वामपंथीयों व सोनिया – कांग्रेस के नये जननायक अफ़ज़ल गुरु, उमर ख़ालिद पर स्मृति ईरानी का तूफ़ानी हमला

Smriti-Iraniडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

देश के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान के समर्थन और भारत के हज़ार टुकड़े करने के लिये इंशा अल्लाह के नारे लगाए गए, अफ़ज़ल गुरु को शहीद बता कर उसके अधूरे रह गए कामों को पूरा करने को इंक़लाब बताया गया, उससे स्वाभाविक ही चिन्ता होनी चाहिए। लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता हो सकती है और होनी भी चाहिए। लेकिन इसका अर्थ देश को खंडित करने के षड्यंत्र नहीं हो सकता। वैसे तो पिछले दिनों हैदराबाद,जवाहरलाल नेहरु व जादवपुर विश्वविद्यालय में हुआ, उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह षड्यंत्र है। षड्यंत्र वह होता है जो छिपा कर किया जाए। अब यह षड्यंत्र क्रियान्वयन की स्टेज पर पहुँच गया है। इस लिए इसके सूत्रधार और समर्थक खुले मैदान में उतर आए हैं। और कोई देश होता तो शायद इतनी हिम्मत किसी की न होती कि देश की राजधानी में एकत्रित होकर खुले आम प्रदर्शन किया जाता कि उस देश के टुकड़े होंगे हज़ार – इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह। फिर भारत में यह कैसे संभव हो पाता है कि देश की संसद पर हमला करने वाला शहीद माना जाता है और उन आतंकवादियों से लोहा लेते हुए अपने प्राण निछावर करने वाले सिपाही प्रश्नों के घेरे में आ जाते हैं।

इसे इतिहास का संयोग ही कहना होगा कि कश्मीर की आज़ादी के लिए, छात्रों के नाम से, चिल्ला चिल्ला कर नारे दिल्ली में लगाए गए और आज से तीन सौ चालीस साल पहले कश्मीर को विदेशी अत्याचारी शासकों से मुक्त करवाने के लिए पहला बलिदान इसी दिल्ली में गुरु तेगबहादुर जी ने दिया था। इसकी गवाह वह कोतवाली अभी भी दिल्ली में मौजूद है। श्री तेगबहादुर जी, जिस दशगुरु परम्परा के नौंवे गुरु थे, वह श्री नानकदेव जी से प्रारम्भ हुई थी और धीरे धीरे इसका प्रभाव पूरे हिन्दुस्थान में फैला। लेकिन इसका सर्वाधिक प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत में दिखाई देता है। इस परम्परा की गणना मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में होती है। भारतीय साहित्य के जाने-माने विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, भक्ति आन्दोलन को विदेशी आक्रमणकारी मुगलों के हाथों भारत के पराजित हो जाने की प्रतिक्रिया भी मानते हैं। या फिर पराजय से उभरने और अगले संघर्ष के लिए सामाजिक- सांस्कृतिक-राजनैतिक स्तर पर तैयारी का एक नया उद्यम। इसके संकेत प्रथम गुरु श्री नानकदेव जी के काव्य में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। जनता के स्तर पर उन्होंने मध्य एशिया से आए विदेशी आक्रमणकारी बाबर को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि ‘खुरासान खसमाना किआ-हिन्दोस्तान डराआ।’ इतना ही नहीं उन्होंने इससे भी आगे जाकर ईश्वर को भी प्रश्नित किया-तैं की दरद ना आया? पांचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी तक आते-आते विदेशी आक्रमणकारियों ने इस नई भारतीय चेतना को भविष्य में अपने लिए खतरा मानकर, तलवार के जोर पर दबाने की चेष्टा की। उसमें श्री अर्जुनदेव जी ने प्रथम शहादत प्राप्त करके भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की। उसी परम्परा में नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी ने कश्मीर घाटी से आए प्रतिनिधि मण्डल से वहां की वस्तु स्थिति जानने के बाद, विदेशी शासकों से देश की सांस्कृतिक अस्मिता को बचाने के लिए अपने जीवन की आहुति दी थी। दशम् गुरु श्री गोबिन्द सिंह जी ने इस पूरे आन्दोलन को एक नया आयाम दिया और उन्होंने विदेशी शासकों से लोहा लेने और उन्हें परास्त करनेे के लिए संगठित प्रयास किए। हिमालय की तलहटी में सन् 1699 में एक राष्ट्रीय सम्मेलन आहूत किया, जिसमें खालसा पंथ की स्थापना की गई। जब दशम गुरु को भविष्य में अपने इन प्रयासों की सपफलता पर पूरा विश्वास हो गया तो उन्होंने विदेशी शासक औरंगजेब को जफरनामा भेज दिया। जफरनामा का अर्थ होता है-विजय पत्र। यह विदेशी शासन की पराजय और भारत विजय की घोषणा थी। इस घोषणा पत्र के बाद इस दिशा में पहला प्रयास बन्दा बहादुर ने किया और उस द्वारा निर्मित आधरभूमि पर दूसरा सफल प्रयास महाराजा रणजीत सिंह ने किया। रणजीत सिंह ने पश्चिमोत्तर भारत में लगभग सभी क्षेत्रों को मुगल शासकों से आजाद करवाया। अन्त मेें केवल कश्मीर घाटी ऐसी थी जिस पर अभी भी विदेशी अफगानी शासकों का झंडा लहरा रहा था। अन्ततः सन् 1818 ई. में रणजीत सिंह ने अफ़ग़ानी शासकों को वहां से पराजित करके विदेशी शासन की इस अन्तिम निशानी को भी समाप्त कर दिया। कश्मीर घाटी से लेकर गिलगित तक केसरिया लहराने लगा।
