क्या एक महिला दूसरी महिला की पीड़ा को समझती है ?

भारतको अंग्रेजी शासन से आज़ाद हुए छह दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन आज भी लिंग आधारित भेदभाव और महिलाओं पर अत्याचारों में कोई कमी नहींआई है। महिला सशक्तिकरण और महिला उत्थान के लिए आज भी ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है। निर्भया कांड पर बीबीसी की वृत्त फिल्म ‘इंडिया डॉटर’ के औचित्य पर कई तरह के सवाल उठ खड़े हुए हैं। फिल्म के प्रसारण को रोकने की सरकारी स्तर पर की गई कोशिश ने उसे इतना प्रचारित कर दिया कि बलात्कार की समस्या पर एक बार फिर वैचारिक और सैद्धांतिक विमर्श का लंबा सिलसिला शुरू हो गया। संसद में भी आवाजें उठीं। वृत्त फिल्म में निर्भया कांड के दोषी सेबातचीत और उसमें अपनी कायराना हरकत को जायज ठहराने की उसकी कोशिश ने एककड़वा सच सामने ला दिया। उस सच को सामने लाना चाहिए या नहीं इस पर अलग-अलगराय सामने आई। अगर इस मानसिकता को सामाजिक स्तर पर देखा जाये तो यह कुचक्र शुरू होता है बचपन से, जन्म से पहले ही कन्या भ्रूण-हत्या की मानसिकता और फिर जन्मने के बाद भी न जाने किन-किन कुरीतियों का सामना करना पड़ता है, जोकई स्तर पर बंटी होती है जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक कुरीतियां, महिलाअशिक्षा आदि। इसे यदि धार्मिक नजरिए से देखें तो इसमें बहुप्रचारित मर्यादाका कोई मामला नहीं बनता। मर्यादा क्या है? संस्कारों और परंपराओं मेंलिपटी इसकी सीख भी हर तरफ से मिलती रही है। कुल मिलाकर सामाजिक, सांस्कतिकऔर धार्मिक संगठनों की जो भी सामने आती रही है वह यह है कि महिला अगर अपराध की शिकार होती है तो उसके लिए उसकी आधुनिकता, उसका रहन-सहन दोषी है। ऐसेमें कोई भी बहस हो जाए, कितने भी कानून क्यों न बन जाएं समस्या का कोईसमाधान नहीं सकता। इस लिहाज से राजस्थान की स्थिति तो और भी खराब है। चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र हो या फिर शहरी आज भी महिलाओं को वेतन और वित्तीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वर्तमान राजस्थान सरकार प्रदेश में बालविवाह को भी नियंत्रित करने में पूरी तरह से नाकाम रही है, जो कि राज्य कीएक गंभीर सामाजिक बुराई है। महिलाओं से जुड़ी अन्य कई समस्याएं है। जिनमेंमहत्पूर्ण है राज्य में बढ़ती शिशु मृत्यु दर व बाल विवाह से उपजी अशिक्षा वगरीबी। सेम्पल रजिस्ट्रेशन सर्वे ने हाल में एक सर्वेक्षण प्रकाशित कियाजिसमें दशाया गया की भारत में केवल दो ही राज्य ऐसे है जिनमें बाल विवाहहोने का प्रतिशत सबसे अधिक है। इन राज्यों में राजस्थान को भी शामिल कियागया है। हाल में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा प्रकाशित एकरिपोर्ट खुलासा करती है कि देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों औरअपराधों में राजस्थान का स्थान दूसरे नंबर पर आता है। वहीं दिल्ली और मुंबईके बाद राज्य की राजधानी जयपुर में महिलाओं के साथ होने वाले कुकृत्य सबसेअधिक होते है। जयपुर जो कभी महिलाओं के लिए एक सुरक्षित शहर माना जाता था, उसका हाल इस समय संदिग्ध है। कहा जाता है कि एक महिला ही दूसरी महिला कीसमस्या को अच्छी तरह से समझ व जान सकती है लेकिन राजनीतिक संदर्भों यह बातबेमानी लगती है। राजस्थान में अपराधों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। प्रदेशमें प्रति एक लाख महिलाओं पर अपराध दर 83.13 दर्ज की गई जो महज असम औरत्रिपुरा से पीछे है जहां अपराध दर क्रमश: 113.93 और 8 9 है।  आंकड़ों केअनुसार बीते साल प्रदेश में 3,28 5 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जबकि सबसेअधिक मामले मध्यप्रदेश में (4,335) दर्ज किए गए। इसी तरह से अपहरण के मामलेमें भी प्रदेश उत्तर प्रदेश और असम के बाद तीसरे स्थान पर है। बीते सालदहेज से संबंधित मामलों में भी हैरत अंगेज रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। प्रदेशमें बीते साल 453 दहेज हत्या के मामले दर्ज किए गए जो देश में चौथे स्थानपर है। आंकड़ों के अनुसार घरेलू हिंसा के मामले में राजस्थान महज पश्चिमबंगाल से ही पीछे है। प्रदेश में बीते साल 15 हजार से अधिक घरेलू हिंसा केमामले दर्ज किए गए। राजधानी जयपुर की बात करें तो यहां  बीते साल 192 बलात्कार के मुकदमे दर्ज किए गए। रेप के मामलों में जयपुर ने चेन्नई, बैंगलोर और हैदराबाद जैसे कई बड़े शहरों को भी पीछे छोड़ दिया। राष्ट्रीयअपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में बलात्कार के मामले 2012 में 24923 से 35 फीसदी बढ़कर 2013 में 33707 दर्ज किए गए जिसमें सबसेअधिक मामले मध्य प्रदेश में दर्ज किए गए और जिसके बाद महाराष्ट्र, राजस्थानऔर उत्तर प्रदेश हैं। गत वर्ष मध्य प्रदेश में बलात्कार के कुल 4335 मामलों की जानकारी मिली, महाराष्ट्र में 306 3, उत्तर प्रदेश में 3050 मामले सामने आए। 