सृष्टि की उत्पत्ति एवं मनुष्यों के आदि स्थान का निर्णय

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हमारी पृथिवी और यह समस्त ब्रह्माण्ड मनुष्यों द्वारा रचित व निर्मित नहीं है। यह बात सुनिश्चित है और इसमें दो मत नहीं है। अब दूसरे विकल्प पर विचार करते हैं। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि यह सृष्टि अपने आप बन गई हो। इसके लिए हमें विचार करना होगा कि संसार में ऐसे कौन से पदार्थ हैं जो अपने आप बने हैं? हम जिन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं उनमें कुछ को लेते हैं। हमारे वस्त्र, कागज जिस पर पत्र लिखते हैं या पुस्तकें आदि प्रकाशित होतीं हैं, लेखनी, स्याही, हमारे जूते वा चप्पल, हमारे सभी प्रकार के वाहन, हमारा घर वा निवास, हमारा भोजन आदि सभी पदार्थों को बुद्धिमान मनुष्यों ने मिलकर, विचार व चिन्तन कर, अनुसंधान कर, सृष्टि से उपलब्ध पदार्थों को लेकर, उनके बनाने की प्रक्रिया पर विचार कर व उसमें निरन्तर सामूहिक रूप से बुद्धि से चिन्तन व संशोधन करते रहकर वर्तमान स्वरूप में बनाया जाता है। इन पदार्थों वा वस्तुओं में से कोई वस्तु स्वनिर्मित नहीं है। सृष्टि वा ब्रह्माण्ड की विशिष्ट संरचना की दृष्टि से यह अति तुच्छ वस्तुएं हैं। अतः विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जब यह तुच्छ वस्तुएं स्वयं नहीं बनती तो इतना अनन्त वा विशाल ब्रह्माण्ड कदापि स्वमेव नहीं बन सकता। कोई भी रचना किसी न किसी रचनाकार की कृति होती है। इसी प्रकार से विशिष्ट रचना भी किसी विशिष्ट रचनाकर की ही कृति कही जा सकती है।

सृष्टि को देखने पर हमारे वैज्ञानिक सिद्ध करते हैं कि यह सूक्ष्म परमाणुओं जो कि भिन्न-भिन्न प्रकार व स्वरूप वाले हैं, उनके संयोग से मिलकर बनी है। अतः अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह परमाणु कब व किसके द्वारा बनाये गये और किस वस्तु से बनाये गये हैं? हम यह भी जानते हैं कि परमाणु मुख्यतः इलेक्ट्रान, प्रोटान व न्यूट्रान कणों से मिलकर बनता है जिन पर क्रमशः ऋण, धन आवेश होता है तथा न्यूट्रान पर कोई आवेश नहीं होता। यह कण इतने सूक्ष्म हैं कि आंखों से देखे नहीं जा सकते। अतः सृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक चेतन, सर्वज्ञ, निराकार विचारवान, बुद्धिमान, ज्ञानी, विद्वान, सृष्टि निर्माण की अनुभवी, सर्वव्यापक, अत्यन्त सूक्ष्म वा सूक्ष्मातिसूक्ष्म सत्ता का होना आवश्यक है। उसी के द्वारा पहले परमाणुओं, फिर परमाणुओं से भिन्न तत्वों के अणुओं व सबको मिलाकर इस जड़ व जैविक संसार की रचना हुई है।