विदेशी मुगल सत्ता के गिर रहे खण्डहरों की साफ सफाई अभी हो रही थी कि देश एक दूसरे विदेशी शासक अंग्रेजों के हाथ पड़ गया। रणजीत सिंह ने अपने जिन्दा रहने तक अंग्रेजों को सतलुज पार नहीं करने दिया। रणजीत सिंह के पराभव ने अंग्रेजों को पंजाब में पैर पसारने का मौका दे दिया लेकिन अपनी चतुराई से गुलाब सिंह ने जम्मू, गिलगित, बल्तीस्तान, लद्दाख और कश्मीर घाटी को अंग्रेजों के कब्जे में जाने से बचा लिया और जम्मू कश्मीर रियासत की स्थापना की। उसके बाद ब्रिटिश सत्ता से शुरु हुई भारत की एक लम्बी लड़ाई। दो सौ साल राज्य करने के बाद अन्ततः गोरों को इस देश से जाना पड़ा। यूनियन जैक उतर गया। लेकिन उतरने से पहले गोरी सरकार भारत के दो टुकड़े करने में कामयाब हो गई। हो सकता भारत दो टुकड़े होने से बच जाता लेकिन जिन्ना व ब्रिटिश सरकार की मिलीभगत और पंडित नेहरु की प्रधानमंत्री बनने की जल्दबाज़ी ने लंदन की साज़िश को सफल बनाने में सहायता की। पश्चिमोत्तर भारत के एक बड़े हिस्से को भारत से अलग करके पाकिस्तान के नाम से एक नया देश बना। पंजाब के बीचों बीच विभाजन की रेखा खिंच गई। इसे भी महाराजा हरि सिंह की कूटनीति कहना चाहिए कि अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बावजूद वे कश्मीर घाटी को पाकिस्तान में शामिल नहीं करवा सकें। हरिसिंह के इन प्रयासों में भी पंजाब की सहायता उपलब्ध थी। 22 अक्टूबर सन् 1947 में कश्मीर घाटी पर हुए पाकिस्तानी आक्रमण के समय जब दिल्ली में लार्ड माउंटबेटन पूरी कोशिश कर रहे थे कि श्रीनगर में सेना न भेजी जाए तो महाराज पटियाला ने उससे पहले ही अपनी सेनाएं भेज दी थीं। गिलगित में अनेकों पंजाबी सैनिक शत्रु का मुकाबला करते हुए मारे गए। १९४७ में ही कम्युनिस्ट पार्टी ने शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके कश्मीर को आज़ाद देश बनाने के प्रयास किए थे। लेकिन वे असफल रहे। बाद में इसी कश्मीर घाटी को जीतने के लिए पाकिस्तान ने १९४७ के बाद भी तीन हमले किए लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
विदेशी शक्तियां कश्मीर घाटी को हिन्दोस्तान से अलग करके पाकिस्तान में शामिल नहीं करवा पाई। लेकिन जैसाकि एम.जे.अकबर लिखते है कि पाकिस्तान केवल एक भोगौलिक इकाई नहीं है बल्कि एक आइडिया भी है। जो लोग पाकिस्तान में शामिल हो गए वे उस भोगौलिक देश का हिस्सा बन गए लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जो चाहते हुए भी पाकिस्तान नहीं जा सके, वे उस आइडिआ का हिस्सा बन गए। कश्मीर घाटी एक बार फिर रणस्थली बन गई। एक ओर वे लोग हैं जो इसे पाकिस्तान में शामिल करवाना चाहते हैं दूसरी ओर वे लोग हैं जो यह अंग-भंग नहीं होने देना चाहते हैं। जो लोग इसे पाकिस्तान में शामिल करवाना चाहते हैं उनमें पाकिस्तान नाम की भोगौलिक इकाई तो शामिल है ही लेकिन हिन्दुस्थान में रह रहे वे लोग भी है जो भोगौलिक पाकिस्तान में नहीं बल्कि आइडिआ आफ पाकिस्तान के हिस्सा है। भोगौलिक पाकिस्तान, हिन्दुस्थान पर आक्रमण करके कश्मीर छीनना चाहता है और आइडिया आफ पाकिस्तान के लोग हैदराबाद विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और अब जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रदर्शन करके, छात्रों के वेश में सेमीनार करके कश्मीर के लोगों को मानसिक रूप से पाकिस्तान के साथ जोड़ना चाहता है। यदि इसमें सफलता नहीं मिलती तो घाटी को आज़ाद देश के तौर पर ही स्थापित किया जाए। इस पार के और उस पार के इन दोनों समूहों में एक वैचारिक आन्तरिक एकता स्पष्ट ही देखी जा सकती है। इस एकता को स्थापित करने में पाकिस्तान की आई.एस.आई. का भी हाथ है।
