अवसरवाद की राजनीति

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advani nitishजनता दल (यू) और भाजपा के डेढ़ दशक पुराने रिश्ते का टुटना किसी सैद्धांतिक विचारधारा के टकराव का नतीजा नहीं बल्कि अवसरवादी राजनीति का फलसफा है। बेशक हर राजनीतिक दल की तरह जनता दल (यू) को भी नए समीकरण गढ़ने-बुनने का अधिकार है। लेकिन उसके द्वारा राजग से अलग होने के जिन कारणों को गिनाया गया है वह कुतर्को से कुछ ज्यादा नहीं है। उसका यह कहना कि जिन नीतियों और सिद्धांतों को लेकर राजग का गठन हुआ उससे भाजपा दूर हुई है, इससे सहजता से यकीन नहीं किया जा सकता। पिछले 17 सालों में भाजपा ने ऐसा कोई व्यक्तिगत राजनीतिक निर्णय नहीं लिया जिससे राजग के उद्देश्य प्रभावित हुए हों। यहां तक कि उसने अपने परंपरागत राजनीतिक मुद्दे राममंदिर निर्माण, कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और समान नागरिक संहिता को भी बर्फखाने में डाल दिया। सच्चाई यह है कि आज यूपीए में शामिल अधिकांश राजनीतिक दल कभी एनडीए के भी घटक रह चुके हैं। 2004 के आमचुनाव में जब इन्हें लगा कि एनडीए दुबारा सत्ता में नहीं आ सकती तो वे धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़कर कांग्रेस के बगलगीर बन गए। अगर 2014 के आमचुनाव में भाजपा 200 सीटें लाने में सफल रहती है तो निश्चय मानिए ये अवसरवादी राजनीतिक दल पुनः एनडीए के आंगन में आ खड़े होंगे। तब उस समय इनके लिए न तो पंथनिरपेक्षता का कोई मतलब होगा और न ही मोदी को लेकर छाती धुनेंगे। सच यह है कि आज धर्मनिरपेक्षता और मोदी दोनों ही अवसरवादी राजनीतिक दलों के लिए एक ऐसा हथियार बन चुके हैं जिसका मतलब के हिसाब से इस्तेमाल किया जा रहा है। राजग से अलग होने के लिए जनता दल (यू) ने जिन बुनियादी उसूलों से अलग होने का भाजपा पर आरोप मढ़ा है उसका सिरा भी धर्मनिरपेक्षता से ही जुड़ता है। अन्यथा राजग से अलग होने का कोई अन्य बहाना नहीं हो सकता था। जनता दल (यू) के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं कि जब भाजपा द्वारा भरोसा दिया गया कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार राजग के सहयोगी दलों से विचार-विमर्श के बाद तय होगा तब वह गठबंधन से अलग होने का निर्णय क्यों लिया। जहां तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने का सवाल है तो यह भाजपा का आंतरिक मामला है और इस हक से उसे वंचित नहीं किया जा सकता। सभी दल अपनी सियासी जमीन मजबूत करने के लिए अपने लोकप्रिय चेहरे को आगे करते ही हैं। अगर भाजपा ने भी ऐसा किया तो गुनाह नहीं है। मजे की बात यह कि गठबंधन से अलग होने की सार्वजनिक घोषणा के दौरान नीतीश या शरद किसी ने भी मोदी का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा जबकि उनको ही टारगेट करके गठबंधन से अलग होने का निर्णय लिया गया। देखना दिलचस्प होगा कि जनता दल (यू) के इस फैसले को बिहार की जनता किस रुप में लेती है। लेकिन इस फैसले ने कई अहम सवाल जरुर खड़ा कर दिए हैं। मसलन जब 17 साल तक मोदी और भाजपा अछूत नहीं रहे तो अचानक सांप्रदायिक कैसे हो गए? अगर 2002 के गुजरात दंगे से मोदी पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लग सकता है तो अन्य राज्यों में हुए सांप्रदायिक दंगे के बाद वहां के मुख्यमंत्रियों की छवि धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकती है? सवाल यह भी कि जब मोदी की छवि धर्मनिरपेक्ष नहीं थी तो जनता दल (यू) ने राजग में सम्मिलित होने का फैसला क्यों लिया? ऐसा भी नहीं कि मोदी की भाजपा में इंट्री राजग के गठन के बाद हुई हो। गुजरात दंगा अगर राज्य प्रायाजित था तो जनता दल (यू) को 2002 में ही राजग से नाता तोड़ लेना चाहिए था। लेकिन तब उसके नेता शरद और नीतीश दोनों ही सत्ता का भोग लगाते रहे। मजे की बात यह कि 2002 के गुजरात दंगे के बाद जब रामविलास