वेदों ने ऐसी ही सत्ता को ईश्वर नाम से अभिहित किया है और बताया है कि ईश्वर सत्, चित्त, आनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न, नित्य, पवित्र, अजर, अमर, अभय और सृष्टिकर्त्ता है। इस सृष्टि को देखकर वा इसकी रचना पर विचार करने पर वेदों का यह सिद्धान्त व मान्यता सर्वांश में सिद्ध होती है। अब प्रश्न यह शेष रहता है कि ईश्वर ने इस संसार को बनाया किस पदार्थ से अर्थात् परमाणुओं का निर्माण किस पदार्थ से हुआ है। वेद इसका भी उत्तर देते हैं और कहते हैं कि अविनाशी, जड़, सूक्ष्म, सत्व, रज व तम गुणों से युक्त प्रकृति से परमाणु बनते हैं उससे अणु बनते हैं और इन सबके द्वारा यह सारा संसार बना है जिसका रचनाकार व सृष्टिकर्त्ता ईश्वर है। हमें यह सारा वर्णन पूर्ण वैज्ञानिक लगता है। इसमें विज्ञान विरूद्ध या तर्क-प्रमाणों के विरूद्ध कोई बात नहीं है और यह संशय व भ्रम रहित सत्य ज्ञान है और सभी विद्वानों व वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकार करने योग्य है। हम निवेदन करते हैं कि पाठक कृपया सत्यार्थ प्रकाश का आठवां समुल्लास पढ़ने की कृपा करें जहां महर्षि दयानन्द ने सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाणों सहित युक्ति व तर्कों से इस सृष्टि को ईश्वर से उत्पन्न सिद्ध किया है जिसका उपादान कारण जड़, सनातन व नित्य प्रकृति है। यहां यह भी बता दें वैदिक मान्यताओं के अनुसार यह समस्त संसार ईश्वर ने अनादि व नित्य सत्ता जीवात्माओं के कर्मों के फलों के भोग व नये कर्मों द्वारा दुःखों की निवृत्ति व मोक्ष प्राप्ति के लिए किया है। यह सभी जीवात्मायें ईश्वर की शाश्वत् प्रजा हैं।

मनुष्य की आदि सृष्टि कहां पर हुई इस पर संसार के लोग एक मत नहीं है। इस संबंध में जितने भी देशी व विदेशी विद्वानों के मत प्रचलित हैं वह सभी कल्पनात्मक हैं, निश्चयात्मक मत नहीं हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वैदिक मानव सृष्टि संम्वत् के अनुसार मानव की उत्पत्ति आज से 1,96,08,53,115 वर्ष पूर्व हुई थी। वैज्ञानिक अवधि भी इसी के लगभग है। इस अवधि में इतिहास विषयक असंख्य ग्रन्थों का प्रणयन हमारे ऋषि-मुनियों व विद्वानों ने किया होगा जो कालकवलित हो चुका है। इस प्रश्न को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में उठाया है और समस्त वैदिक साहित्य के अनुशीलन, बुद्धि, विवेक, ऊहा एवं उन्हें उपलब्ध हुए प्रमाणों के आधार इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर दिया है। उन्होंने प्रश्न किया कि मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई, इसका उत्तर वह देते हुए वह लिखते हैं कि त्रिविष्टप” अर्थात् जिस को तिब्बत’ कहते हैं। उनकी इन पंक्तियों को पढ़कर यह अनुमान होता है कि उन्हें आदि सृष्टि तिब्बत में होने में किंचित भी सन्देह नहीं था और वह इस विषय में पूर्णतः आश्वस्त व निभ्र्रान्त थे।

इस मान्यता के समर्थन में हमारे आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक, वेदों के व्याख्यान ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण तथा इतिहास ग्रन्थ महाभारत में कुछ संदर्भ उपलब्ध हैं जिनसे आदि मानव सृष्टि का तिब्बत में होना पुष्ट व सिद्ध होता है। इन प्रमाणों को आर्यजगत के विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने आर्ष दृष्टि’ नाम से प्रकाशित अपनी पुस्तक के आदि मानव की जन्म भूमि’ में प्रस्तुत किया है जिसे हम आगामी पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं। पहले चरक संहिता के चिकित्सा स्थान 4/3 का उद्धरण प्रस्तुत है जिसमें कहा गया है कि बहुत दिनों तक आर्य लोग हिमालय में रहे (हिमालय से यहां तिब्बत-जैसा स्थान ही अभिप्रेत हो सकता है, कि हिमाच्छादित माउण्ट एवरेस्ट जैसा स्थान)फिर उन्होंने हिमालय से उतरकर भूमि तलाश की। जिस रास्ते से वे आये, उसका नाम उन्होंने हरद्वार रक्खा, यहां आकर वे कुछ दिन तो रहे, पर जल-वायु, खान-पान आदि दोषों के कारण बीमार होकर फिर अपने मूल निवास हिमालय को लौट गये। परन्तु कुछ काल के पश्चात वे फिर यहां आये। इस बार उन्होंने यहां के जंगलों को काटकर बसने योग्य बना लिया और इस आबाद देश का नाम आर्यावर्त्त रक्खा।“ इसके पश्चात स्वामीजी लिखते हैं कि यह विवरण शतपथ ब्राह्मण (1/4/1/14) में भी उपलब्ध है।

