पंचायत जगाने निकले कुछ कदमों का संदेश

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-अरुण तिवारी-

panchayat

इलाहाबाद से वाराणसी जाते समय सड़क किनारे एक जगह है – राजा के तालाब। बीते तीन अप्रैल को राजा के तालाब से एक यात्रा चली – तीसरी सरकार संवाद एवम् सम्पर्क यात्रा। राजतंत्र में राजा, पहली सत्ता होता है, प्रजा अंतिम। लोकतंत्र में संसद तीसरी सरकार होती है, विधानसभा दूसरी और ग्रामसभा पहली सरकार। इसलिए मैं पंचायती राज की ताकत बताने निकली यात्रा को तीसरी सरकार संवाद एवम् सम्पर्क यात्रा के नामकरण से सहमत नहीं हूं; क्योंकि यह नाम, जनता को सत्ता के केन्द्र में रखने के पंचायतीराज के मूल बुनियादी मंतव्य से दो पायदान पीछे ढकेल देता है। पंचायतीराज को तीसरी सरकार कहना, सत्ता के पिरामिड को उलटा रख देना है। फिर सत्ता नीचे से कहां चली ? सारा झगड़ा तो सत्ता का ऊपर एक संसद में केन्द्रित होने के कारण ही तो है। पंचायतीराज का मकसद, सत्ता को विकेन्द्रित कर 60 हजार ग्रामसभाओं के हाथ में दे देना ही तो था। किंतु इस यात्रा के सूत्रधार डॉ. चन्द्रशेखर प्राण के मंतव्य से मेरी सहमति है। इसीलिए यह लेख लिख रहा हूं।

डॉ. चन्द्रशेखर प्राण, यूं तो भारत सरकार में नेहरु युवा केन्द्र के क्षेत्रीय समन्वयक, लखनऊ से लेकर कार्यक्रम निदेशक तक के भिन्न पदों पर कार्य करने के बाद अब सेवानिवृत हो चुके हैं। किंतु पंचायतों पर किए उनके शोध ने उन्हें ऐसा पकड़ा कि वह उससे आज तक मुक्त नहीं हो सके हैं। वह पंचायत की भूमिका, पंचायती राज के वर्तमान संवैधानिक ढांचे के साथ-साथ उन मूल्यों और दायित्वों में देखते हैं, जिनके साथ कभी भारत की परम्परागत पंचायतें चला करती थीं। नये शहरों का सपना साकार करने से पहले जरूरी है कि अच्छे दिन के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार गांव समाज की मूल चेतना और गांवों के बुनियादी लोकतांत्रिक संस्थानों के बारे में संजीदा व सक्रिय हो।

पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता, चुनौतियां व अनुभवों का आकलन इस दिशा में पहला कदम हो सकता है और सांसदों द्वारा चुने आदर्श गांवों में ग्रामसभा की सक्रियता और पंचायत की ईमानदारी दूसरा।

 

आकलन व शुचिता जरूरी

सच है कि पंचायतीराज का सपना, पंचायतों को महज् सरकारी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी बनाकर रखने का नहीं था। दुर्योग से आज पंचायतें यही होकर रह गई हैं। पंचायतीराज को संवैधानिक मान्यता के तीन दशक से अधिक वक्त बीत जाने के बाद यह जांच जरूरी है कि पंचायतीराज का सपना कितना पूरा हुआ और कितना अभी अधूरा है और क्यों ? इसके लिए पंचायतीराज की कार्यकुशलता की जांच जरूरी है। संबंधित चुनौतियां और सीख पर गहन मंथन जरूरी है। कार्यकुशलता के समक्ष पेश चुनौतियों की समझ और समाधान जरूरी है।

यह काम वैचारिक मंथन के साथ-साथ जमीनी कार्रवाई की मांग भी करता है। जरूरी है कि अच्छे और सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं को जिला पंचायत से लेकर, ग्राम पंचायत, पंच, प्रधान और ग्रामसभा की भूमिका निभाने के लिए तैयार व प्रशिक्षित किया जाय। संबंधित वर्ग व संस्थानों को वस्तुस्थिति का एहसास कराया जाये। खासकर ग्रामसभाओं को उनकी दायित्व पूर्ति के लिए प्रेरित करने का प्रयास हो। बहुत संभव है कि ’तीसरी सरकार संवाद एवम् सम्पर्क यात्रा’ और इस लेख में आगे सुझाये कुछ कदम मददगार सिद्ध हों। आइये, समझें कि क्या हैं मूल विचार, पैमाने, व्यवहार, चुनौतियां और सीख।

