जीवन पर ही जोर है लेकिन जानने की इच्छा भारतीय दर्शन पररपरा का सम्मानीय शिखर है। इस इच्छा की अपनी खास पीड़ा, इस पीड़ा का भी अपना आनंद है। गीता भी ज्ञान प्राप्ति की इच्छा पर जोर देती है। श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान प्राप्ति की तरकीब बताते हैं, ज्ञानियों को दडवत (प्रणाम) करें। सेवा करें प्रश्न पूछें। तत्वदर्शी तुझे ज्ञान देंगे। (गीता 4.34) बताते हैं सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला ज्ञान की नाव पर पाप समुद्र पार कर जाता है। (वही 36) फिर ज्ञान की महत्ता बताते हैं ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमह विद्यते’-ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला और कुछ नहीं है। (वही 38) ज्ञान परम शांति का अधिष्ठान है। भारत के सुदूर अतीत में ही ज्ञान प्राप्ति को श्रेष्ठ कर्तव्‍य जाना गया। आचार्य-शिष्य के अनूठे रिश्ते का विकास हुआ। आचार्य को देवता जाना गया। आचार्य ने शिष्य को पुत्र जाना। भारत की मेधा में गजब की जिज्ञासा थी। पश्चिम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अभी कल की बात है। आईंस्टीन ने इंद्रियों से प्राप्त अनुभव को प्रत्यक्ष बताया और कहा इसकी व्याख्या करने वाले सिध्दांत मनुष्य बनाते हैं। वह अनुकूलन की एक श्रम साध्य प्रक्रिया है – पूर्वानुमानित। पूरी तरह अंतिम नहीं। सदा प्रश्नों, प्रति प्रश्नों और संशय के घेरे में रहने वाली है। आईंस्टीन की प्रश्नों संशयों वाली श्रम साध्य प्रक्रिया भारत के ऋग्वैदिक काल में भी जारी है।

वैदिक पूर्वज उल्लासधर्मा हैं, आनंदमगन हैं लेकिन यहां सुखी और दुखी भी हैं। सबके अपने-अपने दुःख हैं और अपने-अपने सुख। सांसारिक वस्तुओं का अभाव अज्ञानी का दुख है, तत्वज्ञान की प्यास ज्ञानी की व्यथा है। वैदिक समाज सांसारिक समृध्दि में संतोषी है। लेकिन ज्ञान की व्यथा गहन है। वैदिक साहित्य में सृष्टि रहस्यों को जानने की गहन जिज्ञासा है। यहां ज्ञान प्राप्ति की व्यथा में भी उल्लास का आनंद है। आसपास की जानकारियां आसान हैं लेकिन स्वयं का ज्ञान विश्व दर्शन शास्त्र की भी मौलिक समस्या है। ऋग्वेद (1.164.37) के ऋषि की पीड़ा समझने लायक है मैं नहीं जानता कि मैं कैसा हूं, मैं मन से बंधा हुआ हूं, उसी के अनुसार चलता हूं। ऋषि स्वसाक्षात्कार चाहता है, सो पीड़ित है। पहले मंडल के 105वें सूक्त के एक छोड़ सभी मंत्रों के अंत में कहते हैं हे पृथ्वी-आकाश मेरी वेदना-पीड़ा जानो। ऋषि इंद्र की स्तुति करता है लेकिन अशांत है आपकी स्तुति करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को भी चिंता खा रही है। लेकिन ऋषि की पीड़ा असाधारण है। कहते हैं चंद्रमा अंतरिक्ष में चलता है, सूर्य अंतरिक्ष के यात्री हैं लेकिन आकाश की विद्युत भी आपका सही रूप नहीं जानती। यहां जिज्ञासा की पीड़ा है। इच्छाएं अनंत हैं लेकिन जानने की इच्छा ज्यादा व्यथित करती है। जानने की इच्छा से ही दर्शन और विज्ञान का विकास हुआ है।

