महात्मा गांधी से लेकर कांग्रेस के वर्तमान गांधी तक

gandhiदेशभक्तों को देशद्रोही और देशद्रोहियों को देशभक्त कहना कांग्रेस की पुरानी परंपरा है। अपनी इसी परंपरा के कारण कांग्रेस को देश विभाजन कराने में भी कोई कष्ट नही हुआ था। जिस समय देश के बंटवारे की विभीषिकाएं स्पष्ट दिखने लगी थीं और लोगों को लगने लगा था कि कभी भी कुछ भी होना संभव है, अर्थात जिन्ना ही हठ के सामने कांग्रेस जिस प्रकार शिथिल होती जा रही है उससे अंग्रेज देश का विभाजन कभी कर सकते हैं। उसी समय मौहम्मद अली जिन्ना को ‘कायदे आजम’ अर्थात ‘महान नेता’ कह-कहकर पुकारने वाले कांग्रेस के नेता गांधीजी ही थे। उनके द्वारा जिन्ना को दिये गये इस सम्मान से और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ब्रिटिश सत्ताधीश भी जिन्ना की कीमत दिन-प्रतिदिन बढ़ाते चले गये। अंग्रेज जिन्ना को ‘देश तोडक़’ के रूप में स्थापित करते जा रहे थे और महात्मा गांधी उसका तुष्टिकरण करते-करते उसके सामने लगभग समर्पण करते जा रहे थे। इसी प्रकार के परिवेश में अंत में देश बंट गया था।महात्मा गांधी

जब देश में ‘शहीदे-आजम’ भगतसिंह और उनके साथी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से देशभक्ति का रोमांचकारी परिवेश बनाने में पूर्ण सफल हो गये थे, तब तक कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता की मांग तक नही कर पा रही थी। वह इस ऊहापोह में ‘अटकी-भटकी’ पड़ी थी कि भारत की पूर्ण स्वाधीनता की मांग की जाए या नही। इसके विपरीत हमारे क्रांतिकारी देशभक्तों के संघर्ष का केवल एक ही घोषित लक्ष्य था-‘साम्राज्यवाद तेरा नाश हो’ अथवा ‘उपनिवेशवादी व्यवस्था का अंत हो।’ स्वतंत्रता आंदोलन के काल में कांग्रेस हमारे देशभक्तों को उसी दृष्टिकोण से देखती रही जिस दृष्टिकोण से उस समय अंग्रेज इन भारतीय क्रांतिकारियों को देखते थे। अंग्रेजों की दृष्टि में ये ‘भारतीय क्रांतिकारी राजद्रोही’ थे, इसलिए ब्रिटिश सत्ताधीश हमारे इन क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाने के लिए सदा तत्पर रहते थे। कांग्रेस भी अपने आकाओं के संकेत और मनोभाव को समझकर वैसा ही करने लगती थी या करने का संकेत करती थी जैसा कि उनसे उसके ब्रिटिश आका कराना चाहते थे। हमारे क्रांतिकारियों की मनोभावना को स्पष्ट करने वाला शहीद भगतसिंह का 22 मार्च 1931 को लिखा गया वह अंतिम पत्र है, जो उन्होंने अपने साथियों को लिखा था। उस दिन सेंट्रल जेल के ही 14 नंबर वार्ड में रहने वाले कुछ बंदी क्रांतिकारियों ने भगतसिंह को लिखा था-‘‘सरदार! यदि आप फांसी से बचना चाहते हैं तो बताएं। इन घडिय़ों में भी संभवत: कुछ हो जाए।’’

तब उस क्रांतिकारी ने लिखा था-‘‘साथियो! जिंदा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नही चाहता। लेकिन मेरा जिंदा रहना मशरूत (एक शर्त पर) है। मैं कैद या पाबंद होकर जिंदा रहना नही चाहता। मेरा नाम हिंदुस्तानी इंकलाब पार्टी (भारतीय क्रांति) का निशान (मध्य बिन्दु) बन चुका है और इंकलाब पार्टी (क्रांतिकारी दल) के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है। इतना ऊंचा कि जिंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हर्गिज नही हो सकता।

आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नही हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और इंकलाब का निशान मद्घम पड़ जाएगा, या शायद मिट ही जाए। लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते -हंसते फांसी पाने की सूरत में हिंदुस्थानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि इंकलाब को रोकना इम्पीरियलिज्म की तमामतर (संपूर्ण) शैतानी शक्तियों के बस की बात नही रहेगी।

हां, एक विचार आज भी मेरे दिल में चुटकी लेता है। देश और इंसानियत के लिए जो कुछ हसरत मेरे दिल में थी उसका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नही कर पाया। अगर जिंदा रहता, रह सकता तो शायद इनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरत पूरी कर पाता। इसके सिवाय कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बचने का कभी नही आया।

मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा? मुझे आजकल अपने आप पर बहुत नाज है। अब तो बड़ी बेताबी से आखिरी इम्तहां का इंतजार है। आरजू है कि यह और करीब आ जाए।’’

उसी रात सरदार भगतसिंह ने अपने अनुज कुलतारसिंह के लिए अपने जीवन का अंतिम पत्र लिखा-

अजीज कुलतार

आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बड़ा दर्द था। तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नही होते। बरखुरदार! हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौंसला रखना और क्या कहूं :-

उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे जफा क्या है?
हमें यह शौक है-देखें सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहे चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहां अदू सही आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूं एक अहले महफिल,
चरागे सहर हूं बुझा चाहता हूं।
मेरी हवाओं में रहेगी ख्यालों की बिजली
यह मुश्त-ए-खाक हूं फानी रहे रहे न रहे।

अच्छा रूखसत। ‘खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। हौंसले से रहना।’’

…और अगले दिन भारत का यह शेर फांसी के फंदे पर झूल गया। जिस समय सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी लगायी गयी थी उस समय गांधीजी अंग्रेजों के साथ गंभीर गोलमेज सम्मेलनों में व्यस्त थे। उन पर यह आरोप है कि यदि वह चाहते तो भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा को अपने प्रभाव का प्रयोग करते हुए अंग्रेजों से क्षमा करा सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा नही किया। कारण कि वह स्वयं हमारे क्रांतिकारियों को उसी दृष्टि से देखते थे जिस दृष्टि से उन्हें अंग्रेज देखते थे। इसलिए देश की स्वतंत्रता के लिए लड़े जा रहे क्रांतिकारी आंदोलन का गांधीजी और उनके साथियों ने या कांग्रेस ने कभी भी समर्थन नही किया। यदि अंग्रेजों की दृष्टि में हमारे क्रांतिकारी उग्रवादी या राजद्रोही थे तो कांग्रेस भी उन्हें ऐसा ही मानती थी।

कांग्रेस की इसी परंपरागत विचारधारा को हमारे राहुल गांधी मानते हैं। इनकी दृष्टि से देखिए तो कश्मीर में हाड़ गलाने वाली बरफ में देश की सुरक्षा के लिए खड़े हमारे सैनिकों की पीठ पीछे ‘पाकिस्तानी मुजाहिदों-हम तुम्हारे साथ हैं’ का नारा लगाकर हमारे सैनिकों का मनोबल तोडऩे वाले देशद्रोही इनके लिए देशभक्त हैं और हमारे वीर जवान केवल मरने के लिए पैदा हुए बेबस प्राणी हैं। इसका अभिप्राय है कि कांग्रेस ने देशद्रोही और देशभक्तों की अपनी परंपरागत परिभाषा में आज भी कोई संशोधन नही किया है। इन्होंने अफजल को गंगाजल जैसा पवित्र मान लिया है और अपने इस नये अवतार को अपने ‘ड्राइंग रूम’ में स्थान दे दिया है। भारत माता के आंगन में लगता है फिर किसी जिन्ना को ‘कायदे आजम’ बनाने की तैयारी कांग्रेस का ‘वर्तमान गांधी’ कर रहा है। देश को समझना होगा कि फिर यदि किसी जिन्ना का महिमामंडन कर उसे किसी नये अवतार में प्रस्तुत करने का प्रयास किया तो देश की एकता और अखण्डता तार-तार हो जाएगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here