 

मूल विचार

64वें संविधान संशोधन का मूल मंतव्य था – सत्ता का विकेन्द्रीकरण। जहां इस मंतव्य की पूर्ति हेतु पंचायतीराज संस्थानों को अनेक अधिकार सौंपे गये हैं, वहीं पंचपरमेश्वर की ऐतिहासिक भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए पंचायतीराज संस्थानों का यह कर्तव्य भी निर्धारित है कि ये गांवों के जीवन व हकदारी का संरक्षण करेंगे। डॉ. चन्द्रशेखर प्राण की नई पुस्तक ’तीसरी सरकार’ मानती है कि यदि ग्रामसभा की भूमिका ’तीसरी सरकार’ की है, तो ग्राम पंचायतों की भूमिका मंत्रिमंडल की। भारत की 75 प्रतिशत आबादी की किस्मत तय करना.. देश की किस्मत तय करने जैसा है। यह तय करने का दायित्व बहुत कुछ ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थानों पर आकर टिक गया है। योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ने इस भूमिका को जटिल, किंतु और महत्वपूर्ण बना दिया है।

जांच के बिंदु पंचायतीराज संस्थान व ग्रामसभा की असल भूमिका क्या है ? क्या ग्रामसभा सदस्य के रूप में प्रत्येक ग्रामीण यह महसूस कर पाया कि पंचायतीराज संस्थाओं में उसकी एक जिम्मेदार भूमिका है ? पंचायतों को क्रियान्वयन एजेंसी में रूप में तब्दील कर देने का नफा-नुकसान क्या हैं ? क्या इस भूमिका ने पंचायतों की नैतिक शक्ति कम की है ? क्या ये अपनी भूमिका के कुशल निर्वाहन में सफल हुए ? कार्यकुशलता का पैमाना क्या हो ? पंचायत प्रतिनिधि की भूमिका में क्या ग्राम समाज के वे जन आ सके, जिन्हें आना चाहिए ? नहीं तो अवरोध क्या हैं ? आरक्षण की कार्यकुशलता पर प्रभाव क्या है ? नई पंचायतीराज व्यवस्था लागू होने से अब तक के 18 वर्षीय अनुभव क्या कहते हैं ? कार्यकुशलता की जांच के लिए इन प्रश्नों के उत्तर जरूरी हैं। भिन्न राज्यों के पंचायतीराज कानूनों, क्रियान्वयन मॉडल और उनके प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन इसमें मददगार हो सकता है। पेश चुनौतियों से यह समझा जा सकता है

 

पेश चुनौतियां

कार्यकुशलता के समक्ष पेश बुनियादी और सबसे पहली चुनौती यह है कि हमारी ग्रामसभाओं को अपने अस्तित्व, शक्ति और जिम्मेदारी का ठीक से पता ही नहीं है। इसीलिए ग्रामसभायें, पंचायतीराज संस्थानों के प्रति अपनी भूमिका को लेकर उदासीन व निष्क्रिय हैं। ऐसे में पंचायत और ग्रामसभा के बीच तालमेल का अभाव होना स्वाभाविक है। परिणामस्वरूप तमाम कानूनों व प्रावधानों के बावजूद पंचायतीराज संस्थानों की कार्यप्रणाली पर ग्रामसभाओं का नियंत्रण नगण्य है। पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता, संगठन आधारित होने की बजाय, प्रधान यानी एक व्यक्ति की ईमानदारी व कार्यकुशलता पर आकर टिक गई है। पंचायतीराज संस्थान में असल लोकप्रतिनिधि का प्रवेश स्वयंमेव एक चुनौती बन गया है। पंचायत प्रतिनिधि, पंचायतीराज अधिनियम के असल सपने से दूर हैं। पंचायती चुनावों में राजनीतिक दलों की घुसपैठ अपने आप में एक बङी चुनौती है।

