अब और गहराएगा राम मंदिर का मुद्दा

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अयोध्या स्थित विवादित ढांचा विध्वंस मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और विनय कटियार समेत 13 नेताओं पर फिर से आपराधिक षड़यंत्र रचने का मामला चलेगा। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पीसी घोष और आरएफ नरिमन की पीठ ने उक्त फैसला सुना दिया है। इन 13 में से तीन आरोपियों की मृत्यु हो चुकी है। इसलिए मुकदमा 10 के खिलाफ ही चलेगा। इनमें से भी एक उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह वर्तमान में राजस्थान के राज्यपाल हैं, इसलिए जब तक वे पद मुक्त नहीं हो जाते मुकदमा नहीं चल सकता है। इस मामले की अब खास बात यह होगी कि यह पूरा मामला लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय में चलेगा और दो साल के भीतर निराकरण करना होगा। सुनवाई रोजाना होगी, स्थंनग्न की अनुमति नहीं होगी और रायबरेली में मामले की जहां तक सुनवाई हो चुकी है, वहीं से अगली सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि सुनवाई कर रहे किसी भी न्यायाधीष का तबादला नहीं होगा। साथ ही सीबीआई को भी हिदायत दी है कि वह प्रत्येक दिन एक गवाही की पेशी सुनिश्चित करे। अदालत के इस फैसले ने तय किया है कि देश में कानून का राज कायम है और भीड़ यदि कानून अपने हाथ में लेगी तो उसे परिणाम भुगतने होंगे।
इस मामले में भाजपा एवं विहिप नेताओं से अपराधिक साजिश रचने के आरोप हटाए जाने के खिलाफ वी हाजी महबूब अहमद व सीबीआई ने याचिका दाखिल की थी। दरअसल इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 20 मई 2010 को दिए आदेश में धारा-120-बी हटा दी थी। हाईकोर्ट ने विशेष अदालत के फैसले की पुष्टि करते हुए आपराधिक साजिश की इस धारा को हटाया था। लिहाजा इस आधार पर इन नेताओं को हाईकोर्ट से राहत मिल गई थी। वैसे यह मामला आपराधिक षड़यंत्र से कहीं ज्यादा, भीड़ में उभरे धार्मिक जुनून का है। विवादित ढांचा जब ढहाया गया था तब भीड़ जिस तरह से अनियंत्रित होकर ढांचे पर टूट पड़ी थी, उस दौरान गोपनीय तरीके से षड़यंत्र रचने की कहीं कोई स्थिति ही नहीं बची थी। अतः हाईकोर्ट ने जो फैसला दिया था, वह बेहद तार्किक ढंग से लिया गया फैसला था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दुबारा इस मामले को न्यायिक प्रक्रिया में लिया है, तो इससे जाहिर होता है कि अदालत संवैधानिक मूल्यों के प्रति गंभीर है। 6 दिसंबर 1992 को ढांचा विध्वंस के बाद दो एफआईआर दर्ज की गई थीं। इनमें से एक उन अज्ञात कारसेवकों के विरुद्ध थी, जिन्होंने विवादित ढ़ाचे को धराशायी किया था और दूसरी उत्तेजक व सांप्रदायिक भाषण देने और विद्वेश फैलाने के आरोप में भाजपा, शिवसेना और विश्व हिंदु परिषद् के नेताओं के खिलाफ थी। इन्हीं नेताओं में आडवाणी, जोशी, उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे नेता साजिशकर्ता बताए गए है।
अयोध्या विवाद देश के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच लंबे समय से तनाव का कारण बना हुआ है। इस मुद्दे ने देश की राजनीति को भी प्रभावित किया हुआ है। विश्व हिंदू परिषद् अयोध्या में उस विवादित स्थल पर मंदिर बनाना चाहती है, जहां पहले एक कथित रूप से मस्जिद थी। जबकि मुस्लिमों का पक्ष है कि यहां मंदिर होने के कोई साक्ष्य नहीं हैं। यह स्थान 1528 से मस्जिद है और 6 दिसंबर 1992 तक इसका उपयोग मस्जिद के रूप में होता आया है। हालांकि पुरातत्वीय साक्ष्यों और लोक सहित्य से यह प्रमाणित होता है कि 1528 में एक ऐसे स्थल पर हिंदुओं को अपमानित करने की दृष्टि से र्मिस्जद का निर्माण कराया गया, जहां भगवान राम की जन्मस्थली थी। 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी। इस कारण इसे बावरी मस्जिद कहा जाता है। 1853 में पहली बार इस स्थल को लेकर हिंदू और मुस्लिम समुदायों में सांप्रदायिक झड़प हुई। 1859 में चालाकी बरतते हुए ब्रिटिश शासकों ने विवादित स्थल पर रोक लगा दी और विवादित परिसर क्षेत्र में दो हिस्से करके हिंदुओं और मुस्लिमों को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
