बूढे़ भारत में आई फिर से नई जवानी है

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डॉ. मनोज जैन

 

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भ्रकुटि तानी थी। बूढे भारत में आई फिर से नई जवानी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पक्तियां आज मानो फिर से जीवित हो उठी हैं। जन लोकपाल बिल के सर्मथन में और भ्रष्ट्राचार के बिरोध में देश में जिस प्रकार का ज्वार उठा है और राजनेताओं की जिस प्रकार की प्रतिक्रियायें आई हैं उनसे बचपन में याद की गई यह कविता फिर से हिलोंरे ले रही है।

स्वामी विवेकानन्द अमेरिका, इंगलैण्ड और सारे यूरोप में भारतीय आध्यात्म का डंका बजा कर जब भारत लौटे तो कोलम्बो से लेकर अल्मोड़ा तक सारे भारतीय उपमहाद्वीप में उनके स्वागत में उत्साह का जो गर्म लावा उमड़ा था वह कोलकाता में काली माता के मन्दिर दक्षिणेश्वर पहुंचते ही ठण्डी वर्फ में बदल गया क्यों कि दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारियों ने स्वामी विवेकानन्द को मंदिर में प्रवेश ही नहीं करने दिया था क्यों कि तत्कालीन मान्यताओं के अनुसार स्वामी विवेकानन्द समुद्रयात्रा करके अहिन्दू हो गये थे। एक म्लेच्छ फिर वह स्वंय विवेकानन्द ही क्यों न हों, का मंदिर प्रवेश तो असम्भव बात थी। दक्षिणेश्वर मंदिर वह स्थान है जहां रामकृष्ण परमहंस ने अपनी साधना और भक्ति के द्वारा पाषाण प्रतिमा को जीवन्त जगज्जननी के रुप में जाग्रत किया था।

कश्मीर नरेश महाराजा हरीसिंह के समक्ष जब कश्मीर के सारे मुसलमान वापिस हिन्दू धर्म में आने को तैयार हो गये तो काशी के पण्डों ने गंगा में जल समाधि की धौसंपट्टी देकर राजा को अपना प्रस्ताव वापिस लेने को मजबूर कर दिया था।

इन दो उदाहरणों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब भी इतिहास में कोई महान घटना घटित होने को होती है तो उस युग के लालची लोग ही उसका प्रभाव शून्य करने को आतुर हो जाते हैं। अन्ना हजारे, और स्वामी रामदेव पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले बुध्दिजीवी, राजनीतिज्ञ और पत्रकार बिरादरी के लोग आज दक्षिणेश्वर और काशी के पण्डों की जमात में खड़े दिखाई दे रहे हैं।

प्रबुध्द नागरिकता की अवधारणा पर मेरे शोध कार्य का विश्लेषण करते हुये प्रो. अरुण चर्तुवेदी ने कहा था कि राज्य कभी भी नहीं चाहेगा कि उसके नागरिक प्रबुध्द हो जायें आखिर वह भला अपनी जड़ों में मटठा क्यों डालना चाहेगा। यह कार्य तो समाज में जो वर्तमान में प्रबुध्द वर्ग है वही कर सकता है । स्वामी रामदेव, गोविन्दाचार्य और अन्ना हजारे के नेतृत्व पर सवाल खडे करने वाले सत्ता की मलाई उतार रहे लोग लोग नहीं चाहते हैं कि लोकतंत्र की धार को और अधिक पैना किया जाये जिससे कि भ्रष्ट्राचारियों की गर्दन को नापा जा सके।

भ्रष्ट्राचार केवल आर्थिक रुप में ही नहीं व्याप्त है सामाजिक कुरीतियों को भी असहमति के सम्मान के नाम पर पनपने देना भी सांस्कृतिक भ्रष्ट्राचार ही है। राजदीप सरदेसाई के सर में दर्द हो रहा है कि अन्ना के गाँव रालेगण सिध्दि में शराबियों की कुटाई होती है इसलिये अन्ना का गांधी प्रेम छदम है। और अन्ना और उनके साथी अलोकतांत्रिक है। एक अन्य साम्यवादी विचारक की पीड़ा है कि बाबा रामदेव फ्री में योग नहीें सिखाते हैं इसलिये वह पूंजीबादी हैं और पूंजीबादी तो दुनिया में अच्छा आदमी हो ही नहीं सकता है।

बुध्दि की कमाई पर जीवित रहने वाले यह बुध्दिजीवी लोग मानते हैं कि आप किसी को कपड़े उतार कर सडक़ पर नाचने की छूट दे दो यही स्वतंत्रता है। नंगई की स्वच्छंदता को खुशी की स्वतंत्रता का पर्यायवाची बना देना चाहते है। यदि यही आलम रहा तो हाईस्कूल में पास होने वाला हर छात्र खुशी में कपड़े उतार कर सड़क पर दौड़ता नजर आने लगेगा। एक ऐसा सिस्टम जिसमें हर व्यक्ति अपनी मर्जी का मालिक है। स्वतंत्रता के इसी अर्थ का परिणाम तो हुआ है कि हम आज भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मोमबत्तियां जलाने को मजबूर हुयें हैं। स्वान्तसुखाय संस्कृति के पोषण में हमने समाज नामक संस्था की अवहेलना की पहले किसी बाबू को दो रुपये भी रिश्वत में दिये जाते थे तो बड़ी आड़ में धीमें से टेबिल के नीचे जिससे बगल बाली टेबिल को भी पता न लगे। आज किसी भी अदालत में चले जाईये जज साहब के सामने ही अदालती बाबू तारीख बढानें के पैसे बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लेता है।