दुर्भाग्य से भारत में रह रहे आइडिया आफ पाकिस्तान की पाकिस्तान समर्थक टोली के साथ वह वामपंथी टोली भी सक्रिय रूप से जुड़ गई है जो शुरु से ही यह मानकर चलती है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है बल्कि अनेक राष्ट्रों का एक समूह है। इस वामपंथी टोले को यह घुट्टी कुछ सीमा तक तो अंग्रेज पिला गए थे और रही सही कसर जर्मनी के कार्ल मार्क्स की किताबों ने पूरी कर दी थी। इसलिए योजना में साम्यवादियों का सहयोग मिलना स्वाभाविक ही था। साम्यवादी लोगों के अनुसार इन राष्ट्रों को देश से अलग होने का पूरा अधिकार है। इसी विचारधारा और योजना को क्रियान्वित करने के लिये साम्यवादियों ने अंग्रेज़ों के जाते ही सत्ता हथियाने के लिए तेलंगाना में सशस्त्र क्रान्ति की थी, जो जन समर्थन के अभाव में विफल हो गई। लेकिन देश के जिस हिस्से में भी देश से अलग होने का नारा लगता है, साम्यवादी लोग तुरन्त उसे लपक लेते हैं और आशा करने लगते हैं कि अलग अलग राष्ट्रों का यह देश टूटने की ओर चल पड़ेगा। उनको लगता है कि तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति के दिनों से बन्द हो गई यात्रा फिर शुरु हो जायेगी। यही कारण है वे कश्मीर की आज़ादी के आन्दोलन का अपने आप को स्वाभाविक साथी मानते हैं। पंजाब में आतंकवाद के दिनों में बहुत से रेडीकल साम्यवादियों ने आतंकवादियों की सफ़ों में ही अपना आश्रय तलाश लिया था। अंग्रेजी साम्राज्यवादी चश्मे और जर्मन मार्क्सवादी चश्मे ने मिलकर वामपंथी टोले की नजर इतनी गड़बड़ कर दी कि उन्हें भारत के टुकड़े करने के काम में लगे आतंकवादी भी शहीद ही नजर आने लगे। यही कारण है कि कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों में लाल झण्डी वाली टोपियां लहराते ये वामपंथी अफ़ज़ल गुरु को भी शहीद होने का खिताब दे रहे है।
इस पृष्ठभूमि में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की घटना को देखा जाना चाहिए। पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ा रहे प्रो० राजीवलोचन ने, जो इसी विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं, ने अपने विष्लेषण में लिखा है कि इस विश्वविद्यालय में जिसे मुक्त चिन्तन का नाम दिया जा रहा है, वह दरअसल पूरी सोची समझी योजना से सी पी एम के लिये काडर तैयार करने की रणनीति मात्र है। इस रणनीति से स्वतंत्र चिन्तन तो शायद नहीं ही बचता होगा, आज्ञाकारी काडर जरुर तैयार होता है। इसलिए नेहरु विश्वविद्यालय में भारत तेरे टुकड़े होंगे हज़ार-इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह का नारा लगाने वालों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के लोग जाकर खड़े होतें हैं और उनका उत्साह वर्धन करते हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि राहुल गान्धी वहाँ क्या कर रहे हैं ? वे केवल वहाँ गए ही नहीं बल्कि उन तथाकथित छात्रों के समर्थन में साम्यवादियों से भी ज़्यादा सक्रिय देखे जा रहे हैं। वे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के इन तथाकथित छात्रों की पैरवी असम तक के दूर दराज़ इलाक़ों में जाकर कर रहे हैं। उनकी नज़र में देश को हज़ार टुकड़ों में तोड़ने की कामना करने वाले इन लोगों पर कोई कार्यवाही करना देश के छात्रों की आवाज़ दबाना होगा। आख़िर अफजल गुरु को देश का शहीद मानने वाले राहुल गान्धी की नज़र में देश के समस्त छात्रों के प्रतिनिधि कैसे हो गए ? कोई नरेन्द्र मोदी का विरोध करें और राहुल गान्धी उसके समर्थन में उतर आएँ, यह समझ में आ सकता है। लोकतंत्र में यह सभी को अधिकार है और यह अधिकार छीना नहीं जा सकता। परन्तु अफ़ज़ल गुरु की फाँसी को शहादत बता कर उसकी विचारधारा को आधार बना कर देश में इंक़लाब लाने की योजना बना रहे लोगों के समर्थन में राहुल गान्धी का खुले आम आ खड़े होना, निश्चय ही देश के लोगों में चिन्ता पैदा करता है। इस देश को लेकर और इसके भविष्य को लेकर साम्यवादी समूहों की सोच पहले 1942 में और बाद में 1962 में साफ़ हो गई थी लेकिन अभी तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहचान कम से कम देश के भविष्य को लेकर सकारात्मक ही रही है। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में ठीक कहा कि “सत्ता से तो श्रीमती इन्दिरा गान्धी को भी हटना पड़ा था लेकिन उसके बेटे ने कभी राष्ट्र को तोड़ने की बात नहीं की थी और न ही इस प्रकार के लोगों के साथ बगलगीर हुए थे।” परन्तु क्या अब सोनिया कांग्रेस जो अपने आप को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उत्तराधिकारी मानती है, इस देश के भविष्य को अफजल गुरु की फाँसी और इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह के नारे लगाने वालों के साथ जोड़ कर भविष्य की रणनीति बना रही है ?

