सरहद के निवासी होने का दर्द

शौकि़न तब्बसुम

धरती का स्वर्ग कहलाने वाली रियासत जम्मू-कश्मी्र दुनिया भर में अपनी अनुपम सुंदरता के लिए पहचाना जाता है। जिसे देखने के लिए विश्व के कोने कोने से पयर्टक सालों भर इस राज्य का रूख करते रहते हैं। हालांकि राज्य के नागरिकों को पिछले दो दहाईयों में अलगाववाद के वीभत्स आग में भी झुलसना पड़ा। जिसकी निशानी आज भी उनके दैनिक जीवन में नज़र आती है। राज्य की जड़ों तक फैले भ्रष्टाीचार ने उनकी परेशानियों को बढ़ाने में आग में घी काम किया। विषम राजनीतिक परिस्थितियों ने यहां के विकास में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न की है। पाकिस्तान की सीमा से सटा जम्मू का पुंछ इलाका न सिर्फ अपने एतिहासिक महत्व के कारण प्रसिद्ध है बल्कि यह कश्मीसर के अन्य क्षेत्रों की तरह ही अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी जाना जाता है। बर्फ से ढ़ंके पहाड़ और कलकल बहती नदियां हर किसी को अपनी ओर खींचती हैं। यह क्षेत्र न सिर्फ सूफी संतों की सरज़मीं रही है बल्कि बटवारे के बाद दोनों देशों के बीच से प्रमुख व्यापारिक मार्ग भी बन चुका है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सप्ताह संचालित होने वाली पुंछ-रावलाकोट बस सर्विस भी दोनों देषों के बीच अमन का कारवां के रूप में काम करता है।

यह तो हुआ सिक्के का वह पहलू जो इस राज्य की चमकती छवि को प्रस्तुत करता है। मगर दूसरा पहलू यह है कि यहां के निवासियों को जिस प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है वैसी परेशानियां शायद ही देश के अन्य क्षेत्रों के रहने वालों उठानी पड़ती होंगी। पाकिस्तान की सीमा से सटे होने के कारण हर समय यहां किसी न किसी प्रकार की गतिविधियां संचालित होती रहती हैं। देश में होने वाले राजनीतिक उठापटक का असर यहां के रहने वालों को भी अवष्य प्रभावित करता है। इसका उदाहरण पुंछ जि़ला हेडक्वार्टर से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर स्थित नोना बांडी गांव है। बर्फ की सफेद चादर से लिपटी छोटी बड़ी पहाडि़यों के बीच नोना बांडी क्षेत्र का आखिरी इंसानी बस्ती है। जिसके कुछ मीटर की दूरी के बाद पड़ोसी देश पाकिस्तान की सीमा शुरू हो जाती है। बुनियादी सुविधाओं से वंचित नोना बांडी के लोग हर समय संघर्षमय जीवन जीने को मजबूर हैं। सीमा के आरपार होने वाली फायरिंग और विस्फोट ने गांव वालों की जिंदगी को नरकमय बना दिया है। जबकि इन हादसों में घायल होने वालों को मुआवज़ा के नाम पर महज़ खानापूर्ती कर दी जाती है। ऐसे लोगों को मामूली रक़म दी जाती है जो न तो उनके इलाज के काम आता है और न ही घर का महीने भर का खर्च पूरा कर पाता है। इस गांव के करीब हर घर में ऐसे सदस्य मिल जाएंगे जो किसी न किसी प्रकार से सीमा पर होने वाली गोलीबारी अथवा विस्फोट के कारण विकलांगता के शिकार हुए हैं।

सरहद पर होने वाली ऐसी ही एक सैनिक गतिविधियों का दो वर्ष पूर्व मो. असलम का परिवार भी शिकार हो चुका है। दैनिक मज़दूरी करने वाले असलम के चार बच्चे हैं। लेकिन उसकी बड़ी बेटी शाहीन बारूदी सुरंग की चपेट में आने के कारण उम्र भर के लिए विकलांगता की शिकार हो चुकी है। मो. असलम के अनुसार ‘‘दो साल पहले हमारे चारो बच्चे अपने घर के आंगन में खेल रहे थे कि अचानक एक विस्फोटक वस्तु आकर गिरी। उस धमाके ने हमारी दुनिया ही उजाड़ कर रख दी। जब हम परिवार के लोग भागकर आंगन में पहुंचे तो दृष्य बहुत ही भयानक था। चारों बच्चे खून से लथपथ बिना पानी की मछली की तरह जमीन पर तड़प रहे थे। मैं तो उस वक्त अपना होश हवास खो बैठा था। किसी प्रकार गांव वालों की मदद से बच्चों को लेकर पुंछ के जि़ला अस्पताल पहुंचा। जहां उनका प्राथमिक उपचार किया गया। लेकिन 13 वर्षीय शाहीन के घाव इतने गहरे थे कि पुंछ अस्पताल में उसका इलाज नामुमकिन था। इसलिए डॉक्टरों ने उसे फौरन जम्मू के किसी बड़े अस्पताल में ले जाने की सलाह दी। इस विस्फोट में शाहीन की एक आंख और हांथ बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया। उसके आंखों का इलाज अमृतसर में चल रहा है। आप सोंच सकते हैं कि नोना बांडी से अमृतसर जाना कितना खर्चीला है, लेकिन अपनी बेटी के लिए मैं हर कठिनाईयां सहने को तैयार हूं।‘‘ अपनी बेटी के ईलाज के लिए मो. असलम ने न सिर्फ अपनी पुश्तै नी जमीन गिरवी रख दी बल्कि कर्ज भी ले चुके हैं। जिसे चुकाना एक दैनिक मजदूर के लिए बहुत मुश्किल है। अब उनके सामने घर का खर्च पूरा करना भी मुश्किल होता जा रहा है। इस दुघर्टना के लिए सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाला मुआवज़ा भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ चुका है। असलम कहते हैं कि जितना मुझे मुआवज़ा मिल रहा था उसे पाने के लिए डीसी ऑफिस पुंछ में मुझसे उतने ही रिश्वओत मांगे जा रहे थे। इसलिए मैंने नहीं लेने में ही अपनी भलाई समझी।

शाहीन के साथ हुए इस दुघर्टना से संबंधित खबरें दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संस्था चरखा के माध्यम से उर्दू और अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले कई समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन राज्य सरकार इस विषय पर अबतक चुप्पी साधे हुए है। ऐसे में प्रश्नप उठता है कि क्या हमारी सरकार देश की रक्षा के नाम पर केवल जमीन और पहाड़ों की रक्षा को ही सर्वोच्च प्राथमिकता मानती है अथवा इसमें बसने वाले इंसानों की भी कद्र की जाएगी? आज इन सीमावर्ती क्षेत्रों में बसने वाले हजारों लोग सरकार की ओर इस उम्मीद से देख रहें हैं कि कभी तो उसे यह समझ में आ ही जाएगा कि जमीन और पहाड़ों के अतिरिक्त इनमें बसने वाले भी इसी देश के हिस्से हैं और उनकी रक्षा भी हमारी प्राथमिकता में होनी चाहिए। उम्मीद है कि शाहीन के इलाज का खर्च उठाकर सरकार इस बात का संदेश देगी कि केवल जम्मू-कश्मीार ही नहीं बल्कि उसके निवासी भी इसी देश का हिस्सा हैं। (चरखा फीचर्स)

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