अन्ना पर एक और आरोप लगा कर उनके बजन को कम करने का प्रयास किया जा रहा है कि न्यूज चैनलों ने अन्ना को रातोंरात हीरो बना दिया है। पद, पैसा और प्रतिष्ठा की दौड़ में अंधे होकर दौड़ रहे लोगों को एक बार अन्ना के गॉव अवश्य जाना चाहिये। आधुनिक भारत के लिये यह किसी तीर्थ की अनुभूति कराता है।

अन्ना का जीवन प्रेरक है। आत्महत्या के लिये मन बना चुका युवक बाबूराव हजारे कैसे स्वामी विवेकानन्द के एक वाक्य से प्रेरित होकर अन्ना हजारे के रुप में परिवर्तित हो जाता है यह अन्ना की सादगी है कि बह कहते हैं कि मैं साधारण किसान हूॅ बास्तव में तो उनके पिता किसान भी नहीं थे बल्कि पत्थर तोडेने बाले मजदूर थे। साधारण मानव से महामानव की यात्रा बिना दृढ़ संकल्प के नहीं हो सकती है। अपनी और अपने परिवार की जिन्दगी बदलने बाले उद्यमी तो हजारों हैं पर अपने ग्राम और समुदाय की जिन्दगी बदलने का संकल्प रखने वाले अन्ना देश में कितने है? इस आग में उन्हौनें अपना जीवन झौंका हैं। इसी तप का परिणाम है कि अन्ना के समर्थन में देश उठ कर खड़ा हुआ है। वर्ना भ्रष्ट्राचार पर तो देश की विधानसभाओं से लेकर संसद तक केवल गाल बजाने का काम ही चलता दिखाई देता है। पक्ष और विपक्ष के घडियाली आसुओं की धार में अब देश के युवकों को नहीं भिगोंया जा सकता है। शिकागों में स्वामी विवेकानन्द ने क्या किया था केवल इतना ही तो कहा कि ‘मेरे अमेरिका निवासी बहिनों और भाईयो’ इतने भर से तालियों की गूंज से सारा अमेरिका जान गया कि भारत से कोई सन्यासी आया है। बात शब्दों की नहीं है शब्दों के पीछे जो विश्वप्रेम की मनुष्य मात्र को अपना बना लेने की चाह थी उसने स्वामी विवेकानन्द को यश दिलाया था। अन्ना को प्रसिध्दि टीवी चैनलों ने नहीं अन्ना की चार दशकों से चली आ रही तपस्या ने दिलाई है।

भ्रष्टाचार की अम्मा चुनावों के मौहल्ले में रहती है। सीधी बात तो यह है कि हमने जो तन्त्र चुना है उसमें हम ढ़ोगी को त्यागी की भूमिका में देखकर जान कर भी अनजाने बने रहते हैं। आखिर विना चवन्नी और चबैना के लालच के कोई क्यों किसी राजनीतिक दल का चवन्नी का भी सदस्य होना चाहेगा। फिर 1952 के पहले आम चुनावों से ही युगानुसार अपार धन का बहाव होता रहा है। धन और बल के बूते जन का नायक बनने की इस लीला में तमाम तरह के भष्ट्राचार होते है। तिकड़मों से कुल 15 प्रतिशत मत प्राप्त करने बाले भी जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। और जननायक बनने के इस सरल तरीके को वर्तमान जननायक कैसे हाथों से खिसक जाने दें । यही उनकी पीड़ा है। चाहे महिला आरक्षण बिल हो, लोकपाल बिल हो सब इनके अरमानों की भेंट चढ़ जाते है। पहलवान और शिक्षक के बीच बहस में शिक्षक को ही हारना है क्यों कि शिक्षक के तमाम तर्को और ज्ञान पर पहलवान का एक हाथ ही भारी है। इसलिये पहलवान कभी भी टीवी पर बहस के चक्कर में नहीं पडता है। वह तो यही कहेगा सही गलत का फैसला यहीं अखाडें में कर लो जो जीत जायेगा उसी की बात मानी जानी चाहिये। कुछ ऐसा ही जन लोकपाल बिल की पैरवी कर रहे लोगों के साथ हो रहा है उनको बार बार चुनौती मिल रही है कि पहले चुनाव लड़ कर संसद में आओ तब अपनी बात कहों। आज तक मनमोहन सिंह लोकसभा का चुनाव जीत कर संसद में नहीं पहुंच पाये है तो अरिविन्द केजरीवाल इन हथकण्डों में कैसे सफल हो सकते हैं, और एक बारगी मान भी लिया जाये कि यह रास्ता ही सही है तो कौन सा राजनैतिक दल उनको अपने सिर पर बैठाने को तैयार है। निर्दलीय सांसद को संसद में अपनी बात रखने का कितना समय मिलता है? और वर्तमान हालातों से लग रहा है कि जन लोकपाल बिल के लिये अभी बहुत लम्बी लडाई बाकी है।

3 COMMENTS

  1. सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तिया पढ़कर तो आपका लेख पढ़ डाला | नंगई की अम्मा पान खाकर बैठी है समाज को बर्बाद करने के लिए | इसलिए तो बाबा रामदेव योग सिखाकर नैतिकता , सामाजिकता , धार्मिकता , देस प्रेम , देश सेवा , समाज सेवा आदि आदि की अलख जगा रहे है, कितने किलोमीटर की यात्रा करके | एक बात बहुत पक्की है की जब तक हम मिलकर बाबा रामदेव के नेत्रित्व मे काम नहीं करेगे ये भ्रष्ट लोग …………….बाबा रामदेव जी ने भारत के सभी क्षेत्रो के अच्छे लोगो को एकजुट किया है आओ सब मिल देश हित मे काम करे| अकेले हम कमजोर है मगर लगता है इस बार हम गद्दारों से लोहा ले पाएँगे|

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