मनमोहन कुमार आर्य
आर्यसमाज संसार का एक अनूठा एवं सर्वश्रेष्ठ धार्मिक, सामाजिक, मानव जीवन का कल्याण करने वाला राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय संगठन है। इसका मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। यह आर्यसमाज का छठा नियम एवं उद्देश्य भी है। आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने संसार से अविद्या के नाश और विद्या की उन्नति के लिए की थी। (आर्यसमाज का नियम संख्या 8)। विद्या ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि विषयक सत्य वा यथार्थ ज्ञान को कहते हैं और इसके अर्थात् विद्या के विपरीत जो अज्ञान व अन्धविश्वास आदि की बातें देश, समाज में प्रचलित होती हैं उन्हें अविद्या कहा जाता है। अविद्या से मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, समाज व देश सहित संसार का पतन होता है और विद्या के प्रचार व प्रसार से देश व विश्व की उन्नति होकर समाज में सुख, शान्ति व समृद्धि का वातावरण बनता है। महर्षि दयानन्द जी के समय में भारत सहित समूचा विश्व अविद्या से ग्रस्त था और आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है। महर्षि दयानन्द इस संसार में कुछ बहुत अच्छे संस्कार लेकर जन्में थे। यही कारण था कि जहां लोग अन्धविश्वासों को देखकर उसके अनुचर हो जाते हैं वहीं स्वामी दयानन्द ने अपने बचपन में जब शिवरात्रि के दिन शिव की मूर्ति पर चूहों को उछल कूद करते देखा, तो वह उसे सहन नहीं कर सके। उनके मन ने शिव की मूर्ति को ईश्वर की मूर्ति मानने से स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया और पिता को अपना निर्णय भी बता दिया। शेष जीवन में वह ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि, सामाजिक मान्यतायें व व्यवस्थाओं आदि पर गहन चिन्तन में डूबे रहे और देश भर में घूम घूम कर विद्वानों व योगियों से सम्पर्क कर सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास करते रहे। उनके प्रयत्न सफल रहे। उन्हें योग्य योग गुरु सहित विद्या गुरु के रूप में स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा मिले जिनसे लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर वह महाभारत काल के बाद वेदों के सर्वोत्तम ऐसे विद्वान बने जो प्रत्येक वेद मन्त्र का यथार्थ अर्थ जानने वाला था। समाधि को सिद्ध करने सहित वेद मन्त्रों का यथार्थ सत्य अर्थ जानने, उसका वाणी व लेखन द्वारा प्रचार करने से ही वह ऋषि की उपािध को प्राप्त हुए।
वैदिक धर्म वा आर्यसमाज के प्रचार की धीमी गति का हमें एक कारण यह प्रतीत होता है कि आर्यसमाज मत-मतान्तरों की तरह अविद्या व अन्धविश्वास नहीं फैलाता अपितु सभी मनुष्यों को सत्य का मार्ग बताता है। वह बताता है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। वही ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्प्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। मनुष्यों को ईश्वर के इस स्वरूप को यथार्थ रूप में समझना है तभी वह सच्चे आस्तिक बन सकते हैं और तभी ईश्वर की सच्ची सही विधि से उपासना कर ध्येय व उद्देश्य की प्राप्ति व पूर्ति कर सकते हैं। इसके साथ ही सभी मनुष्यों को शरीर व जीवात्मा के पृथक अस्तित्व को भी यथार्थ रूप में जानना है जो वेद, दर्शन व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में वर्णित है। जो लोग ईश्वर की कल्पित मूर्ति की पूजा करते हैं, ईश्वर को कहीं किसी आसमान का वासी बताते हैं, उन लोगों को कुछ समझना व जानना नहीं होता। यदि कोई जानना भी चाहे तो वहां कोई बताने वाला नहीं है। वैदिक धर्म की प्रचारक आर्यसमाज ही संसार की ऐसी धार्मिक व सामाजिक संस्था है जो ईश्वर, जीवत्मा, मनुष्य या अन्य प्राणियों व जीवन पद्धति विषयक किसी प्रश्न की उपेक्षा नहीं करती अपितु शंकालु व भ्रमित लोगों की हर समस्या का शास्त्र प्रमाण, तर्क व युक्तियों से समाधान करती है। यही कारण है कि आर्यसमाज सत्य को प्राप्त व उसकी जानकार संस्था है जबकि अन्य मत व संस्थायें अन्धविश्वासों व रूढ़ियों से ग्रस्त संस्थायें हैं।
