मैथिली शरण गुप्त उन पहले कवियों मे से थे जिन्होने खड़ी बोली को काव्य के लियें उपयुक्त माना। 1910 मे सरस्वती पत्रिका मे ‘’उनकी रंग मे भंग’’ प्रकाशित हुई। स्वतन्त्रता की लड़ाई मे उनकी राष्ट्रवादी कवितायें लोकप्रिय हुईं जिनमे ‘’भारत भारती’’ प्रमुख है।
गुप्त जी का जन्म झाँसी ज़िले के चिरगाँव मे 3 अगस्त 1886 मे हुआ था उनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। उन्होने संसकृत, हिन्दी बंगला और अंग्रेज़ी भी पढी थी। महावीर प्रसाद दि्ववेदी उनके गुरु थे। उन्होने रामायण महाभारत और बौद्ध धर्म को आधार बनाकर भी काव्य रचनायें की जो बहुत लोकप्रिय भी हुईं, इस संदर्भ मे ‘’साकेत’’ और ‘’यशोधरा’’ का नाम सबसे पहले याद आता है।साकेत मे रामायण की कहानी को नये रूप मे उन्होंने प्रस्तुत किया। उर्मिला के चरित्र, उसके बलिदान का इससे पहले किसी कवि को ध्यान ही नहीं आया।उन्होने उर्मिला के व्यक्तित्व का सजीव वर्णन किया-
महाव्रती लक्ष्मण की सुवामा,
पवित्रता की प्रतिमा ललामा।
प्रपूर्णकामा यह ‘उर्मिला’ है,
सुयोग क्या ही क्षिति को मिला है
कहा जाता है कि हिन्दी सहित्य की उपेक्षित नारी पात्रों के चरित्रों को गुप्त जी ने बहुत यत्न के साथ संवारा है। उर्मिला के बाद कैकई का पश्ताचाप भी भावपूर्ण हुआ है-
करके पहाड़ सा पाप मौन रहजाऊँ
राई भर भी उनुताप न करने पाऊँ
क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी
जल पंजर गत अब अरे अधीर अभागे
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी मे जागे।
उर्मिला के पात्र को गुप्त जी ने बहुत ऊँचाई दी। सीता तो फिर भी अपने पति के साथ थीं लेकिन उर्मिला ने तो अपने पति से चौदह वर्ष का वियोग अकारण ही सहा, उनसे बलिदान मांगा गया उन्होने बलिदान दिया पर साकेत से पहले तो उनके बलिदान का गौरवगान भी नहीं हुआ।
कैकई को मां के रूप मे कभी नहीं सराहा गया,उनका तिरस्कार उनके बेटे ने भी किया।कैकई बुरी मां नहीं थी कमज़ोर क्षणो मे वो मंथरा की बातों मे आगई, जिसका उन्हे बहुत पश्चाताप हुआ। कैकई के पश्चाताप से उनके सारे पाप धुल जाते हैं। गुप्त जी ने इसका बड़ा संवेदनशील वर्णन किया है।
राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने भी बड़ा बलिदान दिया था उनके पति बिना कहे ही उन्हे छोड़कर चले गये न पुत्र की चिन्ता की न पत्नी की तब अनायास वह कह उठीं-
सखी वो मुझसे कहकर जाते,
कह तो क्या मुझको अपनी पग बाधा पाते।
मुझको बहुत उन्होने माना,
फिरभी क्या पूरा पहचाना,
जो वे मन मे लाते।
‘’ मुझसे कहकर जाते’’ मे यशोधरा के मन पूरा दर्द कवि ने बहुत सादगी के साथ काव्य मे उलट दिया है। यशोधरा की पीड़ा सजीव हो उठी है।
यशोधरा से उनका पुत्र राहुल कहानी सुनाने को कहता है तब वे उसे उसके पिता की वह कहानी सुनाती हैं जब एक बार एक आहत पक्षी को सिद्धार्थ ने बचाया था तब शिकारी ने उनसे अपना शिकार वापिस मांगा ,इस बार कहानी को सुनाते समय यशोधरा ने निर्णय राहुल से ही पूछा-
‘’राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लँ तेरी बानी”
“माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
राहुल नेउत्तर दिया।
” कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी
“न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।
बेटे का मा से कहनी सुनाने का आग्रह भी इतना सहज और स्वाभाविक है।-
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।
मैथलीशरण जी की इन भावभीनी कविताओं को कौन भुला सकता है।यशोधरा काभाव पक्ष बहुत गहरी छाप छोड़ता है राजकुमार सिद्धार्थ या गौतम बुद्ध के बारे मे तो साहित्य और इतिहास मे बहुत कुछ लिखा गया है पर यशोधरा की पीड़ा को गुप्तजी ने ही समझा।राम सीता की कहानी तो बहुत बार लिखी गई पर उर्मिला के दर्द को भी गुप्त जी ने ही पहचाना।कैकई के मातृत्व पर लगे दाग़ को भी उन्ही क़लम से निकले पश्ताचाप ने धोया।वास्तव मे उन्होंने साहित्य के इन उपेक्षित महिला पात्रों के चरित्रों को नये रूप और नये कलेवर मे प्रस्तुत किया।
महाभारत का आधार लेकर गुप्त जी ‘’जयद्रथ वध’’ की रचना की जिसमे भूमिका के रूप मे ये पंक्तियाँ महाभारत का सार हैं।-
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ
इसके बाद अभिमन्यू के जोश, जान की परवाह किये बिना चक्रव्यूह भेदने के लियें तैयार हो जाना इसका चित्रण भी मर्म को छूनेवाला है।-
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयश –कथा,
उन पर झपटता सिंह-शिशु भी रोषकर जब सर्वथा,
फिर व्यूह भेदन के लिए अभिमन्यु उद्यत क्यों न हो,
क्या वीर बालक शत्रु की अभिमान सह सकते कहो ?