सत्ता से हट जाने के बाद और पूरे देश में केवल 44 सीटों पर सिकुड़ जाने से शायद उसका मानसिक सन्तुलन थोड़ा गड़बड़ा गया है। सोनिया गांधी के सुपुत्र राहुल गांधी को देश में जहां कहीं भी प्रदर्शन और नारों की आवाज सुनाई दे जाती है वे अंदाजा लगा लेते है कि देश के क्रुद्ध लोग मोदी सरकार के खिलापफ सड़कों पर उतर आए है। इसीलिए शायद वे बिना देखे-भाले कि ये कौन लोग है और क्या चाहते है,वहां तुरन्त पहुंच जाते है। वे शायद मानते हैं कि इस प्रकार की भीड़ में पहुंच जाने से उनका अपना सत्ता तक पहुंच जाने का रास्ता भी प्रशस्त हो सकता है। यही कारण है कि कभी वह हैदराबाद विश्वविद्यालय मंे पहंुच जाते है, कभी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाकर हाजिरी लगवाते हैं और वहां पाकिस्तान जिन्दाबाद और अफजल गुरु ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खडे़ हो जाते है। वे घोषणा करते है कि इन लोगों की आवाज इस देश के लोगों की अवाज है और मैं कभी इन लोगों की आवाज दबने नहीं दूंगा। कश्मीर को चाहिए आज़ादी के नारे ही राहुल गांधी के लिए कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताकी आवाज़ बन जाती है। राहुल गांधी का यह आचरण कभी महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संघर्ष में उतरी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अन्तिम काला अध्याय है। इस काले अध्याय ने कांग्रेस के अतीत के स्वर्णिम अध्यायों को भी कलंकित कर दिया है। सोनिया कांग्रेस को देश हित में अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।
कश्मीर घाटी को भारत से अलग करवाने और भारत के हज़ार टुकड़े करवाने की यह लड़ाई गिने-चुने लोगों द्वारा देश के भीतर से प्रारम्भ हुई है। कश्मीर घाटी को पाकिस्तान समर्थ लावणी आज़ाद करवाना चाहती है और देश के हज़ार टुकड़े साम्यवादी दलों की संतान माओवादी समूह सशस्त्र संघर्ष द्वारा करवाना चाहती हैं। पाकिस्तान उनका समर्थन कर रहा है। भारत के टुकड़े करवाने वाली इन शक्तियों को दूसरी विदेशी शक्तियाँ भी प्रत्यक्ष परोक्ष सहायता करती हैं क्योंकि भारत उनकी वैचारिक वैश्विक विजय यात्रा में सबसे बड़ी वाधा है। कुछ लोगों ने इस लड़ाई का एक छोटा सा प्रदर्शन जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में उस वक्त करना जरुरी समझा जब कश्मीर की रक्षा के लिए सियाचीन में तैनात दस भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। दिल्ली में एक साथ एक ओर उन दस भारतीय सैनिकों की लाशें पड़ी हैं और उसी वक्त जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उसी कश्मीर को भारत से अलग होने के षड्यंत्र हो रहे हैं। सीताराम येचुरी से लेकर राहुल गांधी, राहुल गांधी से लेकर अरविन्द केजरीवाल, केजरीवाल से लेकर नितिश कुमार सब इन नारे लगाने वालों के साथ वैचारिक रूप से खडे़ दिखाई दे रहे हैं। यह केवल इसलिए संभव है क्योंकि, भारत तेरे टुकड़े होंगे हज़ार-इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह की कामना करने वाले जानते हैं कि लोक सभा और विधान सभा में चन्द ज़्यादा सीटें जीतने के लालच में, उनका समर्थ करने वाले राजनैतिक दल भी उनके साथ खड़े हो जायेंगे। भारत के हज़ार टुकड़े करने वालों की अल्लाह कितनी मदद करता है, यह तो बाद में पता चलेगा लेकिन इन षड्यंत्रकारियों की रणनीति की दाद देनी पड़ेगी कि उनकी योजना और आशा के अनुसार ही अनेक राजनैतिक दलों के नेता जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में इन नारा लगाने वालों के साथ आ खड़े हुए। और उधर भारतीय सेना कश्मीर की रक्षा में बर्फ में दब गए अपने जवानों को गार्ड आफ आनर दे रही है।
