ये लोकसभा तो अपराधियों और करोड़पतियों की है – हिमांशु शेखर

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criminal-in-politicsलोकसभा चुनाव 2009 के नतीजों की व्याख्या अलग-अलग तरह से की जा रही है। हर तरफ यह बात कही जा रही है कि यह चुनाव राष्ट्रिय दलों के दौर की वापसी वाला रहा। क्षेत्रीय दलों की हालत खराब हो गई। इस बात में बहुत ज्यादा दम हो या नहीं लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि कई मामले में यह चुनाव ऐतिहासिक रहा। सही विकल्प के अभाव में हुए इस चुनाव में जो लोग जीत कर आए हैं उन पर अगर एक निगाह डाली जाए तो साफ तौर पर नई लोकसभा की भयावह तस्वीर उभरती है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले इतने सांसद कभी लोकसभा नहीं पहुंचे थे जितनी इस दफा पहुंचे हैं। वहीं इस बार जितना करोड़पति भी कभी संसद तक नहीं पहुंचे थे। कुल मिला जुला कर कहा जा सकता है कि पंद्रहवीं लोकसभा अपराधियों और करोड़पतियों की है। बजाहिर, जब इनकी संख्या ज्यादा होगी तो इनका दबदबा भी रहेगा और उसी हिसाब से इनके स्वार्थ साधने वाली नीतियों का निर्धारण भी कहा जाएगा।दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाले भारत के सबसे बड़े पंचायत यानी लोकसभा में इस बार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या डेढ़ सौ है। यह जानकारी कई नागरिक संगठनों को साथ लेकर नेशनल इलेक्शन वाच ने सांसदों के हलफनामों का अध्ययन करके दी है। मुख्यधारा की मीडिया और प्रमुख सियासी दलों की तरफ से यह बात प्रचारित की जा रही है कि इस बार के चुनावों में अपराधियों को मुंह की खानी पड़ी। जबकि तथ्य इससे काफी अलग है। 2004 के चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 128 लोग सांसद चुने गए थे और इस बार यह संख्या 150 है। इस तरह से देखा जाए तो इस मामले में 17.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। सही स्थिति का अंदाज इन तथ्यों से लगाया जा सकता है।

अपराधियों का भारतीय राजनीति पर बढ़ता दबदबा यहीं नहीं थमता बल्कि इस बार वैसे लोग भी बड़ी तादाद में निर्वाचित हुए हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस लोकसभा में 72 वैसे सांसद बैठेंगे जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जबकि पिछली लोकसभा में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 55 थी। यानी इस मामले में तकरीबन 31 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। दरअसल, इस चुनाव में हुआ यह है कि चर्चित आपराधिक चेहरों की हार हुई है और नए आपराधिक चेहरे उभरकर सामने आए हैं। कई अपराधियों को तो सजा सुनाए जाने की वजह से चुनाव लड़ने से ही रोक दिया गया था। बिहार में ऐसे सांसदों ने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाया। पर उनका यह फार्मूला भी नहीं चला और परोक्ष तौर पर ही सही सियासी ताकत हथियाने की उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई। सूरजभान से लेकर शहाबुद्दिन तक की पत्नी चुनाव हार गई। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की वजह से पहचान बनाने वाले सीवान की जबर्दस्त बदनामी शहाबुद्दिन की वजह से हुई। कहा जाता है कि सीवान में इस राजद नेता की तूती बोलती थी। पर इस बार तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी पत्नी वहां नहीं जीत पाईं और निर्दलीय उम्मीदवार ओम प्रकाश यादव ने बाजी मारी। उत्तर प्रदेश में भी मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद जैसे अपराधियों को मात खानी पड़ी। इस बार नए आपराधिक चेहरे सियासी सफर पर निकले हैं। इनमें सबसे आगे झारखंड के पलामु के सांसद कामेश्वर बैठा हैं। उनके खिलाफ 35 आपराधिक मामले दर्ज हैं। सबसे ज्यादा गंभीर आपराधिक मामले भी कामेश्वर बैठा के खिलाफ ही दर्ज हैं।