2012 में मध्य प्रदेश में 3425 मामले, महाराष्ट्र में 18 39 मामले और उत्तर प्रदेश में 196 3 मामले दर्ज किए गए। 2013 में असम मेंबलात्कार के 1937 मामले दर्ज किए गए, पश्चिम बंगाल में 16 8 5, दिल्ली में 16 36  मामले, आंध्र प्रदेश में 16 35 मामले, छत्तीसगढ़ में 138 0 मामले, केरल में 1221 मामले, झारखंड में 1204 और गुजरात में 732 मामले दर्ज किएगए। चर्चित भंवरी देवी सामूहिक बलात्कार के मामले में राजस्थान के उच्चन्यायालय (जिसके प्रांगण में मनु की मूर्ति लगी है) ने सभी आरोपियों को बरीकर दिया।  न्यायालय भले ही उस अपराध को महसूस न कर पाया हो, महिलाओं ने उसदर्द को महसूस किया। भंवरी देवी ने लड़ाई लड़ी; उनके लिए यह अस्मिता, सम्मानऔर भविष्य में औरतों के लिए बेहतर समाज के निर्माण की लड़ाई बन गयी। यहमामला सर्वोच्च न्यायालय में आया, तब बात और साफ़ हुई कि कार्यस्थल परमहिलाओं के साथ लैंगिक हिंसा हो रही है, पर एक भी कामून उनके संरक्षण केलिए बना ही नहीं है। तब वर्ष १९९७ में सर्वोच्च न्यायलय ने कार्यस्थलों परमहिलाओं के साथ लैगिक दुर्व्यवहार के सन्दर्भ में दिशा निर्देश जारी किये।अब भारत सरकार और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे अदालत के आदेश कातत्परता और शीघ्रता से पालन करते। यह साफ़ तौर पर कहा गया कि ये मामलासंविधान के अनुच्छेद १४, १५, १९(१) और २१ में दर्ज किये गए मौलिक अधिकारोंके जुडा हुआ है। ये प्रावधान कहते हैं कि भारत में रहने वाले व्यक्ति केसाथ समानता का व्यवहार, आजीविका अर्जित करने, शोषण से मुक्ति पाने औरसम्मानजनक जीवन का अधिकार है. यह राज्य (स्टेट) का दायित्व है कि वह इनअधिकारों का संरक्षण करे। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। विशाखा दिशा निर्देशों केजारी होने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने लैगिक उत्पीडन की परिभाषा कोविस्तार दिया वर्ष २००१ में आयोग ने महिला समूहों और संगठनों के साथ संवादकरके इस मसले पर एक प्रारूप विधेयक भी बनाया। बस इसी तरह कुछ कागज़ी घोडेदौडते रहे। १६ दिसम्बर २०१२ की तारीख आने के कुछ दिन पहले ही १९ अक्टूबर२०१२ को एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ (न्यायमूर्ति आर.एस. लोढा, न्यायाधीश अनिल आर. दवे और न्यायाधीश रंजनगोगोई) ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की – “महिलाओं के साथ लैगिक उत्पीडन को रोकनेके लिए बनाए गए विशाखा दिशा निर्देश आये १५ साल हो चुके हैं, पर संविधानके अनुच्छेद १४१ के तहत अब भी इसके सन्दर्भ में संसद द्वारा क़ानून बनायाजाना बाकी है। अब भी कई महिलाओं को कार्यस्थल पर अपने बुनियादी हकों के लिएसंघर्ष करना पड़ता है। संविधान बनाने वालों के उस सपने को अभी पूरा कियाजाना बाकी है कि भारत में महिलाओं को कार्यस्थल पर समानता और न्याय काअधिकार मिलेगा”। अदालत में दाखिल किये गए शपथ पत्रों को देख कर अदालत ने यहभी कहा कि सरकारों को उत्पीडन रोकने के लिए व्यवस्था बनानी होगी औरउत्पीडन पर कार्यवाही करना नियोक्ता (जो व्यक्ति या संस्था काम पर रखरहा/रही है) की ही जिम्मेदारी होगी। १८६१ में बनी पुलिस व्यवस्था भारत मेंकेस दर्ज न करके बलात्कार को छिपाने में मददगार बनती है और यदि व्यवस्थाठीक तो भी भारतीय परिवार और समाज स्त्री को ही अपराधी मान कर उसे शोषणस्वीकार कर लेने के लिए बाध्य करता है।एक और शर्मनाक पहलू यह भी है जोदिल्ली पुलिस के ताजा सर्वे से सामने आता है इसके मुताबिक महिलाओं के साथबढ़ रहे अपराध के ६० फीसदी मामले घरों के भीतर ही होते हैं। इस ताजारिपोर्ट के मुताबिक, साल २०१४ में दर्ज हुए २२७६ यौन हिंसा मामलों में से१७६७ मामलों पीड़िता के घर से जुड़े थे। इन मामलों में अपराधी पीड़ित महिलाके रिश्तेदार या जान-पहचान वाले थे। दिल्ली पुलिस द्वारा तैयार किए गएरिपोर्ट के मुताबिक १४५० मामले ऐसे थे जिनमें महिला आरोपी को पहचानती थी।वहीं ३१७ मामलों में महिला पर हमला करने वाला कोई रिश्तेदार ही था। वहीं२६३ मामले ऐसे थे जिसमें लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों ने दर्ज कराएथे।