स्पष्ट है कि अभी तक भिन्न भिन्न अलगाव वादी समूहों द्वारा देश को तोड़ने के प्रयास अलग अलग चल रहे थे। लेकिन अब आई एस आई और अन्य विदेशी शक्तियों इन सभी समूहों में आपस में मिल कर प्रयास करने हेतु सामंजस्य बिठाने का प्रयास कर रही हैं। यही कारण है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय से शुरु हुआ प्रदर्शन कुछ दिनों के भीतर ही जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से होता हुआ जादवपुर तक जा पहुँचा। इन सभी प्रयासों में देश को तोड़ने की लड़ाई में लगे लोगों को नायक के तौर पर स्थापित करने के सुनियोजित षड्यंत्र दिखाई देता है। अफ़ज़ल गुरु और उमर ख़ालिद की छवि निर्माण के प्रयास इसी का हिस्सा है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी वाधा यह थी कि अफ़ज़ल गुरु को फाँसी की सजा उच्चतम न्यायालय ने दी थी। उस वाधा को दूर करने के लिए पूर्व गृह मंत्री सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चिदम्बरम मैदान में उतरे। उन्होंने चालाकी भरे जितने शव्दों का प्रयोग कर सकते थे, उनका प्रयोग करते हुए स्पष्ट कर दिया कि अफ़ज़ल गुरु को फाँसी की सज़ा शायद ठीक नहीं दी गई थी। लगता है सोनिया कांग्रेस की अब नीति बनती जा रही है कि देश में अलगाववादियों को वे तमाम वैचारिक हथियार मुहैया करवाएँ जाएँ, जिनसे वे अपनी लड़ाई तेज़ कर सकें। वैधानिक अड़चनों को दूर करने में भी उनकी सहायता की जाए।
ज़्यादातर दल माँग कर रहे थे कि जवाहर लाल नेहरु, हैदराबाद और जादवपुर विश्वविद्यालयों के प्रकरण पर संसद में बहस हो। कामरेडों और सोनिया कांग्रेस को लगता होगा कि मोदी सरकार इससे बचना चाहेगी। लेकिन मोदी सरकार ने बहस को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि पूरा बहस में विरोधी दलों के आक्रमण के भीतरी खोखलेपन को भी तार तार कर दिया।

मानव संसाधन मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने संसद में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के नाम से चलने वाले कृत्यों की जब पोल खोल दी तो साम्यवादी टोले समेत सोनिया कांग्रेस भी तिलमिला उठी। यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं है कि इस विश्वविद्यालय में पिछले कुछ साल से दुर्गा पूजा के अवसर पर महिषासुर शहादत दिवस मनाया जाता है। यह दिवस लुक छिप कर नहीं बल्कि शर-ए-आम मनाया जाता है। यह ठीक है कि इसमें भागीदारी कुछ सीमित छात्रों की ही होती है लेकिन इसका प्रचार प्रसार बहुत किया जाता है। पोस्टर चिपकाना उस प्रचार का मात्र एक हिस्सा है। तर्क के लिए कहा जा सकता है कि यदि कोई महिषासुर की पूजा करना चाहता है तो उसे लोकतंत्र में इसका पूरा अधिकार है। ऐसा स्वतंत्र चिन्तन विश्वविद्यालयों में नहीं होगा तो और कहाँ हो सकता है ? यह तर्क ठीक है। इसे कुतर्क की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लेकिन महिषासुर की पूजा करने की जो व्याख्या की जाती है वह आपत्तिजनक ही नहीं बल्कि भ्रामक भी है। वह एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा दिखाई देता है। महिषासुर की पूजा अर्चना के लिए प्रयत्न करने वाली इस टोली का मानना है कि जब भारत पर क़ब्ज़ा करने के लिए आर्य लोग बाहर से आए तो यहाँ अनार्य या असुर लोग रहते थे। आर्यों ने असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए अनेक तरीक़े इस्तेमाल किए जिसमें लड़कियों को काम पिपासा के लिए असुर नेताओं के पास भेजकर, उनको क़ाबू करना और बाद में उन्हें धोखे से मार देना भी शामिल था। महिषासुर का प्रचार करने वाली टोली दुर्गा को इसी श्रेणी में रखती है। आर्यों के बाहर से आने, उनके असुरों या द्रविडों से युद्ध के सिद्धान्त की खिल्ली बाबा साहिब आम्बेडकर ने उड़ाई है। आम्बेडकर पूछते हैं– ऐसा कौन सा साक्ष्य है जिससे पता चले कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहाँ के मूल निवासियों को अपने अधीन कर लिया ? जहाँ तक ऋगवेद का सम्बंध है उसमें तो रंचमात्र भी भारत पर बाहर से आक्रमण के संकेत नहीं हैं। ”
इसके बाद आम्बेडकर ने ऋगवेद के अनेक मंत्र देकर सिद्ध किया है कि आर्यों और दस्युओं के बीच का अन्तर न तो प्रजातीय था और न ही शारीरिक बनावट का। इसी लिये दास और दस्यु आर्य हैं।”