आजादी के बाद 1949 में मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां पाई गई। एकाएक इन मूर्तियों के प्रकट होने पर मुस्लिमों ने विरोध जताया। दोनों पक्षों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। नतीजतन सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित कर ताला डाल दिया और दोनों संप्रदाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी। 1984 में विहिप ने भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त करके वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस अभियान का नेतृत्व भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाला। 1986 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी तब फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर ने हिंदुओं को पूजा के लिए विवादित ढांचे के ताले खोल दिए। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिमों ने बावरी मस्सिद संघर्ष समिति बना ली। 1989 में राम मंदिर निर्माण के लिए विहिप ने अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक मंदिर की नींव रख दी। 1990 में विहिप के कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को क्षति पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन तबके प्रधानमंत्री चंद्रषेखर ने बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश की, किंतु कोई हल नहीं निकला। अततः 1992 में भाजपा, विहिप और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को ढहा दिया। इस समय केंद्र में कांग्रेस के पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे।
इसके बाद लंबा अरसा गुजर गया। ढांचा ध्वस्त करने के आरोप करीब दो सैंकड़ा लोगों पर लगे। किंतु मई 2003 में सीबीआई ने लालकृष्ण आडवाणी सहित अन्य 8 लोगों के खिलाफ पूरक आरोप पत्र पेश किया। किंतु सीबीआई की विशेष अदालत ने आडवाणी को बरी कर दिया। तत्पश्चात 6 जुलाई 2005 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ढांचा गिराए जाने के दौरान भड़काऊ भाषण देने के मामले में आडवाणी को शामिल करने का आदेश दिया। इसके बाद तकनीकि खमियों के चलते आडवाणी समेत भाजपा के 13 नेताओं के नाम मामले से विलोपित कर दिए गए। अब फिर अदालत ने इन लोगों को साजिशकर्ता ठहराया है। साफ है, आरोपी बनाने और फिर आरोप मुक्त करने की प्रक्रिया लंबी चली है। 27 साल में आरोपी सुनिश्चित न होना भी एक कानूनी विडंबना साबित हो रही है। अब शायद सुप्रीम कोर्ट ने यह सोचते हुए मामले को नए सिरे से चलाने की अनुमति दी है, जिससे संवैधानिक मूल्यों की सुरक्षा हो और भविष्य में किसी भी संप्रदाय की उत्तेजित भीड़ अपने तरीके से विवादित मुद्दों का निराकरण न करे। अन्यथा देश में अराजकता फैल जाएगी।
हालांकि इस मामले को सुनवाई द्वारा होने से यह आशंका भी है कि कहीं व्यावहारिक राजनीतिक परिणाम देश के सांप्रदायिक सद्भाव के विरुद्ध नहीं चले जाएं। इस कार्यवाही से मुस्लिम समाज राहत अनुभव कर सकता है, लेकिन प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू समाज अहात ही हुआ अनुभव करेगा ? इसके राजनैतिक परिणाम भी नए रूपों में निकलेंगे। तत्कालिक परिणाम यह सामने आ रहा है कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी कि राष्ट्रपति पद के लिए नैतिक दावेदारी हाशिए पर चली जाएगी। क्योंकि मुकदमे का परिणाम दो वर्ष के भीतर आएगा और राष्ट्रपति चुनाव दो माह बाद जुलाई 2017 में होना है। हालांकि उनके पैरोकार यह दावा कर सकते है कि कोई भी आरोपी कानून के सामने तब तक निद्र्रोश है, जब तक कि वह अदालत द्वारा दोषी न ठहराया दिया जाए। गोया दो साल तक तो वे निर्दोशी बने रह सकते है। लेकिन इस तथ्य का विरोधाभासी पहलू यह भी है कि यदि आडवाणी राष्ट्रपति बन जाते है तो वे संवैधानिक पद के अधिकारी हो जाएंगे और इस पद पर बैठे व्यक्ति पर देश की कोई भी अदालत मुकादमा नहीं चला सकती है। कल्याण सिंह भी राज्यपाल पद की ओट में बचे रहेंगे। हालांकि नैतिकता का तकाजा यह है कि आडवाणी स्वयं दावेदारी से पीछे हट जाएं और कल्याण सिंह राज्यपाल के पद से त्याग-पत्र दे दे ? वैसे भी इन पदों की संवैधानिक गरिमा है और आरोपों के दायरे में बने रहते हुए इन पदों पर बैठना लोकतांत्रिक मर्यादा कि अवहेलना है। दूसरी तरफ यह मामला तूल पकड़ता है तो हिंदुत्व की राजनीति करने वाले प्रौधाओं को बल मिलेगा और हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होगा। जिसका फायदा भाजपा को 2019 में होने वाले आम चुनाव में मिल सकता है। शायद इसी मंशा से उमा भारती ने कहा भी है कि ‘सब खुल्लम-खुल्ला हुआ है। ढांचा विध्वंस में षड़यंत्र जैसी कोई बात है ही नहीं‘। राम मंदिर के लिए विनय कटियार ने भी जेल जाने को तैयार है। साफ है, हिंदुत्ववादी इन भावनाओं ने टूल पकड़ा तो कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की स्थिति सांप-छंछुदर सी होने वाली है।

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