बचपन खिलाने का सबक

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संदर्भः- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छात्रों से बातचीत

प्रमोद भार्गव

हमारी शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी द्वारा शिक्षक से प्रश्न करने का अधिकार लगभग गुम है। इसीलिए जब कोई मंत्री या अधिकारी किसी पाठशाला का निरीक्षण करने जाते हैं तो वे बच्चों से ऐसे सवाल पूछते हैं जो सूचना आधारित होते हैं। यानी उनसे जीवन-दर्शन का कोई सबक नहीं मिलता। नरेंद्र मोदी ने देश-भर के छात्र-छात्राओं को सीधे प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का अधिकार देकर उस जड़ता को तोड़ने का काम किया है, जिसका बीजारोपण अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के जरिए मैकाले ने किया था और जो रटने-रटाने की पद्धति पर आधारित है। आजादी के 67 साल बाद भी हम इस प्रणाली को ढोते चले जा रहे हैं। इस बातचीत की अह्म विषेmodiशता यह रही कि मोदी ने एक बच्चे के सवाल के जबाव में शरारत के बिना बचपन को बेमानी बताया। आज अधिकतम अंक लाने और डाॅक्टर-इंजीनियर बन जाने की होड़ ने ज्यादातर बच्चों की शरारती निर्मलता को लील लिया है। यही प्रमुख कारण है कि जब बच्चे पूर्व से ही तय कर लिए गए अथवा अभिभावकों द्वारा तय कर दिए गए उद्देश्य में सफल नहीं होते है तो आत्महात्या का रास्ता भी चुन लेते हैं। जबकि शरारतें और स्वतंत्रता बालक के चरित्र में मानवीय संवेदना, रचनात्मकता और सामूहिकता के बीज बोने का काम करते हैं, जो आत्मविश्वास को पुख्ता करते हुए व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास में सहायक होते हैं।

विद्यार्थियों के सवाल रोचक होने के साथ जिज्ञासाओं से परिपूर्ण थे। कहा भी जाता है कि सबसे ज्यादा जिज्ञासा बालकों में ही होती है। इसी क्रम में जब एक छात्र ने उनसे पूछा कि क्या कभी उन्होंने सोचा है कि वे देश के प्रधानमंत्री बनेंगे और दुनिया में उनकी प्रसिद्धी व प्रतिष्ठा कायम होगी। जाहिर है, न तो प्रधानमंत्री बनने की प्रतिज्ञा करना आसान है और न ही ले भी लो तो इस संकल्प को पूरा करना आसान है। गोया प्रधानमंत्री ने बेहद साफगोई से कहा कि उन्होंने तो कक्षा का माॅनीटर भी बनना नहीं सोचा था, सो प्रधानमंत्री की क्या सोचते ? इस उत्तर को मनोवैज्ञानिक ढंग से समझाने के लिए मोदी ने आगे कहा ‘पहले से इस तरह की भावनाएं आ जाने से वे मन पर बोझ बन जाती हैं। जीवन को संकट में डाल देती हैं। दुखी कर देती हैं कि हाय, जो सोचा था वह नहीं हो पाया। किंतु सपने जरूर देखें, लेकिन जीवन के आनंद को नहीं खोएं। कुछ बन गए तो बन गए, नहीं बने तो नहीं बने। प्रधानमंत्री के इस उत्तर में जीवन के रहस्य का बड़ा दर्शन छिपा है। दरअसल वह सबसे ज्यादा दूर जाएगा, जिसे मालूम नहीं कि वह कहां जा रहा है। जिन लोगों ने लक्ष्य तय कर लिए हैं, पद तय कर लिए हैं, वे तो पहुंचे भी तो निर्धारित लक्ष्य तक ही पहुंचेंगे। लेकिन जो भटक रहे हैं अनंत के रहस्यों को खगाल रहे हैं वे ऐसी दुर्लभ उपलब्धियां प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें हासिल करने की बात उन्होंने और समाज ने कभी सोची नहीं होती है। जीवन रहस्य का यही दर्शन ऐसा मायावी दर्शन है, जिसकी गुत्थियां एक सीघी रेखा में नहीं सुलझतीं। यदि वाकई मोदी ने किसी एक निश्चित पद तक पहुंचने की ठानी होती तो वे न तो गुजरात के मुख्यमंत्री बनते और न ही देश के प्रधानमंत्री बन पाते ? क्योंकि मुख्यमंत्री बनने के पहले तक उन्होंने विधानसभा का चुनाव भी नहीं लड़ा था। उन्हें तो अनायास गुजरात की जटिल हो र्गइं राजनीतिक परिस्थितियों के चलते अचानक मुख्यमंत्री शपथ लेने का निर्देश अटलबिहारी वाजपेयी ने किया था।