लेकिन आम्बेडकर आश्चर्यचकित हैं कि पश्चिमी विद्वान जो अत्यन्त परिश्रमी माने जाते हैं, इस प्रकार के अवैज्ञानिक और कपोल कल्पित सिद्धान्त को कैसे ले उड़े ? उनके अनुसार यह सारा ड्रामा १८३५ में डा बोप की किताब तुलनात्मक व्याकरण से शुरु हुआ। बोप ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यूरोप और एशिया के कुछ देशों की भाषाएं एक ही मूल की हैं। यदि यूरोप में यह आर्यभाषा प्रचलित थी तो जाहिर है कि यह यूरोपीय भाषा ही कहलायेगी। लेकिन तब प्रश्न उत्पन्न हुआ कि फिर यह भारत में कैसे पहुँची ? इसका उत्तर फिर यही हो सकता था कि आर्य यूरोप से भारत में गये होंगे। इसी कल्पना को सिद्धान्त का नाम दिया गया।
परन्तु उस के बाद अगला प्रश्न पैदा होता है। यदि मान भी लिया जाये कि भारत और यूरोप में आर्य नाम की एक ही जाति है तो भारत पर आक्रमण की बात कैसे कही जा सकती है ? इसकी व्याख्या भी बाबा साहेब ने की है। जब एक बार यह स्वीकार कर लिया गया कि आर्य यूरोपीय थे तो पश्चिमी मानसिकता यह भी साथ ही स्वीकार करती है कि वह एशिया की जातियों से श्रेष्ठ हैं। फिर इस श्रेष्ठ जाति के भारत में भी होने का एक ही तर्क हो सकता था कि इस श्रेष्ठ यूरोपीय जाति ने हिन्दुस्तान के लोगों को जीता था। यहीं से आर्यों के आक्रमण की कथा प्रचलित हुई। आम्बेडकर लिखते हैं –“श्रेष्ठता की इस परिकल्पना को यथार्थ सिद्ध करने के लिये भी इस कहानी के गढ़ने की आवश्यकता पड़ी। अब आक्रमण की बात कहने के सिवा और कोई तरीका नहीं था।इसीलिये पश्चिमी लेखकों ने यह कहानी रची कि आर्यों ने आक्रमण करके दासों और दस्युओं को पराजित किया। ”
अब यदि आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त को प्रचारित करना है तो कोई न कोई इस देश के मूल निवासी भी तो ढ़ूंढ़ने होंगे जिन पर आर्यों ने आक्रमण किया और उन्हें पराजित किया। इसी तलाश में यह कल्पना की गई कि दास और दस्यु इस देश के मूल निवासी थे जिन्हें पराजित कर आर्यों ने शूद्र बना दिया। यूरोपीय जातियाँ गोरी होने के कारण एशिया के लोगों से उनके श्यामवर्ण के कारण घृणा करती हैं। अब यदि उन्होंने यह मान लिया है कि भारत के लोग आर्य हैं तो उन्हें अपनी रंगभेद की मानसिकता के लिये भारत में भी कोई आधार चाहिये था। इस आधार की तलाश में उन्होंने वर्ण व्यवस्था में रंगभेद की स्थापना की। यूरोप के आर्य सिद्धान्त में वर्ण व्यवस्था रंगभेद पर आधारित है। लेकिन आम्बेडकर के अनुसार,” इन परिकल्पनाओं में से कोई भी तथ्यों पर आधारित नहीं है।” आम्बेडकर लिखते हैं–” यह दावा कि आर्य बाहर से आये और भारत पर आक्रमण किया, और यह कल्पना कि दास या दस्यु भारत के मूल निवासी थे एकदम ग़लत है। उनके अनुसार आर्य नाम की कोई रेस नहीं थी बल्कि आर्य शब्द का प्रयोग विश्लेषण के रूप में किया जाता था। काले रंग का राजा भी आर्य ही कहलाता था। आर्य दस्यु असुर का यह पूरा सिद्धान्त ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने इतिहासकारों के चोले में प्रचारित किया था। अकादमिक जगत से अब यह सिद्धान्त ख़ारिज हो चुका है। लेकिन जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में चिन्तन मनन के नाम पर अभी भी इन्हीं सिद्धान्तों की जुगाली की जा रही है। उसका मुख्य कारण यही है कि अभी भी वहाँ उन्नीसवीं शताब्दी की जूठन बौद्धिकता के नाम पर परोसी जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि भारत के इतिहास को लेकर जो अतार्किक धारणाएँ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचारित की थीं, उन धारणाओं को भारत की साम्यवादी टोली ने, साम्राज्यवाद विरोध का नाटक करते हुए भी बिना किसी बहस के स्वीकार कर लिया। भारतीय साम्यवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की यह अभूतपूर्व एकता आज भी जवाहर लाल विश्वविद्यालय में दिखाई देती है और उसी में से दुर्गा को अपमानित करने का षड्यंत्र हर साल उपजता है। ये दोनों समूह इस पूरे षड्यंत्र में भीम राव आम्बेडकर के नाम का दुरुपयोग तो मात्र इसलिए कर रहे हैं ताकि दलित समाज को भ्रमित करके इस आन्दोलन से जोड़ा जा सके।