स्वामी विद्यानन्द जी द्वारा अपनी पुस्तक में महाभारत से प्रस्तुत किए गये प्रमाण निम्न हैं:

हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः।

अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।।

परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुरुत्तमपर्वतः।

ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।

“संसार में पवित्र हिमालय है। उसके अन्तर्गत आधा योजन चैड़ा और पांच योजन लम्बा मेरु है, जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहां से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुह आदि नदियां निकलती हैं। यह प्रमाण इस तथ्य का निश्चायक है कि आदि काल में अमैथुनी सृष्टि में मनुष्योत्पत्ति के लिए परमेश्वर ने अपनी नर्सरी इसी क्षेत्र में तैयार की थी। जिस मेरु स्थान का महाभारत के उक्त श्लोकों में निर्देश किया गया है, उसी के पास देविका पश्चिमे पाश्र्वे मानसं सिद्धसेवितम्’(है) देविका के पश्चिमी किनारे पर मानस’ (मानसरोवर) है जो तिब्बत के अन्तर्गत है। यह हम पहले लिख चुके हैं कि वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्यों के आदि युग में मानसरोवर के आसपास का क्षेत्र समशीतोष्ण जलवायु से युक्त था।“ अतः इन प्रमाणों से आदि मानव सृष्टि का स्थान तिब्बत” में होने की पुष्टि होती है।

तिब्बत में मनुष्यों की आदि व प्रथम सृष्टि के सिद्धान्त को वैज्ञानिकों के एक वर्ग ने भी अपनी मान्यता प्रदान की है। इस संबंध में हम बड़ौदा से अंग्रेजी में प्रकाशित इण्डियन एक्सप्रेस के दिनांक 16 फरवरी 1995 के अंक में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार है जिसका शीर्षक “Human life originated in Tibet, says theory.” gSA bl lekpkj esa dgk x;k gS fd Scientists have propounded the theory that human life orginated in Tibet after the Planets greatest intercontinental collision. They have come out with a hypothesis that all human life is formed out of the uplift of the Tibetan plateau when the Indian subcontinent crashed into Asia many million years ago. अर्थात् वैज्ञानिकों की खोज के अनुसार ग्रहों की सबसे बड़ी अन्तर्महाद्वीपीय टक्कर के बाद मानव जीवन की उत्पत्ति तिब्बत में हुई थी। उन्होंने एक परिकल्पना की कि सम्पूर्ण मानव का उद्भव तिब्बत पठार के उत्थान के साथ हुआ है, जबकि भारतीय उपमहाद्वीप व एशिया की टक्कर कई करोड़ वर्ष पूर्व एशिया महाद्वीप में हुई। यह अवधारणा अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भूगर्भ-वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादत की गई। इन वैज्ञानिकों के गत सप्ताह ब्रिटिश ब्राडकास्टिगं कार्पोरेशन (BBC) के वृत्तचित्र में विश्व के जलवायु-परिवर्तन एवं सौर विकिरण पर नया प्रकाश डाला है।

आदि मानव सृष्टि तिब्बत में ही हुई थी, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की खोजों, वैदिक साहित्य एवं वैज्ञानिक खोजों से भी पुष्ट है। अतः इस मान्यता को निर्विवाद रूप से वैश्विक मान्यता मिलनी चाहिये क्योंकि सत्य यही है जिसका मुख्य कारण यह है कि तिब्बत हिमालय के माउण्ट एवरेस्ट चोटी के निकट है और यह चोटी संसार का सबसे ऊंचा स्थान है। दूसरा कारण यह भी है कि भारत तिब्बत के निकट है जहां सुदूर प्राचीन काल से ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रचार व प्रसार रहा है तथा यही संस्कृति विश्व की आदि संस्कृति भी है और वेद भाषा ही विश्व की सभी भाषाओं की जननी है।

