आधार का खिसकता आधार

2
219

प्रमोद भार्गव

देश की आजादी के बाद से ही कई उपाय ऐसे होते चले आ रहे हैं, जिससे देश के प्रत्येक नागरिक को राष्टीय नागरिकता की पहचान दिलाई जा सके। मूल निवासी प्रमाण-पत्र, राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब आधार योजना के अंतर्गत एक बहुउद्देश्य विशिष्ट पहचान पत्र हरेक नागरिक को देने की कवायद देशव्यापी चल रही है। इस पहचान पत्र के जरिए देश के नागरिक की पहचान सरल सहज तरीके से किए जाने की बजाए कंप्यूटरीकृत ऐसी तकनीक से होगी,जिसमें कई जटिलताएं पेश आने के साथ परीक्षण के लिए तकनीकी विशेषज्ञ की भी जरुरत होगी। मसलन व्यक्ति को राष्टीय स्तर पर पंजीकृत करके जो संख्या मिलेगी, उसे व्यक्ति की सुविधा और सशक्तीकरण का बड़ा उपाय माना जा रहा है। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि इससे नागरिक को एक ऐसी पहचान मिलेगी, जो भेद-रहित होने के साथ, उसे विराट आबादी के बीच अपना वजूद भी कुछ है, यह होने का अहसास कराती रहेगी। लेकिन नागरिकता की इस विशिष्ट पहचान की चूलें पहल चरण में ही हिलने लगी हैं। क्योंकि इस पहचान-पत्र योजना के क्रियान्वयन में विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के उपायों को तो नकारा ही गया, संसद की सर्वोच्चता को भी दरकिनार कर इसे औद्योगिक पेशेवरों के हाथ सौंप दिया गया। नतीजतन यह योजना अब भ्रष्टाचार का पर्याय तो बन ही रही है, पहचानधारियों को संकट का सबब भी साबित हो रही है।

यह हकीकत अभी भी आम-फहम नहीं है कि बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान-पत्र योजना को देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था, संसद की अनुमति नहीं मिली है। इस योजना को इजाजत अटल बिहारी वाजपेयी की केबिनेट ने दी थी और भारतीय राष्टीय पहचान प्राधिकरण बनाकर इस योजना के क्रियान्वयन की शुरुआत डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने की। अमेरिका की सही-गलत नीतियों के अंध-अनुकरण के आदी हो चुके मनमोहन सिंह ने इस योजना को जल्दबाजी में इसलिए शुरु किया क्योंकि इसमें देश की बड़ी पूंजी निवेश कर औद्योगिक-प्रौद्योगिक हित साधने की असीम संभावनाएं अंतनिर्हित हैं। इस प्राधिकरण का अध्यक्ष एक औद्योगिक घराने के सीईओ नंदन नीलकेणी को बनाकर, तत्काल उनके सुपुर्द 6600 करोड़ की धन राशि सुपुर्द कर दी गई। बाद में इस राशि को बढ़ाकर 17900 करोड़ कर दिया गया। जब यह योजना अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी तब अर्थशास्त्रियों के एक अनुमान के मुताबिक इस पर कुल खर्च डेढ़ लाख करोड़ रुपए होंगे।

इस प्रसंग में हैरानी की बात यह भी है कि बात-बात पर संसद की सर्वोच्चता और गरिमा की दुहाई देने वाले मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट के पिछड़े गांव की एक महिला को पहचान-पत्र देकर एक साल पहले इसका शुभारंभ भी कर दिया। क्या सरकार से पूछा जा सकता है कि गरीब की भूख से जुड़े खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक और ज्यादातर गरीबों को मनरेगा से जोड़ने वाली ‘गरीबी रेखा को तय किए बिना अथवा संसद की मंजूरी लिए बिना इन योजनाओं पर अमल क्यों नहीं शुरु किया जाता ? लोकपाल विधेयक को संसद पहुंचाने से पहले ही क्यों नहीं भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसी जाती ? दरअसल संप्रग सरकार की पहली प्राथमिकता में भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं हैं ही नहीं। वह जटिल तकनीकी पहचान पर केंद्रित इस आधार योजना को जल्द से जल्द इसलिए लागू करने में लगी है, जिससे गरीबों की पहचान को नकारा जा सके। क्योंकि राशनकार्ड और मतदाता पहचान-पत्र में पहचान का प्रमुख आधार व्यक्ति का फोटो होता है। जिसे देखाकर आंखों में कम रोशनी वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह फलां व्यक्ति का फोटो है। उसकी तसदीक के लिए भी कई लोग आगे आ जाते हैं। इस पहचान को एक साथ बहुसंख्यक लोग कर सकते हैं। जबकि आधार में फोटो के अलावा उंगलियों व अंगूठे के निशान और आंखों की पुतलियों के डिजीटल कैमरों से लिए गए महीन से महीन पहचान वाले चित्र हैं, जिनकी पहचान तकनीकी विशेषज्ञ भी बड़ी मशक्कत व मुश्किल से कर पाते हैं। ऐसे में सरकारी एवं सहकारी उचित मूल्य की दूकानों पर राशन, गैस व कैरोसिन बेचने वाला मामूली दुकानदार कैसे करेगा ? पहचान के इस परीक्षण व पुष्टि के लिए तकनीकी ज्ञान की जरुरत तो है कि कंप्युटर उपकरणों के हर वक्त दुरुस्त रहने, इंटरनेट की कनेक्टविटि व बिजली की उपलब्धता भी जरुरी है। गांव तो क्या नगरों और राजधानियों में भी बिजली कटौती का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में एक शनिवार भारत के सबसे बड़े ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ का पूरे दिन सायबर नाकाम रहा। नतीजतन लोग मामूली धन-राशि का भी लेने-देन नहीं कर पाए। सुविधा बहाली के लिए विज्ञापन देकर बैंक रविवार को खोलना पड़ा। कमोबेश नगरीकृत व सीमित उपभोक्ता से जुड़े एक बड़े बैंक को इस परिस्थिति से गुजरना पड़ रहा है तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किस हाल से गुजरना होगा ? जाहिर है, ये हालात गांव-गांव दंगा, मारपीट और लूट का आधार बन जाएंगे।