देश व संसार में प्रचलित भिन्न भिन्न मत मतान्तरों के लोग अपनी सन्तानों को अपनी मिथ्या व अज्ञान युक्त परम्परायें जन्म से ही सिखा देते हैं जिनसे उनके मन व मस्तिष्क सहित आत्मा में वही कुसंस्कार बन जाते हैं जिससे उनका सारा जीवन उसी वातावरण में व्यतीत होता है। आर्यसमाज तक ऐसे लोगों की पहुंच नहीं होती और न आर्यसमाज ही ऐसे लोगों तक पहुंच कर उन्हें सत्य मान्यताओं से परिचित कराकर सत्य का मण्डन और असत्य मान्यताओं का युक्ति व प्रमाणपूर्वक, प्रतिपक्षियों के हित की भावना से, खण्डन कर पाता है। परिणाम यही होता है कि नाना मत-मतान्तरों को मानने वाला व्यक्ति अपना सारा जीवन मिथ्या विश्वासों व मिथ्या परम्पराओं में ही बिता देता है। यदि आर्यसमाज उनमें प्रचार करना भी चाहे तो इन मिथ्या मतों के आचार्य अपने अनुयायियों को असत्य व मिथ्या बातें कहकर आर्यसमाज के प्रति विद्वेष उत्पन्न करते हैं। अतः आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों को कुसंस्कारों से ग्रस्त मिथ्या विश्वासों को मानने वाले लोगों को समझाना कठिन कार्य होता है। संविधान ने भी सभी मत-मतान्तरों को एक प्रकार से धर्म मानकर स्वतन्त्रता व अधिकार दे रखे हैं। आज के समय में किसी से सत्य मत मनवाना और असत्य मत छुड़वाना आसान नहीं है। यह तो तभी सम्भव हो सकता है कि जब आर्यसमाज के विद्वान प्रलोभनों से ऊपर उठकर जनसामान्य में जाकर प्रचार के लिए कुछ तप व त्याग का परिचय दें और दूसरी ओर मत-मतान्तरों के लोग व आचार्य आर्यसमाज से सत्य जानने व समझने की इच्छा करें। हम यह भी बता दें कि आर्यसमाज में सत्संग कर वहां आर्य विद्वानों के भजन व उपदेश करा देना मात्र वेद प्रचार नहीं है। आर्यसमाज व आर्य संस्थाओं के सत्संगों व उत्सवों में प्रायः आर्यसमाजी विचारधारा के लोग ही आते हैं। अतः उन्हें वैदिक धर्म पर उपदेश सुनाकर विशेष लाभ नहीं होता। ऋषि दयानन्द जी ने अपने समय में जो प्रचार किया वह किसी आर्यसमाज मन्दिर विशेष में होकर उपदेश व प्रचार की समाचार पत्रों में विज्ञप्ति प्रकाशित कर व मुनादी आदि के द्वारा लोगों को सूचना देकर वेद प्रवचन द्वारा हुआ करता था। इन आयोजनों में हमारे पौराणिक भाई या इतर मत के कुछ नाममात्र अनुयायी आया करते थे जिन पर अच्छा प्रभाव पड़ता था। स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी और पं. लेखराम जी भी मन्दिर के अतिरिक्त भी लोगों में जाकर उन्हें आर्यसमाज से जोड़ने के उपाय करते रहे होंगे, ऐसा हमें लगता है। अतः आर्यसमाज के प्रचार में शिथिलता व उसकी धीमी गति का पहला कारण हमें वैदिक धर्म व आर्यसमाज के सिद्धान्तों का अन्य मतों के मिथ्या सिद्धान्तों से कुछ कठिन होना लगता है। इसका दूसरा कारण लोगों के बचपन व बाद के संस्कार व प्रारब्ध भी प्रतीत होते हैं।
आर्यसमाज के प्रचार की धीमी गति में आर्यसमाज में पदाधिकारियों व सदस्यों की गुटबाजी व उसके पीछे कुछ लोगों के निहित स्वार्थ यथा लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा भी सम्मिलित हैं। इस कारण योग्य लोग पदाधिकारी न चुने जाकर तिकड़मी व कम योग्यता वाले लोग पदाधिकारी बन जाते हैं। इससे एक हानि यह होती है कि बहुत से सज्जन व निष्पक्ष लोग आर्यसमाज में आना ही छोड़ देते हैं। जहां यह समस्यायें हैं वहां सत्संगों का स्तर भी अच्छा नहीं होता। हमने इसके दुष्प्रभाव वर्षों तक देहरादून में भी देखे हैं। ऐसे समाजों के प्रतिकूल वातावरण के कारण लोग अपने बच्चों को समाज में नहीं ला पाते जिससे बच्चों पर दुष्प्रभाव यह पड़ता है कि उपदेश सुनकर उनके जो संस्कार बनने थे, उससे वह वंचित हो जाते हैं। बच्चों पर अपनी पढ़ाई का बोझ होता है जिसके कारण उनमें सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय के लिए समय नहीं मिलता। घर में माता-पिता यदि सन्ध्या व हवन करते हैं तो बच्चें यहीं तक सीमित रहते हैं। उनकी मित्र-मण्डली आर्य विचारों व संस्कारों की नहीं होती। संगति के दोष आना स्वाभाविक होता है। अतः यत्र तत्र आर्यसमाजों में गुटबाजी ने भी प्रचार की गति को कुप्रभावित किया है, ऐसा हम अनुभव करते हैं।