सूर्य प्रत्यक्ष हैं। लेकिन सूर्य को पूरा जानने की इच्छा बहुत बड़ी चुनौती है। वे पृथ्वी से बहुत बड़ी दूरी पर है। ऋषि की जिज्ञासा है कि रात्रि के समय वे किस लोक में प्रकाश देते हैं। (1.35.7) पृथ्वी सूर्य के ताप पर निर्भर है। वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य के पास ईंधन है। ऋषि जानना चाहता है कि वह अपनी किस ऊर्जा के दम पर गतिशील रहता है। वह नीचे पृथ्वी की तरफ झांकता है और ऊपर उत्तानः (ऊर्ध्व) की तरफ भी। वह कैसे टिका हुआ है? किसने देखा है? (4.13.5) यहां जानकारी का क्षेत्र बड़ा है। सूर्य के ऊपर और नीचे जाकर निकट से देखना असंभव है। सूर्य बिना किसी आधार के ही टिका हुआ है। ऋषि का संकेत है कि वह समृतः – ऋत नियम के कारण ही अपनी शक्ति – स्वधया गतिशील है। यहां ऋत प्रकृति का संविधान है। प्रकृति की सारी शक्तियां ऋत-बंधन में हैं। इंद्र, वरूण, अग्नि, सूर्य और सारे देवता ऋत – (संविधान) के कारण ही शक्तिशाली हैं।

प्रकृति सतत् विकासशील है। अंतरिक्ष और पृथ्वी एक साथ बने? या दोनों में कोई एक पहले बना? ऋषि इस प्रश्न को लेकर भी बेचैन हैं। जिज्ञासा है द्यावा पृथ्वी में कौन पहले हुआ? कौन बाद में आया? विद्वानों में इस बात को कौन जानता है। (1.85.1) संप्रति स्टीफेन हाकिंस जैसे विश्वविख्यात ब्रह्मांड विज्ञानी सृष्टि रहस्यों की खोज में संलग्न हैं। ऋग्वेद में सृष्टि रहस्यों की अजब-गजब जिज्ञासा है। ऋग्वेद की शानदार धारणा है कि देवता भी सृष्टि सृजन के बाद ही अस्तित्व में आए। यहां सृष्टि सृजन के अज्ञात सृष्टा पर संदेह है कि वह भी अपना आदि और अंत जानता है? कि नहीं जानता? कौन कह सकता है? अथर्ववेद के ऋषि कौरपथि का दिलचस्प प्रश्न है उस समय इंद्र, अग्नि, सोम, त्वष्टा और धाता किससे उत्पन्न हुए – कुतः इंद्रः कुतः सोम कुतो अग्निरजायत। (अथर्व0 11.10.8) ऋषियों के सामने भरी पूरी सृष्टि है। अनेक देवों की मान्यताएं है। वे वैज्ञानिक चिंतन से सराबोर हैं। देवतंत्र संबंधी मान्यताएं भी उन्हें जस की तस स्वीकार्य नहीं हैं। ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा उन्हें आनंद देती है। मनुष्य शरीर की रचना भी उन्हें आकर्षित करती है। जिज्ञासा है कि सृष्टि रचनाकार ने बाल, अस्थि, नसो मांस और मज्जा, हाथ पैर आदि को किस ढंग से किस लोक में अनुकूल बनाया? (अथर्व0 11.10.11)