पासवान ने वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तब उस समय नीतीश ने इस बात के लिए उनकी जमकर आलोचना की और अवसरवादी तक कहा। आखिर क्यों? क्या तब मोदी धर्मनिरपेक्ष थे? अगर हां तो आज फिर सांप्रदायिक कैसे हो गए? सवाल यह भी कि जब मोदी की छवि धर्मनिरपेक्ष नहीं थी तो फिर नीतीश ने 16 दिसंबर 2002 को उनकी तारीफ क्यों की? गुजरात की जीत पर बधाई क्यों दी? इन सवालों का सटीक जवाब जनता दल (यू) के पास नहीं है। अब भाजपा जब उनके मोदी के तारीफ की सीडी बांट रही है तो वे किस्म-किस्म के कुतर्को से अपना बचाव कर रहे हैं। लेकिन उनकी दाल गलने वाली नहीं है। हां, उनके लिए राहत की बात यह जरुर है कि कांग्रेस और वामपंथी दलों ने उन्हें सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट जारी कर दिया है। लेकिन इस खेल को देश और बिहार की जनता अच्छी तरह समझ रही है। राजग से नीतीश के अलग होने के बाद अब सेक्यूलर दलों में इस बात की होड़ मच गयी है कि सबसे बड़ा मोदी विरोधी कौन है? जनता दल (यू) इस रेस में सबसे आगे निकलना चाहती है। दरअसल उसका मकसद बिहार में अपने को सबसे बड़ा सेक्यूलर साबित कर अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण कराना है। महाराजगंज संसदीय उपचुनाव में मिली हार ने उसका विश्वास हिला दिया है। वह इस निष्कर्ष पर जा पहुंची है कि 90 के दशक में जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवानी का रथ रोककर सेक्यूलरों के बीच सबसे बड़ा चैंपियन बन गए उसी तर्ज पर जनता दल (यू) भी मोदी की मुखालफत कर अल्पसंख्यकों के बीच लोकप्रिय हो सकती है। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। 17 साल भाजपा के साथ रहने की कीमत तो उन्हें चुकानी ही होगी। वैसे भी बिहार में 16.5 फीसदी अल्पसंख्यक मतों पर लालू की पकड़ ज्यादा है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मोदी की छवि भी अब पहले जैसी अल्पसंख्यक विरोधी नहीं रह गयी है। गुजरात में अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। तथ्य यह भी कि बिहार में नीतीश सरकार ने अल्पसंख्यकों के हित में जितने भी निर्णय लिए हैं भाजपा उसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश करेगी। इसका संकेत सुशील मोदी ने दे दिया है। कहने का तात्पर्य यह कि लालू और नीतीश के लिए अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण कराना आसान नहीं होगा। भाजपा ने मोदी को अति पिछड़े वर्ग का नेता बताकर एक और नया दांव चल दिया है। बिहार में अति पिछड़े वर्ग की आबादी तकरीबन 9 फीसदी के आसपास है। माना जाता है कि इस वर्ग पर नीतीश की पकड़ ज्यादा है। लेकिन अति पिछड़ों के बीच जब भाजपा यह संदेश प्रसारित करेगी कि नीतीश अति पिछड़े वर्ग के नेता मोदी को प्रधानमंत्री बनने देना नहीं चाहते हैं तो नीतीश का नुकसान होना तय है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि बिहार में उच्च वर्ग की आबादी तकरीबन 21 फीसदी के आसपास है। और यह परंपरागत रुप से भाजपा का वोटबैंक माना जाता है। अगर यह भाजपा के पक्ष में बना रहा तो जनता दल (यू) को भारी राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। देखना दिलचस्प होगा कि राजग से अलग होने के बाद बिहार की राजनीतिक तस्वीर क्या बनती है। वैसे फिलहाल नीतीश सरकार के अस्तित्व के लिए कोई खास खतरा नहीं है लेकिन वे चुनौतियों के घेरे में जरुर हैं।

2 COMMENTS

  1. Bhajpa modi को aage लाकर अपना हित आध रही है और इस से नितीश को घात हो रहा है तो वे न्द से बाह्र्जा रहेहैं इस me kisi को क्या परेशा.

  2. जिस दल का निर्माण ही अवसर का लाभ उठाने के लिए हुआ था,उससे आप और कुछ अपेक्षा रखते हैं तो यह गलत ही होगा नीव पर ही भवन खड़े होते हैं.इसलिए उनके इस कार्य से कोई गिला नहीं.

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