मनमोहन कुमार आर्य

3 COMMENTS

  1. मान्य श्री मनमोहन कुमार आर्य जी,

    महोदय! आपने स्व-परिकल्पना की पुष्टि प्रमाणरूप में महाभारत के ये दो श्लोक उद्धृत किये हैं; परन्तु इनका सन्दर्भ निर्देशाङ्क तो आपने दिये ही नहीं। तब इनकी प्रमाणता की पुष्टि कैसे हो सकेगी, जो कि अत्यावश्यक है। कारण, हम आपकी परिकल्पना से किञ्चित भी सहमत नहीं। अतः कृपा कर सूचित करें।

    हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः।
    अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।।
    परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुरुत्तमपर्वतः।
    ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।

    कुछ भेद के साथ यह पङ्क्ति ‘अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः’ तो वनपर्व ८२:१०७ में दृष्ट होती है, परन्तु ‘हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः’ वहाँ पर नहीं है। इसी प्रकार कुछ भेद के साथ भीष्म ६:१० में ’परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुकनकपर्वतः’ तो है, परन्तु आपकी दी अग्रिम पङ्क्ति ‘ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः’ नहीं है!

    स्पष्ट है, स्व-परिकल्पना को सिद्ध करने के लिये निश्चय ही कुछ तो हेर फेर कुछ तो चतुतराई का आश्रय लिया गया है।
    आपकी ओर से सुनने के उपरान्त ही हमारे लिये अपने विचार रखना, टिप्पणि करना योग्य होगा। अतः कृपा कीजिये।

    प्रतीक्षा में,
    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

  2. मान्य श्री मनमोहन कुमार आर्य जी,

    महोदय! आपने स्व-परिकल्पना की पुष्टि प्रमाणरूप में महाभारत के ये दो श्लोक उद्धृत किये हैं; परन्तु इनका सन्दर्भ निर्देशाङ्क तो आपने दिये ही नहीं। तब इनकी प्रमाणता की पुष्टि कैसे हो सकेगी, जो कि अत्यावश्यक है। कारण, हम आपकी परिकल्पना से किञ्चित भी सहमत नहीं। अतः कृपा कर सूचित करें।

    हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः।
    अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।।
    परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुरुत्तमपर्वतः।
    ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।

    कुछ भेद के साथ यह पङ्क्ति ‘अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः’ तो वनपर्व ८२:१०७ में दृष्ट होती है, परन्तु ‘हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः’ वहाँ पर नहीं है। इसी प्रकार कुछ भेद के साथ भीष्म ६:१० में
    ’परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुकनकपर्वतः’ तो है, परन्तु आपकी दी अग्रिम पङ्क्ति ‘ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः’ नहीं है!

    स्पष्ट है, स्व-परिकल्पना को सिद्ध करने के लिये निश्चय ही कुछ तो हेर फेर कुछ तो चतुतराई का आश्रय लिया गया है।
    आपकी ओर से सुनने के उपरान्त ही हमारे लिये अपने विचार रखना, टिप्पणि करना योग्य होगा। अतः कृपा कीजिये।

    प्रतीक्षा में,

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

  3. समय समय पर ऐसी कार्यशालाएं हों जिनमे ऐसी चर्चाएं ,गोष्टियाँ ,आयोजित की जावें तो महाविधायलयीन छात्रों शोध अवसर मिले. अभी ”बिंग बैंग ”थ्योरी प्रचलित है. हालांकि इस पर भी प्रश्न चिंन्ह हैं. जीव जगत विकास में डार्विन ‘का ‘विकास वाद सिद्धान्त ही सर्वोपरि है. ये सिद्धांत तर्कों से प्रमाणित मने जाते जाते हैं. किन्तु आपने जिन शास्त्रों का आधार लेकर बातें बतायी हैं उन पर चर्चा आवश्यक है.

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