स्मृति ईरानी ने मात्र इतना किया कि जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की आड़ में साम्यवादी-साम्राज्यवादी टोली क्या कर रही थी, उसका पर्दाफ़ाश कर दिया। जवाहर लाल विश्वविद्यालय में यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं था। लेकिन जिस देश के ग़रीब, टैक्स का एक एक पैसा देकर इस विश्वविद्यालय को पाल पोस रहे हैं, उनको नहीं पता था कि उनके पैसे से दुर्गा को गालियाँ निकाली जा रही हैं। स्मृति ईरानी के भाषण के बाद आशा बंधी थी कि सभी राजनैतिक दल एक स्वर से माँग करेंगे की इस अपमान को बंद किया जाए। लेकिन हुआ इसके उलट। सोनिया कांग्रेस के लोग संसद में चिल्ला रहे हैं कि स्मृति ईरानी ने जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में दुर्गा को गालियाँ निकालने वाले गिरोह का पर्दाफ़ाश करने के लिए उनके इश्चहार संसद में पढ़ कर दुर्गा का अपमान किया है। वे चाहते हैं कि ईरानी इसके लिए मुआफ़ी माँगें। इससे बड़ा पाखंड और नहीं हो सकता। कांग्रेस के नेता उन लोगों के विरोध में कुछ नहीं कह सकते जो विश्वविद्यालय में महिषासुर दिवस मनाते हैं क्योंकि उनके नेता राहुल गान्धी साबरमती ढाबे में इन्हीं लोगों के साथ बगलगीर हो गए हैं। सोनिया कांग्रेस का कहना है कि विश्वविद्यालय में दुर्गा को सैक्स वर्कर प्रचारित करने और भारत तेरे टुकड़े होंगे हज़ार- इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह के नारे लगाने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वीकार कर लिया जाए और जो इसका पर्दाफ़ाश करता है उसको दुर्गा का अपमान करने वाला मान लिया जाए। सोनिया कांग्रेस का यह आग्रह उसी प्रकार का है, जिस प्रकार का आग्रह उसने १९८४ में दिल्ली में सिक्खों का नरसंहार करवाने के बाद किया था कि इस नरसंहार को हिन्दू-सिक्ख दंगे मान लिया जाए। जबकि उस नरसंहार में न दंगा था न हिन्दू थे केवल गुंडों द्वारा की गई लूटपाट व हत्याएँ थीं। इसी प्रकार अब सोनिया कांग्रेस नेहरु विश्वविद्यालय में हो रही देश विरोधी हरकतों को केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान लेने का आग्रह ही नहीं कर रहीं बल्कि इस प्रकार के काम में लगे लोगों का हौसला बुलन्द रखने के लिए राहुल गान्धी को भी वहाँ भेज रही है।
स्मृति ईरानी ने कम से कम वह साहस तो दिखाया है कि देश जान ले कि जिस विश्वविद्यालय पर सबसे ज़्यादा धन ख़र्च किया जा रहा है वहाँ शोध के नाम पर देश तोड़ने की साज़िश हो रही है। किसी की लड़की को मोहल्ले के कुछ गुंडे छेड़ते रहते थे। एक दिन उन्होंने बदतमीज़ी की तो लड़की ने घर आकर पिता के पास शिकायत लगाई। पिता गुंडों से भयभीत था या उनसे कुछ लाभ लेना चाहता था। उसने अपनी लड़की को ही दो झापड रसीद कर दिए कि तुम घर से बाहर क्या करने गई थी ? स्मृति ईरानी ने तो देश की सबसे बड़ी पंचायत में शिकायत लगाई की जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्रों के वेश में सौ दो सौ युवा हर साल दुर्गा पूजा के दिनों में दुर्गा को गालियाँ देते हैं और उसके लिए अत्यन्त आपत्तिजनक भाषा बोलते हैं। चाहिए तो यह था कि संसद सर्वसम्मति से इसकी निन्दा करती और दोषियों के लिए सज़ा की माँग करती। लेकिन जिनको निन्दा करनी थी उनको लगता होगा कि जो लोग दुर्गा को गालियाँ दे रहे हैं उनको आगे करके भी कुछ समुदायों की वोटों की फ़सल काटी जा सकती है। इसलिए दुर्गा को गाली देने वालों की इन हरकतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा जाने लगा और शिकायत लगाने वाली स्मृति ईरानी को दुर्गा के अपमान में धर लेने की कोशिश होने लगी। ऐसी मानसिक नपुंसकता पर अब क्रोध भी नहीं आता बल्कि तरस ही आता है।
कश्मीर की यह लड़ाई श्री गुरु तेगबहादुर जी के समय शुरु हुई थी। महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को विदेशी शासकों से मुक्त करवाकर मानो श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी को अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित किए थे। एक बार फिर इस लड़ाई में दशगुरु परम्परा की विरासत को संभाले पंजाब को प्रमुख भूमिका में उतरना पड़ेगा। इससे बड़ा संकल्प श्री गोबिन्द सिंह जी के 350वें जन्म शताब्दी वर्ष में और क्या हो सकता है ?

