फिर हाशिये पर जमीन और किसान

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हिमांशु शेखर

2006 के आखिरी दिनों में सिंगुर और 2007 में नंदीग्राम में किसानों का आंदोलन खड़ा करके पश्‍चिम बंगाल में तकरीबन तीन दशक से डटे वाम मोर्चा की सरकार को जब ममता बनर्जी ने बेहद सधे अंदाज में झकझोरा तो एक स्पष्ट सियासी संकेत उभरा कि जमीन और किसान वोट बटोरने के औजार भूमंडलीकरण के बाद विकसित व्यवस्‍था में भी बन सकते हैं. विपक्ष के नाम पर शून्यता की स्‍थिति से उठकर ममता ने वाम मोर्चा को पहले 2009 के लोक सभा चुनावों में पीटा और फिर 2011 में राज्य की सत्ता से भी बेदखल कर दिया. उन्हें इसमें सहयोग दिया कांग्रेस ने.

इसी कांग्रेस ने बड़ी चतुराई से जमीन और किसान के मुद्दे को उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति में स्‍थापित करने की कोशिश की. मौका मुफीद इसलिए था कि राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते कॉरपोरेट दबदबे के बीच कभी मुलायम सिंह को तो कभी मायावती को साध कर कई औद्योगिक घराने उत्तर प्रदेश में अपने साम्राज्य विस्तार में लगे थे. हालांकि, दादरी में जब अनिल अंबानी बिजली घर लगाने चले थे तो उस वक्त पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने किसानों को एकजुट करने की कोशिश जरूर की थी लेकिन वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े थे जहां उनके पास न तो सियासी समर्थन था और न ही कोई सांग‌ठनिक ढांचा. इसलिए लगा कि खेती-किसानी के मामले में अव्वल राज्यों में शुमार किए जाने वाले उत्‍तर प्रदेश की राजनीति में जमीन और किसान गुमनामी में खोता जा रहा है. याद रखना चाहिए कि वीपी सिंह किसानों के शोषण का मुद्दा उस वक्त उठा रहे थे जब खुद को ‘किसानों का नेता’ कहने वाले मुलायम सिंह यादव राज्य की सत्ता पर काबिज थे.

सबसे ज्यादा सांसदों को दिल्ली भेजने वाले इस प्रदेश की राजनीति में अपनी खोई जमीन वापस पाने की ताक में लगी कांग्रेस ने राहुल गांधी की अगुवाई में एक बार फिर यहां जमीन और किसान को मुद्दा बनाने की कोशिश की. शायद राहुल की जेहन में ममता की कामयाबी रही हो. बुंदेलखंड के बदहाल किसानों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करवाने से लेकर पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से अधिग्रहण के नाम पर जबरन छीनी जा रही जमीन के खिलाफ हल्ला बोलने का काम कांग्रेस ने किया. इसने सियासी दांव-पेच में माहिर मायावती को भी इस बात के लिए मजबूर किया कि वे किसानों से संबंधित मसलों पर मुखर पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कई सरकारी योजनाओं की घोषणा करें.

भट्टा-पारसोल से किसान संदेश यात्रा लेकर बीते 9 जुलाई को अलीगढ़ पहुंचे राहुल गांधी ने अपनी उस रैली में कहा, ‘विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश में लाखों किसानों की जमीन ली जा रही है गोल्फ क्लब और रेसिंग क्लब बनाने के लिए. जमीन बिल्डर्स को दी जा रही है. दिल्ली में जमीन ली जाती है तो बेचने वाले को उसके मन के हिसाब से पैसे मिलते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी मांग करने वाले किसानों पर गोली चलाई जाती है. हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपको एक ऐसा कानून दें जिससे किसानों और मजदूरों को फायदा हो.’ महापंचायत के नाम पर हुई इस रैली में राहुल गांधी तकरीबन 25 मिनट बोले और उनका पूरा भाषण जमीन अधिग्रहण के आसपास ही घूमता रहा. संकेत साफ था कि प्रदेश में कांग्रेस की डूबी सियासी नैया में उम्मीद का संचार करने के लिए जमीन अधिग्रहण का मसला टॉनिक का काम करने वाला है. इस रैली के तीन दिन बाद गांधी परिवार के चहेते माने जाने वाले जयराम रमेश को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री बना दिया गया. रमेश ने भी सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून का मसौदा 55 दिनों में तैयार करके संसद में पेश कर दिया.

लेकिन सियासी अजूबों वाले इस सूबे की राजनीति में एक बार फिर अपना रंग दिखाया और विधानसभा चुनावों से पहले इस कानून को पारित करवाकर सियासी लाभ लेने की कांग्रेसी कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई. मसौदा जिस स्‍थायी संसदीय समिति के पास पहुंचा उसकी अगुवाई भाजपा की सुमित्रा महाजन कर रही हैं और इसमें मौजूद बसपा सांसदों ने भी विधेयक को लटकाए रखने को कोई कोशिश नहीं छोड़ी ताकि कांग्रेस इसका चुनावी लाभ न ले सके. विधेयक पारित नहीं हो पाया. इसके कुछ ही हफ्ते पहले मायावती ने भी राज्य की नई जमीन अधिग्रहण नीति की घोषणा की थी. इसलिए भी बसपा नहीं चाहती थी कि कांग्रेस वाली नीति पारित हो पाए.

चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही जमीन और किसान के मुद्दे पर चोट खाई कांग्रेस एक बार फिर जाति और संप्रदाय की राजनीति के उसी मैदान में वापस आ गई है जिससे जय जवान-जय किसान का नारा उछालने वाले प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री के राज्य के किसान एक बार फिर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. किसानों के बिल्कुल अपने नेता माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह किसानों की बदहाली से ज्यादा इस बात पर चिंतित रहते हैं कि कैसे जोड़-तोड़ करके उन्हें सत्ता सुख मिलता रहे. लेकिन फिर भी किसानों के नाम पर वे प्रासंगिक बने रहते हैं. जमीन और किसान का मुद्दा कई बार सूबे में अहम दिखता है और राज्य का हर राजनीतिक खिलाड़ी किसानों के हमदर्द होने का ढोंग भी रचता है लेकिन चुनाव आते ही ये मुद्दे पीछे छूटते दिखते हैं और जात-जमात की राजनीति हावी हो जाती है.

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