श्रमिक आन्दोलन के कारण गीता प्रेस बंद होने के कगार पर

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अशोक “प्रवृद्ध”

 

पुरातन भारतीय साहित्य के अध्येताओं के लिए गीता प्रेस गोरखपुर के परिचय की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि  गीता प्रेस गोरखपुर अपनी भारतीय आध्‍यात्‍म‍िक ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए विश्‍वविख्‍यात है। रामायण, पुराण, उपनिषद आदि ग्रन्थों के साथ ही अनेक दुलर्भ ग्रन्थों और प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं के संरक्षक व प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर हैं। हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वारा स्थापित की गई गीता प्रेस के द्वारा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित साहित्य दशकों से प्रकाशित किये जाने के कारण इसकी पहुंच हर सनातन परिवार में बन चुकी है। यह प्रतिवर्ष तमाम धार्मिक पुस्तकों तथा अन्यान्य ग्रन्थों को प्रकाशित करती है। इस प्रकाशन की कल्याण नामक वार्षिक विशेषांक व मासिक पत्रिका काफी लोकप्रिय है। सन 1926 से लगातार प्रकाशित हो रहे कल्याण पत्रिका के आद्य संपादक नित्यलीलालीन भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे, जो स्वयं कई दुर्लभ ग्रन्थों के प्रकाशक, भाष्यकार व टिप्पणीकार रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशक उत्तर प्रदेश के गीताप्रेस गोरखपुर का प्रकाशन समूह श्रमिक आन्दोलन के कारण बंद होने कगार पर है, और इस ओर सनातन धर्मावलम्बियों का कोई ध्यान नहीं है।

geeta pressधार्मिक पुस्तकों के लिए विश्वप्रसिद्ध गीता प्रेस गोरखपुर के प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच वेतन को लेकर शुरू हुआ मामला सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। न्यूनतम वेतन अर्थात  मिनीमम वेज लागू करने की मांग कर रहे 12 कर्मचारियों को गीता प्रेस मैनेजमेंट के द्वारा निलंबित कर दिए जाने का विरोध करते हुए कंपनी के कर्मचारी एकजुट होकर आठ अगस्त शनिवार से हड़ताल पर चले गए। दस अगस्त सोमवार से उन्होंने गीता प्रेस में तालाबंदी भी कर दी। ऐसे में अब गीता प्रेस के कामकाज पर असर पड़ रहा है। इसके लिए अब सीधे गीता प्रेस मैनेजमेंट को जिम्‍मेदार माना जा रहा है। मामले के निपटारे के लिए क्षेत्र के उप श्रमायुक्त यूपी सिंह ने दो बार मैनेजमेंट और कर्मचारियों को बात-चीत के लिए बुलाया भी था। कर्मचारी तो समय से पहले पहुंच गये, लेकिन मैनेजमेंट का कोई जिम्मेदार अधिकारी बात करने नहीं पहुंचा। निलंबित कर्मचारी रमन श्रीवास्तव के एक प्रेस व्यान के अनुसार उत्तरप्रदेश सरकार ने कर्मचारियों के वेतन के मामले में तीन कैटेगरी बनाई थी। इसमें 31 जनवरी 1992, फरवरी 2006 और 2014 में मिनीमम वेज लागू करने का निर्देश दिया गया था। गीता प्रेस ने इस निर्देश का पालन नहीं किया। इतना ही नहीं, पहले निर्देश के क्रम में प्रबंधन हाईकोर्ट चला गया, जबकि हाईकोर्ट ने कर्मचारियों के पक्ष में ही फैसला सुनाया। कुछ कर्मचारियों का आरोप है कि प्रबंधन द्वारा हर साल कर्मचारियों के वेतन में करोड़ों रुपए की हेराफेरी की जाती है। उधर गीताप्रेस के 600 कर्मचारियों में से 337 कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें वेतन के रूप में 13 हजार से ऊपर मिलता है। गीताप्रेस प्रबन्धन का कहना है, हम सभी श्रम व प्रेस नियमों का पालन कर रहे हैं, परन्तु कुछ लोग नहीं चाहते कि सनातन धर्म की पुस्तकों का निर्बाध प्रकाशन व विपणन हो। स्मरणीय है कि वेतन विसंगतियों को लेकर कर्मचारियों का आक्रोश पिछली तीन दिसम्बर को फूट पड़ा था जब कर्मचारियों ने प्रबंधन के खिलाफ पहली बार आवाज बुलंद की थी। इस बीच कर्मचारी अपने मूल दायित्व को निभाते हुये कुछ अंतराल पर हडताल पर जाते रहे थे। लेकिन इस बार यह आन्दोलन के शीघ्र समाप्ति के आसार नजर नहीं आते। अगर ऐसा हुआ तो सनातन धर्मावलम्बियों के लिए यह एक बड़ी क्षति होगी, जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं होगी।