2 COMMENTS

  1. भारत में सेंट तेपड़ (जहाँ छात्र सुबह टाट या तपड़ बिछा उस पर बैठते हैं) प्राथमिक तथा उच्च माध्यमिक विद्यालयों में विधि पूर्वक पढ़ते दसवीं कक्षा उत्तीर्ण प्रमाण पत्र प्राप्त करने के पश्चात जीवन में अधिकांश ज्ञान “अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तिगत अनुभव एवं सिद्धि विश्वविद्यालय” में ग्रहण किया है| व्यक्तिगत अनुभव के प्रथम शिक्षण-सत्र के बीच पत्राचार द्वारा बिना विशेष प्रयास के “सम्मानार्थ डिग्रियां” बटोर व्यक्तिगत अनुभव और सिद्धि के मार्ग पर चलते विदेश में केवल प्रारम्भिक-स्तर पर अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के बल बूते एक दशक पहले मैं जैव-आयुर्विज्ञान अनुसंधान-पुस्तकालय में ग्रन्थ सूची विभाग के सहायक-प्रबंधक के पद से सेवा-निवृत्त हुआ हूँ| बुढ़ापे में सोचता हूँ कि भारत में अंग्रेजी भाषा के प्रचलन के वातावरण में उस अलौकिक विश्वविद्यालय के भारतीय अध्याय, “राष्ट्रीय व्यक्तिगत अनुभव एवं सिद्धि विद्यालय” से जुड़े हुए भारतीय जनसमूह में प्रत्येक दरिद्र नागरिक के जीवन में भारतीय मूल की भाषाएँ उसे कैसे परिपूर्ण बना सकती हैं| कदापि नहीं! मेरे विचार से समस्त भारतवासियों के लिए सामान्य राष्ट्रभाषा न होना ही अपने में राष्ट्र के प्रति १८८५ में जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा सबसे बड़ा षड्यंत्र रहा है| सभ्य व प्रगतिशील देशों में शैक्षिक संस्थाएं और विश्वविद्यालय कला, विज्ञान व औद्योगिकी के शोध केंद्र होते हैं जो यथा संभव सहभागिता में व्यावसायिक व शासकीय संस्थाओं द्वारा राष्ट्र निर्माण में सहायक रहे हैं| कोई समय था जब पाश्चात्य विद्वानों में संस्कृत भाषा के ज्ञान के माध्यम से भारतीय शास्त्रों के अध्ययन हेतु दौड़ में अन्य संस्थाओं के बीच १८२४ में संस्कृत कालेज, कलकत्ता स्थापित हुआ था जबकि १९६० के दसक से मैंने अंग्रेजी-माध्यम में पढ़े भारतीय विद्वानों द्वारा अपने शोध कार्यों को विदेशी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने हेतु दौड़ लगाते देखा है| भारतीय मूल की भाषाओं में उपलब्धि के अभाव के कारण ऐसे ज्ञान से लाभान्वित न होते हुए भारत सदैव की तरह ठगा रह गया है| सामाजिक कुरीतियों से घिरे वातावरण में आज राष्ट्र-विरोधी राजनैतिक तत्व शैक्षिक संस्थाओं और महाविद्यालयों में राजनीति खेलते छात्रों द्वारा देश के टुकड़े करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते हैं| इन्हें रोकना होगा|

    • इंसान जी-आलेख तो पढा; और आपकी टिप्पणी भी पढी। आप की स्वाध्याय आधारित उपलब्धियों की जानकारी से प्रभावित हूँ। आप के समस्त विचारों से प्रायः सहमति ही व्यक्त करता हूँ। आप अपनी स्वतंत्र टिप्पणी से भी योगदान देते रहें। शुभेच्छा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here