उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल?

प्रमोद भार्गव

education2

हमारे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री डां मनमोहन सिंह दीक्षांत समारोहों और विज्ञान दिवस के अवसरों पर उच्च शिक्षा में गुणवत्ता कमजोर होने का सवाल उठाते रहे हैं। उन्हें गहरी चिंता है कि दुनिया के श्रेष्ठतम 200 विश्वविधालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविधालय शामिल नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र का ढांचागत विस्तार पर्याप्त नहीं है, जबकि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था वक्त की जरूरत है। लिहाजा निजी और सरकारी क्षेत्र को हाथ मिलाकर नवाचारों को स्थानीय स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के कमोवेश ऐसे ही एकरूपता वाले उदबोधनों से संकेत मिलता है कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का निजीकरण करके उसका संपूर्ण अंग्रेजीकरण कर दिया जाए,जिससे वैश्विक बाजार को उत्पाद बेचने वाले सस्ती दरों पर अभिकर्ता ;एजेंट मिलते जाएं। यहां गौरतलब है कि भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद के अवतार लेने और उच्च शिक्षा के निजीकरण से पहले ही सरकारी शिक्षण संस्थानों से शिक्षा प्राप्त भारत के वैज्ञानिक,चिकित्सक और अभियंता बड़ी संख्या में पश्चिमी देशों में फैलकर अपने शैक्षिक व बौद्धिक गुणवत्ता का लोहा मनवा रहे हैं, यह कैसे संभव हुआ ? और फिर कालांतर उच्च शिक्षा का निजीकरण करते हुए, औपनिवेशिक मानसिकता को विकसित करने वाले टापू खड़े कर दिए जाने के बावजूद शिक्षा में गुणवत्ता का लोप क्यों हो रहा है? गुणवत्ता के इस शैक्षिक क्षरण का दोषी कौन है?

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के ये बयान टाइम्स हायर एज्युकेशन नामक पत्रिका में छपी उस सूची के आधार पर दे रहे हैं, जिसमें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ दौ सौ विश्वविधालयों को दर्ज किया गया है। लेकिन भारत का कोर्इ भी विश्वविधालय सूची में शामिल नहीं है। हाल ही में रोजगार के लायक योग्यता परखने वाली संस्था एस्पाइंरिंग माइंडस ने 60,000 छात्रों का टेस्ट लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। इस बौद्धिक परीक्षण में अंग्रेजी संवाद कौशल, कंप्युटर दक्षता, विष्लेशण एवं संज्ञानात्मक कौशल तथा बुनियादी लेखा विषय शामिल थे। इस परीक्षण में केवल 2 प्रतिशत छात्र ऐसे पाए गए जो कंपनियों में नौकरी पाने की योग्यता रखते है। इसके अलावा दो फीसदी लेखा और तीन फीसदी विषय विश्लेषक की नौकरी पाने की योग्यता में समर्थ पाए गए। जबकि 36 प्रतिशत छात्र लिपिक व सचिव, 21 प्रतिशत कांल सेंटरो में काम करने के लायक और लगभग 15 प्रतिशत छात्र विक्रय अभिकर्ता और उपभोक्ता सेवा देने मे दक्ष पाए गए। बुद्धि परीक्षण करने वाला यह दल छोटे नगरों और कास्बों में पहुचां तो डिग्रीधारियों की शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर और घटता चला गया। इस शैक्षिक दुर्बलता के सामने आने के बाद हम यह कह सकते है कि टाइम्स हायर एज्युकेशन पत्रिका का सर्वेक्षण कोर्इ अनूठा नही है। उच्च शिक्षा के गिरते स्तर की तस्दीक तब भी हुर्इं है, जब हमारे उच्च शिक्षित युवक सफार्इकर्मी और जल्लाद की नौकरी पाने के लिए अर्जियां लगाते रहें हैं। इस हकीकत को जानकर हम चिंतित क्यों नही होते ?