बदलाव के लिए असल में क़ानून बनाने की ही नहीं बल्कि उसकेक्रियान्वयन की भी पहल करना होगी। अब सरकार ने महिलाओं का कार्यस्थल परलैंगिक उत्पीडन (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोषण) क़ानून २०१३ बना दिया है, जो लैंगिक उत्पीडन के खिलाफ महिलाओं को एक कानूनी आत्मविश्वास देता है।लेकिन हमें जरा यह भी सोच लेना चाहिए कि क्या इस क़ानून को लागू करने के लिएहर कार्यस्थल से लेकर न्याय व्यवस्था तक खुदमुख्तार ठोस और सक्रियव्यवस्था की जरूरत नहीं पड़ेगी? यदि हाँ; तो क्या ये सरकारें, वह व्यवस्थाबनाने के लिए तैयार हैं ? क्या राज्य के पास यौन हिंसा और स्त्री-विरोधीअपराध के समाजशास्त्र की कोई मौलिक समझ है? कदापि नहीं ! ऐसा इसलिए कहना पड़रहा है कि आज भी लैंगिक उत्पीड़न बेरोक टोक जारी हैं, बलात्कारों की संख्याबढ़ रही है और सरकारें बांसुरी बजा रही हैं। यदि महिलाएं अपने को सुरक्षितमहसूस नहीं करती हैं तो कहीं समाज का ताना बाना टूट चुका है। यह एकमानवाधिकार का भी मुद्दा है, और पुरुषों एवं महिलाओं को इस अन्याय के खिलाफलड़ना चाहिए और इसका समाधान ढूंढने के लिए एक साथ खड़े होना चाहिए। हमेंविश्व स्तर पर हाथ मिलाकर मानवीय मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए औरमहिलाओं के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार को रोकने के लिए मिलकर आवाज उठाने की आवश्यकता है।

1 COMMENT

  1. महिला ही महिला को प्रताड़ित करती है, यदि नव विवाहिता से पूछो तो ”सास” नननद”ये शब्द उसे कहाँ तक प्रिय है?इसका सर्वेक्षण हो जाय यदि किसी कार्यालय में महिला अधिकारी है तो उसका वर्ताव महिलाओं के साथ कैसा है इसका सर्वेक्षण हो. और ये प्रश्न महिला से ही पूछे जावें. लड़कियों का अपहरण कर उन्हें देह व्यापार में धकलने में पुरुष और महिला का अलग अलग %कितना है. ये सब प्रश्न ,एक प्रश्नावली बनाकर महिलाओं के सभी वर्गों जैसे कामकाजी, गृहिणियोन के सामने रखकर व्यवस्थित अध्ययन हो.to मेरा मानना है की यह तथ्य उभरकर आ सकता है की ”महिलायें ही महिलाओं को प्रताड़ित करती

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