इस बार के चुनावी नतीजों ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि दलों के बीच का भेद मिट गया है और सभी सियासी दल एक ही तरह के हो गए हैं। दिखने के लिए भले ही इनकी नीतियों में कुछ फर्क हो लेकिन सभी प्रमुख दल चुनावी जीत के लिए किसी भी हद को पार करने में नहीं हिचकिचाते। दागी मंत्रियों के मसले पर पिछली लोकसभा का चलना मुष्किल कर दिया था भारतीय जनता पार्टी ने। इस बार भी कई जगहों पर भाजपाई राजनीति के अपराधिकरण का मसल सियासी लाभ के लिए उठाते रहे। पर सही मायने में कहा जाए तो इस मामले में भाजपा की कथनी और करनी में बहुत ज्यादा अंतर है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सबसे ज्यादा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों से सांसदी करनवाने का श्रेय खुद को पार्टी विद अ डिफरेंस यानी भारतीय जनता पार्टी को जाता है। मजबूत नेता और निर्णायक सरकार देने का दावा करने वाली इस पार्टी के कुल सांसदों में से 42 सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। यह भाजपा के कुल निर्वाचित सांसदों का 36 फीसदी है। वहीं 17 भाजपाई सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। भाजपा के सबसे ज्यादा सांसद भले ही नहीं हों लेकिन सबसे ज्यादा आपराधिक रिकार्ड वाले सांसद जरूर इसके पास हैं। चाल, चरित्र और चेहरा की बात करने वाली इस पार्टी के नीति निर्धारकों को इस मसले पर सोचना चाहिए और अपनी राय साफ करनी चाहिए कि यह उनकी पार्टी के लिए सफलता है असफलता?

मनमोहन सिंह की ईमानदारी और सोनिया-राहुल के करिश्माई व्यक्तित्व को अपनी चुनावी जीत का श्रेय देने वाली कांग्रेस भी अपराधियों को संसद पहुंचाने के मामले में पीछे नहीं है। बड़े दिनों बाद इस पार्टी ने दो सौ का आंकड़ा पार किया लेकिन उसमें से 41 सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यानी भाजपा से सिर्फ एक कम। बारह कांग्रेसी सांसद ऐसे भी हैं जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यानी कहा जा सकता है कि इस मामले में कांग्रेस और भाजपा में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। कांग्रेस भले ही मनमोहन, सोनिया और राहुल की बेदाग छवि को ही अपना चेहरा बताती हो लेकिन व्यवस्था का संचालन सिर्फ चेहरे से नहीं होता। जिस तरह से अपराधियों को कांग्रेस ने गले लगाया है उससे इन तीनों की ईमानदारी और बेदाग छवि पर भी संदेह होता है। अगर यह माना जाए कि सारे फैसले यही लोग करते हैं तो इन अपराधियों को टिकट देने के लिए भी इन्हें ही जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिए। कहा जा सकता है कि किसी भी कीमत पर चुनावी जीत दर्ज करने का लोभ कांग्रेस भी संवरण नहीं कर पाई।

अपराधिक रिकार्ड वाले सांसदों को दिल्ली भेजने के मामले में इन दोनों प्रमुख दलों के अलावा दूसरे दल भी पीछे नहीं है। समाजवादी पार्टी के 36 फीसदी सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं इस पार्टी के 32 फीसदी सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बहनजी की पार्टी की टिकट पर जीतने वाले सांसदों में 29 फीसद ऐसे हैं जिनका आपराधिक रिकार्ड रहा है और इनमें से सभी पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन दोनों दलों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति का भयानक अपराधिकरण किया है। जिस अपराधी को एक दल टिकट नहीं देता उसे दूसरा दल गले लगा लेता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ और इन दोनों दलों द्वारा आपराधिक रिकार्ड वाले लोगों को संरक्षण दिए जाने की वजह से सबसे ज्यादा ऐसे सांसद लोकसभा भेजने के मामले में उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर है।

बिहार में सुशासन की लहर पर सवार होकर चुनावी बेड़ा पार करने वाले नीतीश कुमार की पार्टी जद यू के कुल सांसदों में से 35 फीसदी ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज है। बिहार में सुशासन बाबू के तौर पर अपनी पहचान बनाने में लगे नीतीश कुमार यह कहते हुए नहीं अघाते कि उनकी पार्टी ने यह चुनाव विकास के नाम पर लड़ा है और इसी की बदौलत उन्हें जबर्दस्त सफलता मिली है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पंद्रह साल से जंगल राज झेल रहे बिहार में विकास को उन्होंने गति दी है। पर तथ्य बता रहे हैं कि नीतीश भी राजनीति के अपराधीकरण के मामले में नरम ही हैं। उनकी पार्टी की पंद्रह फीसदी सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं भाजपा को औकात बता कर उड़ीसा में सत्ता में वापसी करने वाले नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल के 29 फीसदी सांसदों का आपराधिक रिकार्ड रहा है। वहीं सीपीएम के बीस फीसदी सांसदों पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं।