प्रचार का स्वरूप क्या हो, इसका एक उपाय साहित्य का वितरण हो सकता है। ईसाई लोग अपने मत की मान्यताओं पर छोटी छोटी पुस्तकें तैयार कर घरों में जाकर निःशुल्क बांटते हैं, गरीबों को दवा व बच्चों की शिक्षा में सहायता भी देते हैं या स्कूल खोलते व चलाते हैं जहां ईसाई संस्कार देने के साथ धनोपार्जन भी होता है। इन मिशनरी स्कूली संस्थाओं द्वारा आर्य हिन्दू बच्चों के संस्कार भी बदले जाते हैं। इसकी चिन्ता न हमारे पौराणिकों व उनके नेताओं को है और न आर्यसमाज के उन नेताओं को जो गुटबाजी व मुकदमेंबाजी में व्यस्त हैं। यही कारण है कि नगरों की युवा पीढ़ी नाम व रंग से हो सकता है कि आर्य हिन्दू हो परन्तु आचार व विचारों से पूर्ण नहीं तो पचास या इससे अधिक प्रतिशत एक प्रकार से ईसाई होती है। इस प्रभाव को समाप्त करने के लिए हमें लगता है कि प्रत्येक परिवार में सायं या रात्रि समय में लगभग आधा घंटा सभी सदस्यों को एक साथ बैठकर सामूहिक रूप से सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय व पाठ करना चाहिये। यह भी आर्यसमाज का एक संक्षिप्त रूप कहा जा सकता है। यदि सत्यार्थप्रकाश में कहीं कोई कठिन स्थल आये तो परिवार के मुख्या उसका स्पष्टीकरण कर सकते हैं। इससे बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ सकते हैं। प्रचार के लिए आर्यसमाज को अपने सदस्यों के कुछ दल गठित कर उन्हें निर्धन व दलित क्षेत्रों में भेजना चाहिये। वहां जाकर वह देश, काल व परिस्थितिायों के अनुरूप पुस्तकें वितरित करने के साथ लोगों की समस्याओं को जाने, उन्हें आर्यसमाज में आमंत्रित करें, उनकी समस्याओं को हल करने के लिए उन्हें सुझाव दें व कुछ आर्थिक मदद भी करें। जो भी निर्धन परिवार आर्यसमाज से मदद लेगा वह समाज के प्रति कृतज्ञ होगा। वैसे भी हमारा कार्य पात्रों की सेवा व सहायता करना है ही।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाजों व इसकी सभी संस्थाओं में दान, आय व सम्पत्तियों का अभिलेख आधुनिक रूप से रखा जाना चाहिये। उसका आयव्यय व सम्पत्तियों का विवरण सहित बैलेंस सीट बनाकर सभी दानियों व सदस्यों को उपलब्ध करानी चाहिये। इसके लिए हम महर्षि दयानन्द जी व उनके प्रमुख अनुयायियों के जीवनों से प्रेरणा ले सकते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपनी छवि बनाने व वार्षिकोत्सव आदि कर भारी धन व्यय करने की बात कहीं नहीं की। वह धन के व्यय व उसके एकाउण्ट को भली प्रकार रखने के पक्षधर थे। यही कारण था कि धन का हिसाब न देने पर उन्हें मुंशी इन्द्रमणी तक से संबंध विच्छेद करना पड़ा। जिन संस्कृत पाठशालाओं को आर्यसमाज के प्रचार के लिए खोला था, उसके उचित परिणाम न मिलने की सम्भावना को देखकर उन्होंने एक एक करके उन्हें बंद कर दिया था। आर्यसमाजों व आर्यसंस्थाओं को भी अपने उद्देश्य व लक्ष्य निर्धारित करने चाहिये। वह पूरे हों तो संस्था को चलायें नहीं तो उसे सीमित आदि करने पर विचार करना चाहिये। यह आश्चर्यजनक है कि अनेक लोगों का पूरा समय संस्था को चलाने में लगे और उससे आशानुरूप यथोचित परिणाम प्राप्त न हो सकें। अतः अर्थ शुचिता की मिसाल पेश करते हुए धन के अपव्यय से बचना चाहिये और संस्था के आय व्यय को सार्वजनिक करना चाहिये जिससे आर्य संस्थाओं के प्रति लोगों का विश्वास बढ़े।
हमने यह लेख पक्षपात से मुक्त होकर आर्यसमाज के हित की भावना से लिखा है। हम अल्पज्ञ हैं अतः लेख में अनेक न्यूनतायें व त्रुटियां हो सकती हैं। सभी विद्वानों व मित्रों से निवेदन है कि हमारी अनुचित बातों का प्रमाणपूर्वक खण्डन करें और आर्यसमाज के प्रचार को प्रभावशाली बनाने के लिए ठोस सुझाव प्रस्तुत करें। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।