परम पिता परमेश्वर की मुख्य शक्तियाँ

krishna
डा. राधेश्याम द्विवेदी
हम बचपन से भगवान और देव-देवियों की प्रार्थना करते आ रहे हैं, उनकी भक्ति करते आ रहे हैं और इसी तरह अलग-अलग तरीके से भगवान एवं धर्म से जुड़े हुए हैं। जब हम इस विशाल ब्रह्मांड को देखते हैं तब एक अद्भुत शक्ति का अनुभव करते हैं जो सभी को संतुलित रखती हैं । जब हम सुंदर प्रकृति को देखते हैं, तब इसकी प्रशंसा करते हैं और उसके साथ आत्मीयता का अनुभव करते हैं। फिर भी हम कुदरती आपदा, बीमारी, गरीबी, अत्यन्त दुःख, अन्याय और हिंसा से व्याकुल होते हैं। एक ओर हम देखते हैं कि किस तरह मनुष्यों ने विज्ञान और तकनिकी में तरक्की की है और दूसरी तरफ हम देखते हैं कि किस तरह ज़्यादा से ज़्यादा लोग तनाव, डिप्रेसन और चिंता से जूझ रहे हैं। आम लोग “अहं ब्रह्मास्मि” का मतलब यही समझते हैं कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’। लेकिन यह इसका असली अर्थ नहीं होता है, इस पृथ्वी पर कोई भी जीव ब्रह्म नहीं होता है और ना ही हो सकता है। ब्रह्म होने की वजह से इस पृथ्वी के सभी प्राणी को सर्व-संपन्न, अन्तर्यामी, सर्व-शक्तिमान होना चाहिए था। इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी नहीं है, जो सर्व-शक्तिमान, सर्वगुण संपन्न और अन्तर्यामी हो। हमारे प्राचीन वैष्णवाचार्यों ने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का मतलब कुछ इस तरह से बताया है – ‘मैं ब्रह्म का हूँ’, अर्थात मैं ब्रह्म का ही हिस्सा हूँ और मैं उनका सेवक मात्र हूँ, जो उनके आशीर्वाद से ही अपना जीवन बिता रहा हूँ। इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाला प्रत्येक इंसान ब्रह्म का हिस्सा होता है और उसकी मर्जी के बगैर वह कुछ भी नहीं कर सकता है।इसी तरह शिवोऽहम् का भी अर्थ होता है कि ‘मैं शिव हूँ’, लेकिन हर कोई शिव की तरह सर्व-शक्तिमान, अन्तर्यामी और क्रोधी नहीं हो सकता है और ना ही वो माता पार्वती के पति होने का दर्जा पा सकता है। शिव की तरह आदि और अनंत नहीं हो सकता है। इसलिए इसका यह मतलब समझना इंसानी भूल मात्र है। ब्रह्म व परमात्मा दोनों शब्द ‘भगवान’ शब्द के पर्यायवाची हैं। ‘शिव’ का मतलब ‘मंगलमय’ होता है। अतः ‘शिवोऽहम’ का पूरा मतलब होता है, ‘मैं मंगलमय भगवान का हूँ’। अर्थात मैं मंगलमय भगवान का सेवक हूँ और उन्ही का एक हिस्सा हूँ। मैं उनकी ही मर्जी से इस पृथ्वी पर आया हुआ हूँ। अगर हम श्रीमद् भागवत् महापुराण की बात करे तो ब्रह्म व परमात्मा दोनों शब्द ‘भगवान’ शब्द के पर्यायवाची शब्द हैं। इन दोनों का एक ही मतलब होता है।
जीव श्रीकृष्ण का अंश:- श्रीकृष्ण ने गीता के 15वें अध्याय में पृथ्वी के सभी जीवों को अपना अंश कहा है, मतलब जीव या प्राणी भगवान ना होकर कृष्ण का एक अंश मात्र हैं। गीता के सातवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने यह भी बताया है कि संसार के सभी जीव व प्राणी मेरी परा प्रकृति के अंश हैं। गीता के 18वें अध्याय में कृष्ण ने बहुत प्यार से अर्जुन को समझाते हुए कहा है कि संसार के सारे जीव व प्राणी हमेशा उनके दास रहेंगे। मेरी सेवा करना, मेरे लिए समर्पित हो जाना और मेरा भजन करना ही इस संसार के सभी जीव व प्राणी का सबसे बड़ा कर्तव्य है। इसी से उन्हें सर्व सुख की प्राप्ति होगी और उन्हें जीवन में किसी चीज की कमी नहीं होगी।
विश्व भगवान श्रीविष्णु की शक्ति से संचालित:-यह संपूर्ण विश्व भगवान श्रीविष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी। वे अपने चार हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं। जो भी किरीट और कुण्डलों से विभूषित, पीताम्बरधारी, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, सुंदर कमलों के समान नेत्र वाले भगवान श्रीविष्णु का ध्यान करता है वह भव बन्धन से मुक्त हो जाता है।