लेकिन अब सवाल उठता है कि यदि वाकर्इ हमारी उच्च शिक्षा की बदहाली की यही तस्वीर है तो इस स्थिति का निर्माण कैसे होने दिया गया?आजादी के पहले बि्रतानी हुकूमत में शैक्षिक परिस्थितियाँ विपरति होने के बावजूद हमने रामानुजम जैसे गणितज्ञ, जगदीशचंद्र्र बोस, चंद्र्रशेखर वेंकटरमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्र्रनाथ बोस जैसे अंतराष्ट्रीय  स्तर पर देश की गरीमा को महिमामंडित करने वाले वैज्ञानिक दिए। 1930 में वैज्ञानिक सोच व शोध का बुनियादी ढ़ाचा कामचलाउ था, तब वेंकट रमन ने हमें भौतिकी का नौबेल दिलाया था। किंतु विडंबना देखिए कि 83 साल बाद स्वतंत्र भारत में तमाम अनुसंधानात्मक संसाधनों की उपलब्धियों के बावजूद,दूसरा नोबेल पाने में हम सफल नहीं हुए। क्या ऐसा इसलिए हुआ कि विज्ञान व शिक्षा संस्थानों पर राजनीतिकों और नौकरशाही की तूती बोलने लगी ? भारत दुनिया का शायद ऐसा इकलौता देश है, जहां विज्ञान सबंधी गोश्ठीयों से लेकर यंत्रिक वैज्ञानिक उपलब्धियों तक का उद्रधाटन राजनीतिक करते हैं। वैज्ञानिक एवं औधोगिक अनुसंधान परिषद के होने वाले हरेक वार्षिक जलसे का दीप प्रज्वलित पं जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन तक सभी प्रधांनमंत्री करते चले आ रहे हैं। क्या यह सम्मान वैज्ञानिकों को नहीं दिया जा सकता है? ऐसे प्रयोजनों नवाचारी हताश हुए और अनुसंधान के वातावरण निर्माण पर अंकुश लगा। नतीजतन डां हरगोविंद खुराना, एस चंद्र्रशेखर और डा वेंकटरमन रामकृष्णन जैसी प्रतिभाओं ने पलायन किया और अपनी मेधा का परचम अमेरिका व ब्रिटेन में जाकर फहाराया और नौबेल पुरूस्कार प्राप्त किये।

हमें याद करने की जरूरत है कि जिस सरकारी शिक्षा ने आठवें दशक के अवसान तक गांवों-कस्बों से कनस्तर में उदरपूर्ति और कंधे पर बिस्तरबंद में ओढ़ने-बिछाने का सामान लेकर घर से निकले छात्रों में ही वैज्ञानिक, डाक्टर और इंजीनियर आर्थिक लाचारियों के बावजूद गढ़े थे, वहीं शिक्षा जब निजी संस्थानों के हवाले कर दी गर्इ तो डांक्टर,इंजीनियर बनने के लिए प्रतिस्पर्धा योग्यता की बजाए, पच्चीस-पचास लाख रूपये धनराशि की अनिवार्य शर्त हो गर्इ। राजनेताओं और नौकरशाहों ने भूमफियाओं शराब माफियाओं और चिट फण्ड कंपनियों के साथ मिलकर केंद्रीय विश्वविधालय और चिकित्सा, इंजीनियंरिंग व प्रबंधन के महाविधालय तक खोल उच्च शिक्षा को चौपट करने का काम कर दिया। क्या ऐसी मानसिकता वाले शिक्षा संचालक शिक्षा में गुणवत्ता लाने का काम कर सकते हैं ? उन्होंने तो पैसे से डिग्री बेचने का गोरखधंधा उच्च शिक्षा को मान लिया है। यही मुख्य वजह है कि आज शत-प्रतिशत शिक्षा ज्ञानोन्मुखी होने की बजाए केवल कंपनियां में नौकरी पाकर अर्थोन्मुखी होकर रह गर्इ है। जो वास्तव में नवाचारी प्रतिभांए हैं, वे तो अर्थाभाव के चलते उच्च शिक्षा से पूरी तरह वंचित ही हो गर्इ ? ऐसे विश्वविधालयों से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दुनिया के दो सौ शीर्शस्थ विवि की कतार में शामिल हो जांए। वे तो पैसा कमाने की होड़ में शामिल हैं।

यही वजह है कि तमाम शिक्षा संस्थान धांधलियों में शिरकत करते दिखार्इ दे रहे है। हाल ही में हैरानी में डालने वाली खबर आर्इ है कि देश के प्रमुख प्रबंधन संस्थानों में 2013-15 सत्र के लिए जो प्रवेश परीक्षा हुर्इ,उसमें 80 परीक्षार्थियों के अंकों में हेराफेरी पार्इ गर्इ। यह परीक्षा एमबीए के दो वर्षीय पाठयक्रम मे प्रवेश के लिए थी और इसको आयोजित कराने की जबावदेही भारतीय प्रबंधन संस्थान पर था। यह परीक्षा कामन एडमीशन टेस्ट यानी कैट के नाम से जानी जाती है। लेकिन इसमें गड़बड़ झाला का खुलासा खुद आर्इआर्इएम ने करके यह साफ कर दिया है कि पैसे के दखल ने संस्थानों की गरिमा को किस बद्रदर हाल में पहुंचा दिया है। उच्च शिक्षा में पलीता लगाने की दूसरी जानकरी विश्वविधालय अनुदान आयोग ने दी है। आयोग ने कहा है कि कर्इ विश्वविधालय और महाविधालय स्तर के शिक्षण संस्थान अखबारों में विज्ञापन देकर खुद को आयोग की फे्रचाइंज संस्था बताकर छात्रों से ठगी के कारोबार में लगे हैं। ये संस्थान निजी विश्वविधालय अथवा उनसे संबद्ध अध्ययन केंद्र होने का दावा करके निर्दोष विद्यार्थियों के साथ छलावा कर रहे हैं। जबकि यूजीसी ने छात्रों से आगाह किया है कि वे ऐसे संस्थानों से दूर रहें।