वीर अभिमन्यू और उनकी पत्नी उत्तरा के बीच के संवाद भी कवि ने अनोखे लिखें हैं पत्नी की विकलता, फिर पति का उन्हे धीरज दिलाना अत्यन्त भावुक प्रसंग है जिसको कवि ने बहुत सुन्दर रचा है।अभिमन्यू वध के बाद पाण्डवों का विलाप उत्तरा सुहाग खोने का दुख सजीव चित्रित हुआ है।अर्जुन की प्रतिज्ञा किवो24 धन्टें मे जयद्रथ का वध कर लेंगे अन्यथा अपने प्राण त्याग देंगे।संध्या के समय तक जयद्रथ का न मिलना पान्डवों के खेमे मे निराशा का छा जाना बहुत सजीव चित्रित हुआ है।अंत मे पूर्ण सूर्यग्रहण के बाद जयद्रथ का वध ऐसे तीर से होता है कि उसका सिर सीधा अपने पिता की गोद मे गिरता है और उनकी भी मृत्यु हो जाती है। गुप्त जी के काव्य की भाषा इतनी सरल व सहज है कि जिसे थोड़ी सी भी हिन्दी आती हो वह इस कथा को समझ कर आनन्द ले सकता है।
मैथिलीशरण गुप्त जी को भारत का राष्ट्रकवि माना जाता है,उन्होंने केवल पौराणिक कथाओं पर आधारित जयद्रथ वध, साकेत या यशोधरा ही नहीं बल्कि देशप्रेम और मातृभूमि की वन्दना मे भी काव्य सृजन किया है-
हम खेले- कूदे- हर्ष युत जिसकी प्यारी गोद मे
हे मातृभूमि तुझको निरख क्यों न हो मन मोद मे
जिस मातृभूमि की गोद मे बड़े हुए वही मतृभूमि जीवन के अंत मे भी अपनी शरण मे लेगी-
फिर अंत समय तूही अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि ये अंत मे तुझमे ही मिल जायेगी।
मातृ भूमि के प्रति इतनी भावुकता इतना, प्रेम, सादगी और सरल सुन्दर शब्द किसी भी देशवासी को भावविहल कर ने मे सक्षम है।भारत को आर्यों की भूमि भी कहा जा सकता है। उनकी कविता मे आर्यो के व्यक्तित्व के गुणों काभी सजीव चित्र है।-
यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है,इसके निवसी आर्य हैं
विद्या,कला कौशल्य सबके जो प्रथम आचार्य हैं।
‘’आर्य’’ कविता मैथिली जी की प्रसिद्ध कृति भारत भारती का अंश है।इसमे भी उनका मातृ भूमि के प्रति प्रेम प्रकट होता है।-
फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार मे
जागी यहीं थी ज्योति जो अब जग रही संसार मे।
भारत भारती कवि की वह कृति जिसमे राष्ट्रीयता है, भारतवर्ष के प्रति प्रेम समर्पण इस काव्य की मूल भावना है।
कवि ने देश की उन्नति मे कृषकों की भमिका को भी बहुत सराहा है।-
बरसा रहा है रवि अनल,भूतल तवासा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन तनसे पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित सुखाकर हल तथापि चल रहे
किस लोभ मे इस अर्चि मे वे निज शरीर जला रहे।
मैथिली जी की एक और प्रसिद्ध कविता है जो कभी न कभी सभी हिन्दी जानने वालों ने अवश्य पढी होगी ‘’नर हो न निराश’’।इस कविता मे कवि ने देशवासियों को प्रोत्साहित किया है कि वे हमेशा कुछ अच्छा और उपयोगी करते रहें कभी भी निराश होकर धैर्य न खोयें। मानव जीवन मिला है तो उसका सदुपयोग करें।-
जग मे रहकर निज काम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमे यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
मैथिली शरण गुप्त जी ने जितनी रचनायें लिखीं सबके तो नाम गिनाना भी यहाँ संभव नहीं है।जिन रचनाओं की मैने संक्षिप्त सी चर्चा की है उसके अतिरिक्त उन्होने द्वापर ,काशी कर्बला, सिद्धराज, नहुष प्लासी कायुद्ध और अंजलि अर्घ जैसे काव्यों की भी रचना की।
गुप्त जी ने उमर ख़य्याम की रुबाइयाँ और स्वप्नवासवदत्ता नामक संसकृत नाटक का हिन्दी मे अनुवाद भी किया उन्होंने चन्द्रहास, तिल्लोतमा और विजय पर्व के अतिरिक्त कुछ और नाटक भी लिखे।
1947मे स्वतन्त्रता प्राप्त होने के बाद उन्हे राज्य सभा का मनोनीत सदस्य बनाया गया जहाँ वे अपने विचार कभी कभी कविता के रूप मे रखते थे।अपने अंत समय तक वे राज्य सभा के सदस्य बने रहे। मैथिलीशरण गुप्तजी के जन्म दिवस पर उन्हें याद करके मै यह श्रद्धाजंलि अर्पित कर रही हूँ।
कविवर मैथलीशरण गुप्त के कृतित्व व व्यक्तित्व
पर महत्त्वपूर्ण लेख के लिए लेखिका बीनू भटनागर
जी को बधाई और शुभ कामना .
बहुत अच्छा लेख
एक बहुत अच्छा लेख बधाई