चुनावों के कारण गांवों में सद्भाव में कमी आई है और गुटबाजी बढी है। इस कारण भी कार्यकुशलता प्रभावित हुई है। कहना न होगा कि योजना क्रियान्वयन व क्षमता विकास संबंधी कार्यक्रम का औपचारिक होकर रह गये हैं।

 

अनुभव की सीख

मूल समस्या ग्रामसभा सदस्यों के बीच एकजुटता व जागरूकता की कमी तथा उदासीनता है। अतः ग्रामसभाओं को उनके अस्तित्व को एहसास कराना जरूरी है। यह एहसास भी जरूरी है कि यदि अपने अधिकार व कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन करें, तो वे अपनी और देश की किस्मत बेहतर करने में कितना बड़ा योगदान कर सकते हैं। ग्रामसभा की सक्रियता बनाये रखने वाले प्रयासों में सातत्य के लिए यह एहसास जरूरी है। ग्रामसभा बैठकों का ईमानदार व सतत् संचालन सुनिश्चित बगैर यह संभव नहीं। मगर, यह हो कैसे ? मूल प्रश्न यही है।

’तीसरी सरकार संवाद एवम् सम्पर्क यात्रा’ यही एहसास जगाने निकली है। यह यात्रा कोई बड़ी भीड़ बटोरने नहीं निकली। एक उद्देश्य उक्त प्रश्न के उत्तर की तलाश भी है। चार चरण में उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में पहुंचने की मंशा लिए निकली इस यात्रा में स्थाई यात्री सिर्फ पांच ही होंगे। रहन-सहन और सभायें सादी होंगी और खर्च कम से कम। खर्च का इंतजाम आपसी सहयोग से किया जायेगा। यह पंचायतीराज अनुभव की सीख भी है और गांधी जी की चेतावनी भी – ’’शुचिता लक्ष्य हो, तो साधन की शुचिता भी जरूरी है।’’

 

कुछ सुझाव

ग्राम योजना का निर्माण, संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, ग्रामहाट का महत्व व संचालन, योजनाओं के प्रत्येक पहलू की जानकारी, योजनाओं की जननिगरानी, सोशल ऑडिट और चुनाव में विवेकपूर्ण सहभागिता आदि हेतु क्षमता विकास जैसे कार्य भी पर्याप्त सक्रियता और सातत्य की मांग करते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि योजनाओं के अनुसार बजट आवंटन करने की बजाय ग्रामसभा द्वारा बनाई ग्रामयोजना, तय बजट व क्रियान्वयन अवधि के अनुसार बजट आवंटित हो। हर छमाही में प्राप्त बजट व तय कार्य का जन अंकेक्षण कराना व प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करना व ग्रामसभा द्वारा उसकी मंजूरी लेना जरूरी हो। ग्रामसभा द्वारा मंजूर न किए जाने पर अगले कार्य व बजट आवंटन का स्थगित करने का प्रावधान हो। इससे जरूरत न होने पर भी योजना बजट खपाने की फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार कम होगा। इसके अलावा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के तरीके क्या हो सकते हैं ? जानना व लागू करना जरूरी है।

पंचायत चुनाव में धन व बल पर रोक पर उपाय व सख्ती जरूरी है ही। पंचायती चुनावों में यदि उम्मीदवारों के नामांकन का अधिकार व्यक्तियों के हाथ से छीनकर ग्रामसभा के हाथ में कर दिया जाये, तो कैसा हो ? ग्रामसभा खुद प्रत्येक पद के लिए तीन उम्मीदवारों का नामांकन करे। उन्ही उम्मीदवारों पर मतदान हो। इससे चुनाव की चाबी धन व बल की बजाय सीधे ग्रामसभाओं के हाथ में आ जायेगी और सद्भाव भी बच जायेगा।

गौरतलब है कि ग्रामसभा और ग्रामसभाओं में कार्यकुशलता की समस्या व्यवस्थापरक से ज्यादा चारित्रिक है। इसका कुप्रभाव जगजाहिर है। अतः इस दिशा में भी प्रयास जरूरी हैं। इस दिशा में ईमानदार, सतत् और प्रभावशाली प्रयास किए बगैर भारत के गांवों में न तो बेहतर लोकतंत्र की कल्पना अब संभव दिखती है और न ही भारतीय राजनीति में शुचिता।

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