मनुष्य शरीर की संरचना अद्भुत है। ऋषि की जिज्ञासा दिलचस्प है सृष्टा ने किस पदार्थ से केश, स्ायु व अस्थियां बनाई? ऐसा ज्ञान किसे है? – को मांस कुत आभरत्। (वही, 12) मनुष्य पूरी योग्यता और युक्ति के साथ गढ़ा गया दिखाई पड़ता है। जिज्ञासु के लिए ऐसी संरचना की ज्ञान प्राप्ति का रोचक आकर्षण है। हम सब शरीर संरचना पर गौर नहीं करते। चिकित्सा विज्ञान द्वारा किए गए विवेचन को ही स्वीकार करते हैं। शारीरिक संरचना में असंख्य कोष हैं। इन कोषों का संचालन और समूची कार्यवाही आश्चर्यजनक है। अथर्ववेद के ऋषियों की जिज्ञासा आश्चर्य मिश्रित है किसने जंघाओं घुटनो पैरों, सिर हाथ मुख पीठ हंसली और पसलियों को आपस में मिलाया है? (वही, 14) प्रश्न महत्वपूर्ण है। युक्तिपूर्ण इस शरीर संरचना का कोई तोर् कत्ताधर्ता होना ही चाहिए। सबसे दिलचस्प जिज्ञासा मनुष्य के रंग के बारे में है। जानना चाहते हैं कि किस दिव्य शक्ति ने शरीर में रंग भरे – ‘येनेदमद्य रोचते को अस्मिन वर्णमाभारत्।’ (वही, 16) ज्ञान की अभीप्सा श्रेष्ठतम आकांक्षा है।

भारतभूमि ज्ञान अभीप्सु लोगों की पुण्यभूमि है। ज्ञान का क्षेत्र बड़ा है। जान लिया गया ‘ज्ञात’ कहलाता है, न जाना हुआ अज्ञात है। लेकिन अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान से ही होती है। अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान का हिस्सा है। अज्ञान का बोध भी बहुत बड़ा ज्ञान है। वैदिक साहित्य अज्ञान की घोषणाओं से भरा पूरा है। अज्ञान की स्वीकृतियों में ज्ञान की प्यास है। ज्ञान की इस अभीप्सा में अज्ञानी होने की पीड़ा है। स्वयं के अज्ञान का बोध होना परम सौभाग्य का लक्षण है। ज्ञानयात्रा का प्रस्थान अज्ञान के बोध से ही शुरू होता है। अज्ञान के बोध की पीड़ा ही ज्ञान प्राप्ति की बेचैनी बनती है और समग्र प्राण ऊर्जा, व्यक्तित्व का अणु-परमाणु ज्ञान प्यास की अकुलाहट से भर जाता है। ज्ञान यात्री की पीड़ा में सुख, स्वस्ति, आनंद और मस्ती के सुर छंद होते हैं। ज्ञान यात्रा के लिए उठाया गया पहला कदम भी व्यक्ति को ज्ञान दीप्ति से भर देता है। भगवत्ता की तरफ निष्ठापूर्वक देखने वाला भी फौरन भक्त हो जाता है। ज्ञान निष्ठा वाला साधारण विद्यार्थी भी आकाश नापने की महत्वाकांक्षा के कारण परमव्योम तक जाने की उड़ान भरता है। वैदिक ऋचाएं ऐसे सत्य अभीप्सु की कामना करती हैं, वे स्वयं अपने मंत्र रहस्य खोलती हैं और जीवन सत्य अनुभूति की दिव्य गंध से लहालोट हो जाता है।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

2 COMMENTS

  1. -हृदयनारायण दीक्षित जी—
    आज के लेखपर कोई टिप्पणी करना, मेरे लिए एक सूर्यकी छोटेसे दीपकसे आरती उतारने समान है।फिर भी कहता हूं, कि, अपने आपको, अवाक्‌ अनुभव कर रहा हूं।
    आपने तो वेद वेदान्त का मंथन करके नवनीत परोसा है। हृदय को, मस्तिष्क को, आत्मा को छू देनेवाला यह लेख हिमालयकी ऊंचाई और सागरकी गहराई दोनोका परिचय देनेवाला रत्नाकर है। धन्य है हम। आप सही अर्थमें ऋषि ही है, ऐसी मेरी सीमितबुद्धि व्यक्ति की धारणा है। हर पाठकसे अनुरोध कर सकता हूं, कि इस लेखको अवश्य पढे। प्रवक्ता भी धन्य है, कि उसके पास दीक्षित जी समान असामान्य ज्ञानी है।
    दीक्षितजी चरण स्पर्श।

  2. है पुनीत या जगत में ,नहिं कछु ज्ञान समान…
    ह्रदय नारायण दीक्षित ,सुन्दर करें बखान …

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