वाकई हमारे देश का बचपन मर रहा है। बच्चे पर पढ़ाने का मानसिक बोझ दो-ढाई साल की उम्र से ही खेल और नर्सरी स्कूलों के माध्यम से डाला जाने लगा है। संकीर्ण दायरे में बांध दिए गए ऐसे बच्चे दिन-प्रतिदिन अंतर्मुखी व संकोची होते जाते हैं और एक समय वे ऐसे किताबी-कीड़े हो जाते हैं कि समाज से संवाद भी उन्हें अरूचिकर लगने लगता है। ऐसे बच्चे यदि निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने में पिछड़ जाते हैं तो आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं। मौजूदा समय में चहूंओर से किशोर-किशोरियों के आत्महत्या के समाचार लगातार आ रहे हैं। तय है, बचपन नासमझी में और किशोर-युवा समझदारी कि चिंता में मर रहे हैं। इन्हें मरने से तभी बचाया जा सकता है, जब उन्मुक्त शरारतों के बीच रचनात्म्क ढंग से बचपन गुजारने के अवसर हासिल कराए जाएं। वैसे भी बच्चों में कुछ नैसर्गिक योग्यताएं कुदरती होती हैं और यदि इन योग्यताओं को खिलने व फलने-फूलने के लिए खुला छोड़ दिया जाए तो इनमें जो जन्मजात जुनून होता है, वह कुदरती योग्यता को उभारने का काम करता है। नेता, लेखक, कलाकार, खिलाड़ी और वैज्ञानिक इसी जुनून के चलते अपनी उपलब्धियां हासिल कर पाते हैं। हमारे ज्यादातर वर्तमान फिल्म व टीवी कलाकार और क्रिकेट खिलाड़ी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं। महिला खिलाड़ी मैरीकाॅम ने तो दो बच्चों की मां होने के बावजूद बाॅक्सीग जैसे मर्दाना खेल में विश्व प्रसिद्धि प्राप्त कर भारत का गौरव बढ़ाया। स्मृति ईरानी बिना किसी उच्च शिक्षा के मानव संसाधन विकास मंत्री बना दी गईं। क्योंकि वे अभिनय कला में परांगत होने के साथ अपने राजनीतिक दल के प्रति समर्पित रहीं।

दरअसल परीक्षा के प्राप्तांकों से व्यक्ति के बौद्धिक स्तर को आंकने की प्रणाली ही गलत है। जो छात्र साहसी होते हैं और अपनी बुद्धि का किताबी ज्ञान से इतर क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन करते हैं, वे भी बुद्धिमान होते हैं। समाज और देश के लिए उनकी देनें अधिकतम अंक पाने वाले बौद्धिकों से कहीं ज्यादा होती हैं। अन्ना हजारे कम पढ़े-लिखे और साधारण बौद्धिक स्तर के व्यक्ति हैं। वे किसी भाषाई ज्ञान में भी दक्ष नहीं हैं। बावजूद उन्होंने अपनी अनशनकारी ढृढ़ता के चलते भ्रष्टाचार के विरूद्ध पूरे देश को आंदोलित कर दिया था। संप्रग सरकार ध्वस्त करने की पृष्ठभूमी अन्ना ने ही रची थी। हमारे पास इसी कालखण्ड का दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण बाबा रामदेव हैं, जिन्होंने आयुर्वेद और योग चिकित्सा को नए सिरे से परिभाषित करके न केवल ऐलोपैथी चिकित्सा को चुनौती दी हुई है, बल्कि बहुराष्ट्रिय कंपनियों के बरक्ष पूरी एक स्वदेशी उत्पादनों की कंपनी खड़ी कर दी। रामदेव ने कोई अकादमिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है लेकिन उनकी उपलब्धियां जताती हैं, यदि आप में काम करने के प्रति संकल्प-शक्ति है तो आपको खासतौर से व्यावसायिक क्षेत्र में किसी उच्च व प्रबंधकीय शिक्षा की जरुरत नहीं है। वैसे भी हम जिन्हें बेजोड़ व उत्कृष्ट इंजीनियर मानते हैं, उनमें से तो ज्यातार अमेरिका और अन्य योरोपीय देशों के विकास में योगदान दे रहे हैं। जबकि उनकी दिमागी योग्यता तैयार करने में निवेश भारतीय पूंजी का हुआ है। इनकी योग्यता निखारने में हमारे शिक्षा मनीशियों ने अपनी मेघा खपाई।

दरअसल हमारी समूची मौजूदा शिक्षा व्यवस्था व्यक्तिगत सुविधा संपन्न ऐसे अधिकारी-कर्मचारी बनाने का काम कर रही है, जिनकी सुविधाएं गरीब व वंचित समाज के संसाधनों के दोहन व शोषण पर टिकी हैं। इसे भ्रष्टाचार और निर्मम बना रहा है। तय है, हमारे सरकारी और निजी संस्थागत ढांचों से मानवीयता लगभग गायब है, क्योंकि हम शिक्षा का मानवीयकरण करने और समान शिक्षा के उपायों में असफल रहे हैं। नरेंन्द्र मोदी यदि मानवीय और समान शिक्षा देश के बच्चों को देने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें एक बालक द्वारा पूछे इस प्रश्न के उत्तर पर गौर करने की जरुरत है कि अगर वे अध्यापक होते तो कैसे होते ? जबाव में मोदी ने कहा था, कि शिक्षक का काम विद्यार्थी की खूबियां परखकर उन्हें तराशकर उनकी योग्यता के अनुसार अच्छा नागरिक बनाना है। इसी कम्र में उन्होंने कहा, जो लोग एक साल में परिणाम का सोचते हैं, वे अनाज बोते हैं जो दस साल का सोचते हैं, वे फल वाले वृक्षों के बीज बोते हैं। और जो पीढि़यांे के निर्माण की सोचते हैं वे इंसान बोते हैं। आज देश में इंसान और इंसानियत की कमी लगातार बढ़ रही है। क्योंकि छात्रों को सामुदायिकता से काटकर पढ़ाई के एकांगी सरोकारों से जोड़ दिया गया है। इन सरोकारों को जब तक समाज के सामूहिक सरोकारों से नहीं जोड़ा जाएगा, इंसान पैदा नहीं होंगे। इंसानियत की पृष्ठभूमि में जरुरी है बचपन शरारतों से जुड़े। शरारतें बचपन को हंसमुख बनाकर फूल सा खिलाने का काम करती हैं। बालक कृष्ण इन्हीं शरारतों से भगवान कृष्ण बने थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पाठ का सबक और संदेश भी यही है।

 

प्रमोद भार्गव

 

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