 

गीता प्रेस की पुस्तकें पढ़-पढ़ कर बड़े हुए प्रतिष्ठित व्यक्तियों का कहना है कि सनातन हिन्दू धर्म की गीता प्रेस ने जो सेवा की है वह अतुलनीय है। आज अगर सामान्य जन श्रीमद्भगवदगीता , श्रीरामचरित मानस सहित, पुराण, उपनिषद आदि अनेक दिव्य शास्त्र और ग्रन्थ बहुत कम मूल्य पर प्राप्त करके उनका अध्ययन कर रहे हैं, तो इसका श्रेय गीताप्रेस को ही है। कलकत्ता के गोविन्द भवन से संचालित होने वाली गीता प्रेस के प्रबंधक, संचालक कहीं से कोई चन्दा या दान नहीं लेते। उन्हें कागज़ पर कोई अनुदान अर्थात सब्सीडी प्राप्त नहीं होती, उन्हें किसी प्रकार का कोई सरकारी सहायता भी प्राप्त नहीं होता, उस पर हैरतनाक बात यह है कि गीता प्रेस की पुस्तकों में कोई विज्ञापन भी छापी नहीं जाती। उनमें किसी जीवित व्यक्ति का चित्र नहीं छापा जाता। गीता प्रेस की पुस्तकें लागत मूल्य से साठ प्रतिशत तक कम मूल्य पर बेची जाती हैं। आज के स्वार्थी युग में क्या संसार में त्याग और तपस्या का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मिल सकता है?  गीताप्रेस के द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों का पाठ व प्रवचन कर-कर के अनेक बाबा और महाराज करोड़पति बन चुके है। लेकिन दुर्भाग्य से गीता प्रेस को अब तक चलाने वाले वहाँ के कर्मचारी अब कम वेतन मिलने का आरोप लगाकर आन्दोलन रत हैं । गीता प्रेस के प्रशंसकों का कहना है, आज सनातन धर्म अर्थात सम्पूर्ण हिन्दू समाज कठघरे में खड़ा है। यह सनातन धर्मावलम्बियों के लिए परीक्षा की घडी है। अगर अकूत सम्पति के स्वामी स्वनाम धन्य संतों , सैकड़ों अरबपति बाबाओं, महाराज तथा साईं बाबा की कब्र पर सोना चांदी चढाने वाले धनाढ्य हिन्दूओं के द्वारा गीताप्रेस और उसके कर्मचारियों की सहायता कर गीताप्रेस को बचाने के लिए कुछ कार्य नहीं किया जाता है तो वे धिक्कारे जाने के योग्य हैं और उनका दुनिया से उठ जाना ही हिन्दू हित में है। उधर मदरसों को मोदी सरकार द्वारा सैंकड़ों करोड़ों की राशि दिए जाने से उत्साहित धर्मनिरपेक्ष लोगों का कहना है, केंद्र सरकार को अविलम्ब मदद करके गीताप्रेस को बचाना चाहिए।

 

सनातन धर्मावलम्बियों के अनुसार, हिन्दुओं के द्वारा मंदिरों में, कई संतों-मुनियों को करोडों-अरबों रुपये का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। तब एक संस्थान जो बिना किसी लाभ के दशकों से हिन्दू साहित्य एवं धर्म ग्रन्थ छाप रहा है, उसका बंद होना अगर हमारी आँखें नहीं खोलता तो यह हमारा दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हिन्दुओं के विभिन्न संगठन एवं मंदिरों के ट्रस्ट थोड़ी सी आर्थिक सहायता गीता प्रेस को नहीं दे सकते? क्या गीता प्रेस द्वारा किया गया धर्म का प्रचार किसी संत महात्मा,किसी मंदिर ट्रस्ट से कम है? उल्लेखनीय है कि 1923 में अपने स्थापना काल से अब तक एक दिन के लिए भी बंद नहीं होने वाले प्रतिष्ठान गीताप्रेस में हिन्दी और संस्कृत समेत 15 भाषाओं में धार्मिक ग्रन्थों का प्रकाशन होता है। गीता प्रेस गोरखपुर के प्रारंभ होने की  कहानी भी कम रोचक नहीं है। राजस्थान के चुरू में सन् 1885 में खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में जन्मे जयदयाल गोयन्दका ने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया, और कोलकाता में गोविन्द-भवन की स्थापना की। गीता-प्रचार अभियान के दौरान जब उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी मुश्किल व दूभर है, तो उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन् 1923 में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों भाई जी के संज्ञा से विभूषित उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। उन्होंने गीता तत्व विवेचनी नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है।

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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