सबसे ज्यादा आपराधिक मामलों वाले लोगों को सांसद के तौर पर निर्वाचित करने के मामले में उत्तर प्रदेश ने बाजी मारी है। वहां से ऐसे 30 सांसद निर्वाचित हुए हैं जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। वहीं अगर फीसदी के हिसाब से देखा जाए तो महाराष्ट्र पहले पायदान पर है और झारखंड दूसरे स्थान पर। महाराष्ट्र के कुल सांसदों में से 48 फीसदी ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं झारखंड के 43 फीसदी सांसद ऐसे हैं और बिहार के 42 फीसदी। इस मामले में उत्तर प्रदेश में आंकड़ा 38 फीसदी का है। गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों के मामले में 29 फीसदी के साथ गुजरात चोटी पर है। ये तथ्य इस बात की पुश्टि करते हैं कि राजनीति का अपराधिकरण किसी खास क्षेत्र में नहीं हो रहा है बल्कि यह देशव्यापी है। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार का नाम भले ही प्रमुखता से लिया जाता हो लेकिन महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की जीत ने इस बात को साबित कर दिया है कि यह रोग पूरे देश में बहुत तेजी से फैल रहा है।

बहरहाल, इस बार के चुनाव में बाहुबलियों के साथ-साथ धनपशुओं ने भी बड़ी संख्या में जीत दर्ज की है। इससे साफ है कि राजनीति में अब सामान्य लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। इस लोकसभा में 300 ऐसे सांसद हैं, जो करोड़पति हैं। पिछली लोकसभा में ऐसे सांसदों की संख्या 154 थी। इस तरह से देखा जाए तो करोड़पति सांसदों की संख्या में 95 फीसदी का इजाफा हुआ। वैसे इस बार चार सांसद घोषित अरबपति भी हैं। तथ्यों से यह बात साबित होती है कि लोकसभा में बहुमत करोड़पतियों का है। आम आदमी के नाम पर अपनी सियासत चमकाने वाले लोगों के हित और आम लोगों के हित में व्यापक फर्क है। इसलिए एक खतरनाक संकेत यह उभरकर सामने आ रहा है कि देश की नीतियां और अधिक अमीरपरस्त होंगी। अमीरों के स्वार्थ साधने वाली नीतियों को और गति दी जाएगी। बजाहिर, इन कामों को अंजाम देश के सामान्य तबके के हक और हित की बली चढ़ाकर ही दिया जाएगा।

ऐसा इसलिए भी लग रहा है क्योंकि अमीरों के दबदबे से मुख्यधारा का कोई भी सियासी दल बच नहीं पाया है। इसलिए अमीरपरस्त नीतियों के विरोध की उम्मीद भी किसी दल से नहीं की जा सकती है। दस सबसे धनी सांसदों में से आधे यानी पांच सांसद कांग्रेसी हैं। सबसे ज्यादा करोड़पति सांसद कांग्रेसी हैं। कांग्रेस के 138 सांसदों के पास एक करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है। यानी सत्ता का संचालन करने वाले ज्यादातर इंडिया की नुमाइंदगी करने वाले हैं ऐसे में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वे भारत की भलाई वाली नीतियों को अमली जामा पहनाएंगे। हालात की बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विपक्ष में भी अमीरों का ही दबदबा कायम हो गया है। भाजपा के 58 सांसद करोड़पति हैं। सपा 14 सांसदों के साथ तीसरे और बसपा 13 करोड़पति सांसदों के साथ चौथे पायदान पर है। वहीं अगर राज्यवार देखा जाए तो सबसे ज्यादा 52 करोड़पति सांसद उत्तर प्रदेश के हैं। वहीं 37 सांसदों के साथ महाराष्ट्र दूसरे, 31 सांसदों के साथ आंध्र प्रदेश तीसरे और 25 सांसदों के साथ कर्नाटक चौथे पायदान पर है। बिहार की माली हालत खराब जरूर है लेकिन करोड़पति सांसदों के मामले में यह राज्य तमिलनाडु के साथ पांचवे स्थान पर है। इन दोनों राज्यों के 17 सांसद करोड़पति हैं। बताते चलें कि सबसे अमीर सांसद आंध्र प्रदेश के खम्मम से निर्वाचित टीडीपी सांसद नमा नागेश्वर राव हैं। उनकी संपत्ति 173 करोड़ है। अब ऐसे में इस जनादेश के क्या मतलब निकाले जाएं? क्या इसे आम आदमी की राजनीतिक हैसियत का अंत माना जाए? कारपोरेट और अमीर तबके की खुशी के साथ-साथ शेयर बाजार की उछाल को देखकर तो ऐसा ही मालूम होता है।

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