भक्तिपूर्वक विष्णु की एक बार प्रदक्षिणा करने वाला व्यक्ति सारी पृथ्वी की परिक्रमा करने का फल प्राप्त करके बैकुण्ठ धाम में निवास करता है। जिसने कभी भक्ति भाव से भगवान लक्ष्मीपति को नमस्कार किया है, उसने अनायास ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप फल प्राप्त कर लिया। जो स्तोत्र और जप के द्वारा मधुसूदन की उनके समक्ष होकर स्तुति करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में पूजित होता है। जो भगवान के मंदिर में शंख, तुरही आदि बाजों के शब्द से युक्त गाना−बजाना और नाटक करता है, वह मनुष्य विष्णुधाम को प्राप्त होता है। विशेषतः पर्व के समय उक्त उत्सव करने से मनुष्य कामरूप होकर संपूर्ण कामनाओं को प्राप्त होता है।
श्रीविष्णु ही परमार्थ तत्व:-पद्मपुराण में वर्णन मिलता है कि भगवान श्रीविष्णु ही परमार्थ तत्व हैं। वे ही ब्रह्मा और शिव सहित सृष्टि के आदि कारण हैं। वे ही नारायण, वासुदेव, परमात्मा, अच्युत, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर तथा हिरण्यगर्भ आदि अनेक नामों से पुकारे जाते हैं। नर अर्थात् जीवों के समुदाय को नार कहते हैं। संपूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्रीविष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। कल्प के प्रारम्भ में एकमात्र सर्वव्यापी भगवान नारायण ही थे। वे ही संपूर्ण जगत की सृष्टि करके सबका पालन करते हैं और अंत में सबका संहार करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीविष्णु का नाम हरि है। मत्स्य, कूर्म, वाराह, वामन, हयग्रीव तथा श्रीराम−कृष्णादि भगवान श्रीविष्णु के ही अवतार हैं।
श्रीविष्णु अत्यंत दयालु भक्तवत्सल :-भगवान श्रीविष्णु अत्यंत दयालु हैं। वे अकारण ही जीवों पर करुणा वृष्टि करते हैं। उनकी शरण में जाने पर परम कल्याण हो जाता है। जो भक्त भगवान श्रीविष्णु के नामों का कीर्तन, स्मरण, उनका दर्शन, वंदन, गुणों का श्रवण और उनका पूजन करता है, उसके सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। यद्यपि भगवान श्रीविष्णु के अनन्त गुण हैं, तथापि उनमें भक्तवत्सलता का गुण सर्वोपरि है। चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से उनकी उपासना करते हैं, वे उनकी उस भावना को परिपूर्ण करते हैं। ध्रुव, प्रहलाद, अजामिल, द्रौपदी, गणिका आदि अनेक भक्तों का उनकी कृपा से उद्धार हुआ। भक्त वत्सल भगवान को भक्तों का कल्याण करने में यदि विलम्ब हो जाये तो भगवान उसे अपनी भूल मानते हैं और उसके लिए क्षमा याचना करते हैं।जो मनुष्य भगवान विष्णु के नामों का जप करता है, वह मंत्रजप आदि के फल का भागी होता है तथा तीर्थों में पूजन आदि के अक्षय पुण्य को प्राप्त करता है। विष्णु के नाम का जप करने वाले साधकों को भोग तथा मोक्ष प्राप्त होता है। प्रत्येक वटवृक्ष पर कुबेर का, प्रत्येक चौराहे पर शिव का, प्रत्येक पर्वत पर राम का तथा सर्वत्र मधुसूदन का स्मरण सबसे बड़ा कर्तव्य है । धरती और आकाश में नर का, वसिष्ठती में गरुडध्वज का तथा सर्वत्र भगवान वासुदेव का स्मरण करने वाला पुरुष भोग एवं मोक्ष का भागी होता है। भगवान विष्णु के इन नामों का जप करके मनुष्य सब कुछ पा सकता है। उपर्युक्त क्षेत्र में जो जप, श्राद्ध, दान और तर्पण किया जाता है, वह सब कोटि गुना हो जाता है। जिसकी वहां मृत्यु होती है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। विष्णु पुराण भगवान की अनंत शक्तियों के बारे में बताता है, इसके अनुसार भगवान की तीन मुख्य शक्तियाँ हैं-1.अंतरंगा शक्ति – इस शक्ति से भगवान के धाम और उनकी विभिन्न लीलाओं का संचालन होता है।2.क्षेत्रज्ञा शक्ति -इस शक्ति को तटस्थ शक्ति भी कहा जाता है, संसार के सभी जीव इसी शक्ति के विभिन्न अंश मात्र हैं।3.बहिरंगा शक्ति:-इसी शक्ति के द्वारा भगवान के इस संसार की रचना की है और इसी से संसार का संचालन भी किया जाता है। परम पिता परमेश्वर की ये विलक्षण शक्तियां इस सृष्टि के संचालन में सहयोग भी करती है और उनको नियंत्रण भी करती है और समय-समय पर स्वयं या अपने किसी माध्यम का उपयोग भी करती है।

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