यहां सवाल उठता है कि छात्र या उसके अभिभावकों के पास ऐसा कौन सा पैमाना है, जो वे अवैध शिक्षा संस्थानों की पड़ताल कर सकें? कौनसा विवि वैध है और कौनसा अवैध इसकी पड़ताल तो आयोग ही कर सकता है?लेकिन आयोग महज प्रेस विज्ञपितयों या विज्ञापनों के जरिए छात्रों को आगाह करके अपने दायित्व की इतिश्रि मानकर चला है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। आयोग को खुद फर्जी शिक्षण संस्थानों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। अब यदि उच्च शिक्षा से जुड़ी संस्थाओं को नियंत्रित करने वाली संस्था यूजीसी ही उहापोह की स्थिति में है और कैट अंको की हेराफेरी में लगा रहकर योग्य पात्रों को दरकिनार कर रहा है तो फिर कैसे उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की उम्मीद की जाए और कैसे वास्तविक प्रतिभाएं उच्च शिक्षा ग्रहण करें, ये प्रमुख सोचनीय सवाल है ? इन सवालों के समाधान के लिए खुद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को आगे बढ़कर पहल करने की जरुरत है।

1 COMMENT

  1. मेरे विचार में शिक्षा क्षेत्र का व्यापक ब्यूरोक्रेटाईजेशन इसका एकमात्र कारण है क्योंकि हमारी ब्यूरोक्रेसी आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है और हर चीज को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है इसके लिए कागजी नियम और कायदे तो बहुत बनाए गए हैं लेकिन कुछ अच्छा करने की स्वतंत्रता अत्यंत सीमित है.क्या कारण है की हमारे आई आई टी और आई आई एम् से निकले विद्यार्थी विदेशो में प्रतिष्ठित कंपनियों में मुख्या कार्यकारी अधिकारी बन जाते हैं जबकि वाही लोग यहाँ पर एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाते हैं.इसका एक मात्र कारण जो मुझे समझ में आया है वहां काम करने और निर्णय लेने की स्वतंत्रता के कारण उनकी नेसर्गिक प्रतिभा को पूरी तरह प्रस्फुटित होने का अवसर मिल जाता है जबकि यहाँ उसे बंधनों में जकड कर आगे नहीं आने दिया जाता है.यही स्थिति विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों की है.मेरी जानकार एक लड़की जिसने यहाँ पर बी एस सी के बाद आगे दाखिला न मिलने के कारण एम् ए अंग्रेजी साहित्य में किया था, शादी होने के बाद अमेरिका चली गयी और वहां उसने एक संसथान में कंप्यूटर इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया तथा इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर थोड़े ही समय में अपने पति से भी आगे निकल गयी जो भारत से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद अमेरिका गया था.ऐसा करना भारत में असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है.तो आज़ादी सबसे बड़ी शर्त है किसी भी संस्थान को विश्व स्तर तक पहुँचने की.क्या कारण है की डॉ.चितरंजन रानावत भारत में एम्स में अयोग्य करार दे दिए गए और विदेश में जाकर वो विश्व स्तरीय घुटना प्रत्यारोपण विशेषग्य बन गए?क्या कारण है की डी.हरगोविंद खुराना यहाँ नाकाम हो गए और विदेश में जाकर नोबल प्राईज पा गए?क्या कारण है की डॉ.रमेश चन्द्र त्यागी अमेरिका में शीर्ष वैज्ञानिक थे जिन्हें इंदिरा गाँधी विशेष तौर पर भारत लायीं.और वो इन्फ्रा रेड तकनीक पर आधारित एंटी एयरक्राफ्ट मिजायिल तैयार कर रहे थे लेकिन उन्हें काम नहीं करने दिया गया और उनका अधिकांश जीवन अपनी सेवा के लिए मुक़दमे लड़ने में ही बीता?मेरा छोटा भाई इसरो में वैज्ञानिक था.वो एक वर्ष के लिए जर्मन एयरो स्पेस में गया.वहां के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने उसकी बहुत प्रशंशा करते हुए अपनी टिप्पणी भेजी.वापिस आने के कुछ समय बाद ही उसकी पदोन्नति के लिए डी.पी.सी. हुई.तो इसरो के वैज्ञानिक बोले की ये तो अभी जर्मनी होकर आया है.कुछ समय बाद प्रमोशन ले सकता है.लेकिन बाहर से आये विशेषज्ञों ने उसके कार्य को देखते हुए जोर दिया तब जाकर उसको पदोन्नति मिल पायी.खिन्न होकर उसने कुछ समय बाद ही इसरो छोड़कर एक मल्टीनेशनल कंपनी जोयन कर ली.इन सबसे केवल ब्यूरोक्रेटिक जकडन ही प्रगति को रोकती हुई दिखाई दे रही है.इसका हल ढूंढें बिना समाधान संभव होना मुश्किल लगता है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here