इस तरह के दुर्निवार हालात से भिंडत का सिलसिला शुरु भी हो गया है। 2 अगस्त 2011 को छपे मैसूर के एक दैनिक ने खबर दी है कि अशोकपुरम् में राशन की एक दुकान को गुस्साए लोगों ने आग लगा दी और दुकानदार की बेतरह पिटाई लगाई। दरअसल दुकानदार कोई तकनीकी विशेषज्ञ नहीं था इसलिए उसे ग्राहक की उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के मिलान में समय लग रहा था। चार घंटे-पांच घंटे तक लंबी लाइन में लगे रहने के बाद लोगों के धैर्य ने जवाब दे दिया और भीड़ हुड़दंग, मारपीट व लूटपाट का हिस्सा बन गई। बाद में पुलिसिया कार्रवाई में लाचार व वंचितों पर लूट व सरकारी काम में बाधा डालने के मामले पंजीबध्द कर इस समस्या की इतिश्री कर दी गई।

अब तो जानकारियां ये भी मिलने लगी हैं कि इस योजना के मैदानी अमल में जिन कंप्यूटराइज्ड इलेक्टोनिक उपकरणों की जरुरत पड़ती है उनकी खरीद में भी बड़े पैमाने पर अधिकारी भ्रष्टाचार बरत रहे हैं। बैंग्लोर से प्रकाशित 4 अगस्त 2011 के ‘मॉर्डन इंडिया’ दैनिक में खबर छपी है कि एक सरकारी अधिकारी ने उंगलियों के निशान लेने वाली 65 हजार घटिया मशीनें खरीद लीं। केंद्रीकृत आधार योजना में खरीदी गई इन मशीनों की लागत 450 करोड़ रुपये है। इस अधिकारी की शिकायत कर्नाटक के लोकायुक्त को की गई है। जाहिर है यह योजना गरीब को इमदाद पहुंचाने से कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार व संकट की वजह बन रही है।

दरअसल ‘आधार’ के रुप में भारत में अमल में लाई गई इस योजना की शुरुआत अमेरिका में आंतकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुई थी। 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दी गई थी कि वे इस योजना के माध्यम से संदिग्ध लोगों की निगरानी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी पर जो प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियों आशंकाओं के केंद्र में हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में उन लाचार व गरीबों को संदिग्ध व खतरनाक माना जा रहा है, जिन्हें रोटी के लाले पड़े हैं। ऐसे हालात में यह योजना गरीबों के लिए हितकारी साबित होगी अथवा अहितकारी इसकी असलियत सामने आने में थोड़े और वक्त का इंतजार करना होगा।

2 COMMENTS

  1. सरकार ऐसे कार्य करती ही क्यों है जिसका फायदा भ्रष्ट अधिकारीयों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही मिलता है और ९५% सामान्य भारतीय जिसके शिकार होतें हैं.लगता है कि जनसामान्य को परेशान करना अमेरिका परस्त सरकार का प्यारा शगल (शौक) है.

  2. प्रमोद जी अपने लेख में थोडा विस्तार देते हुए जरा इस बात की कल्पना कीजिये की जब माल संस्कृति (वालमार्ट) और इनके जैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना सामान बेचने निकलेंगी तो क्या उनको ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी? आज जब मोबाइल कम्पनियां अपना डाटा बेचने से गुरेज नहीं करते तो आधार का डाटा उन लोगों की पहुँच से बाहर रहेगा ये कौन सुनिश्चित करेगा? पूरी की पूरी कवायद ही विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाकर आर्थिक गुलाम बनाने की लगती है! देश की जनता तो बेचारी आदि हो चुकी है और अब पेट्रोल/गैस के दाम हर महीने बढ़ने पर भी खून नहीं खौलता!
    अब तो इस देश का भगवान् ही मालिक है वो ही कोई चमत्कार कर सकता है !

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here