भारतीयता की प्रतिनिधि भाषा हिन्दी

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हिन्दी भारत की आत्मा, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हुई है।हिन्दी के अब तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाने के कारणों के बारे में समान्यतः आम भारतीय की सहज समझ यही होगी कि दक्षिण भारतीय नेताओं के विरोध के चलते ही हिन्दी देश की प्रतिनिधि भाषा होने के बावजूद राष्ट्रभाषा के रूप में अपना वाजिब हक नहीं प्राप्त कर सकी,जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है । मोहनदास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी सरीखा ठेठ पश्चिमी भारतीय और राजगोपालाचारी जैसा दक्षिण भारतीय नेता का अभिमत था की हिन्दी में ही देश की राष्ट्रभाषा होने के सभी गुण मौजूद है । वर्धा के राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षा करते हुये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने साफ शब्दों मे कहा था कि देश कि बहुसंख्यक आबादी न सिर्फ लिखती-पढ़ती है बल्कि भाषाई समझ रखती है, इसलिए हिन्दी को ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए । उनका मानना था कि आजादी के बाद अगर हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाया जाता है तो देश की बहुसंख्यक जनता को आपत्ति नहीं होगी साथ ही सी. राजगोपालाचारी और खाँ अब्दुल गफार खाँ भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे अधिष्ठापित होना देखना चाहते थे । अखंड भारत और हर उस मुद्दे की तरह राष्ट्रभाषा के रूप मे हिन्दी को लेकर यदि राष्ट्रीय स्वीकार्यता नहीं बन पाई तो उसके पीछे अंग्रेजी से ज्याद अंग्रेजीवादी सोच वाले भारतीय नेता अधिक जिम्मेदार थे । दरअसल इन नेताओं का विभाजन जाति,क्षेत्र,भाषा के आधार पर न कर के उनके सोच के धरातल (मैकाले पद्धति )पर एक समूह मे रखा जाना चाहिए ।

hindiमौजूदा समय मे विस्तार,प्रसार और प्रभावी बाजारू उपस्थिति को देखते हुये ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता जिसके आधार पर कहा जा सके कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं होना चाहिए – सिवाय राजनीतिक कुचक्र के । भारत का दुर्भाग्य यह रहा है कि सहृदयता के नाम पर कुछ प्रतिनिधि भारतीय ही उसकी स्मिता की जड़ो मे मट्टे डालने का कम करते आए है । हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप मे राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिलने के पीछे भी इसी तरह के सोच वाले नेताओं की प्रमुख भूमिका रही है । दुर्भाग्यवस उसी मानसिकता के लोगों का बाहुल्य आज भी कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक निर्णायक स्थिति में है । बोली की दृष्टि से संसार की सबसे दूसरी बड़ी बोली हिन्दी हैं। पहली बड़ी बोली मंदारीन है जिसका प्रभाव दक्षिण चीन के ही इलाके में सीमित है चूंकि उनका जनघनत्व और जनबल बहुत है। इस नाते वह संसार की सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है पर आचंलिक ही है। जबकि हिन्दी का विस्तार भारत के अलावा लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर फैला हुआ है लेकिन किसी भाषा की सबलता केवल बोलने वाले पर निर्भर नहीं होती वरन उस भाषा में जनोपयोगी और विकास के काम कितने होते है इस पर निर्भर होता है। उसमें विज्ञान तकनीकि और श्रेष्ठतम् आदर्शवादी साहित्य की रचना कितनी होती है। साथ ही तीसरा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस भाषा के बोलने वाले लोगों का आत्मबल कितना महान है। लेकिन दुर्भाग्य है इस भारत का कि प्रो. एम.एम. जोशी के शोध ग्रन्थ के बाद भौतिक विज्ञान में एक भी दरजेदार शोधग्रंथ हिन्दी में नहीं प्रकाशित हुआ। जबकि हास्यास्पद बाद तो यह है कि अब संस्कृत के शोधग्रंथ भी देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में प्रस्तुत हो रहे है।

भारत में पढ़े लिखे समाज में हिन्दी बोलना दोयम दर्जे की बात हो गयी है और तो और सरकार का राजभाषा विभाग भी हिन्दी को अनुवाद की भाषा मानता है।संसार के अनेक देश जिनके पास लीप के नाम पर केवल चित्रातक विधिया है वो भी विश्व में बडे शान से खडे है जैसे जापानी, चीनी, कोरियन, मंगोलिन इत्यादि, तीसरी दुनिया में छोटे-छोटे देश भी अपनी मूल भाषा से विकासशील देशो में प्रथम पक्ति में खड़े है इन देशों में वस्निया, आस्ट्रीया, वूलगारिया, डेनमार्क, पूर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, वेलजियम, क्रोएशिया, फिनलैण्ड फ्रांस, हंग्री, निदरलैण्ड, पोलौण्ड और स्वीडन इत्यादि प्रमुख है।

भारत में अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को विस्थापित करना यह केवल दिवास्वपन है क्योंकि भारतीय फिल्मों और कला ने हिन्दी को ग्लोबल बना दिया है और भारत दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के नाते भी विश्व वाणिज्य की सभी संस्थाएं हिन्दी के प्रयोग को अपरिहार्य मान रही है। हमें केवल इतना ही करना है कि हम अपना आत्मविश्वास जगाये और अपने भारत पर अभिमान रखे। हम संसार में श्रेष्ठतम् भाषा विज्ञान बोली और परम्पराओं वाले है। केवल हीन भाव के कारण हम अपने को दोयम दर्जे का समझ रहे है वरना आज के इस वैज्ञानिक युग में भी संस्कृत का भाषा विज्ञान कम्प्यूटर के लिए सर्वोत्तम पाया गया है।

भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा और हिन्दी भाषा को लेकर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा भम्र की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। कुछ वर्ष पहले देश के एक उच्च न्यायालय ने चर्चित फैसला सुनाया था जिसके अनुसार हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा नहीं सिर्फ राजभाषा बताया गया था । आजादी के लगभग सात दसक बाद भी राष्ट्रभाषा का नही होना दुखद है। जब देश का एक राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक है यहा तक कि राष्ट्रीय पशु-पक्षी भी एक है। ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश की अपनी राष्ट्र भाषा क्यों नहीं होनी चाहिए ? भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की पिछलग्गू भाषा के रूप में क्यों बने रहना चाहिए ? 10 सितंबर से 13 सितंबर तक भोपाल मे आयोजित हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान विद्वानों को अन्य जवलंत मुद्दों के साथ इन पर भी विचार करना चाहिए साथ ही इस दौरान हिन्दी को ज्ञान-विज्ञान के साथ ही सभी विषयों की व्यवहारिक भाषा के रूप में विकसित करने के उपायों के साथ ही उसे अनुवाद के स्थान पर मौलिक भाषा के रूप मे अधिष्ठापित करने के उपाय पर भी विचार होना चाहिए । हिन्दी को लेकर कार्यपालिका और प्रभावी ताकतों की सोच को कैसे बदला जाए कि वे उसे मौलिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिए प्रभावी और सर्व सम्मति नीति बनाए ।

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डॉ. सौरभ मालवीय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गाँव में जन्मे डाॅ.सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है। जगतगुरु शंकराचार्य एवं डाॅ. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डाॅ. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया’ विषय पर आपने शोध किया है। आप का देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर समसामयिक मुद्दों पर निरंतर लेखन जारी है। उत्कृष्ट कार्याें के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है, जिनमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डाॅट काॅम सम्मान आदि सम्मिलित हैं। संप्रति- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। मोबाइल-09907890614 ई-मेल- malviya.sourabh@gmail.com वेबसाइट-www.sourabhmalviya.com

3 COMMENTS

  1. जैसा आज व्यवहार इस भाषा के साथ हो रहा है और जैसा वार्षिक हिन्दी वालिदान दिवस मनाया जाता है तो फिर हिन्दी का मरण तो हो चुका। अतएव उर्दू भाषा में हिन्दी का मरसिया प्रस्तुत है,

    हम उसके चाहने वाले थे और वो दिल के करीब थी ।
    मर गई वेमौत, बिना बताए इसका गिला तो है।

    रहती कुछ और दिन, तो बढ़ती कुछ और कद्र,
    जब से हुई है गुम , ये सुराग मिला तो है।

    बेहिस जलन-ओ-तपिश, बेहिसाब नफरत
    अँग्रेजी चाहतमंदों से इसे कुछ मिला तो है।

    हम उसपे जान देते वो अपनी जान बनती,
    ख्यालों में ही है अब तो, पर सिलसिला तो है।

    इस राष्ट्र के विचारों को वो नित नया रूप देती,
    जब है नहीं उपस्थित, तो ये विचार मिला तो है।

  2. Dear Mr. Mohan Gupta-
    I am very much committed to do everything I can to mobilize public opinion against the design of ENGLISH ONLY and the monopoly of ENGLISH by the class of KALA ANGREZ. I also support your approach towards the rightful status of HINDI. But I want you to remember, in case you are not aware, that in states of South and East India there are groups most probably paid by foreign agents mainly church that are mobilizing public opinion under the pretext of “HINDI IMPERIALISM” and in favor of ENGLISH. It would be a grave mistake to ignore the sentiment of non-Hindi speaking population and launch a movement in favor of Hindi alone. I suggest you consider your approach to be Hindi along with all other regional languages. That will attract support from all parts of India.

    I am a Bangali (engaged a tutor and learnt to speak Hindi). But I can’t read and write. Numerous people from Hindi belt – like from most other parts of India – the so called “EDUCATED” are also the same.

  3. डॉ साहब,

    आपका लेख पढ़ा इसमें उठाए गए प्रश्न ज्वलंत तो हैं ही.

    हमारे देश में लोग हिंदी समझते नहीं हैं ऐसा नहीं है.
    उधर दक्षिण के लोग भी बखूबी हिंदी समझते हैं.

    तकलीफ तो रवैये का है. जिस तरह से इस देश में हिंदी थोपी गई / जा रही है – उसने तो हिंदी भाषियों में भी हिंदी के प्रति द्वेश पैदा कर दिया है.
    सन 1963 में हिंदी राजभाषा अधिनियम प्रकाशित हुआ था. आप सोचिए आपने इसे कब जाना??
    मैने तो 1984 मे जाना जब एक सरकारी दफ्तर में देखा कि – हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु हमारे संघ की राजभाषा भी है. इसे क्यों ढँक कर रखा गया था?
    मैं खुद हिंदी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ, वह भी तत्कालीन मध्य प्रदेश से.
    हिंदी राष्ट्रभाषा बनी ही नहीं केवल प्रयत्न चल रहा था. तब भी हमारे देश की राष्ट्रभाषा प्रचार समितियाँ केवल हिंदी का ही प्रचार कर रही थीँ क्यों?
    दूसरा- संविधान की राजभाषा समिति में जब हिंदी व तमिल ही बचीं तब मतदान हुआ और समान मत पड़े . नेहरू का अध्यक्षीय मत तमिलों पर भारी पड़ा. तब से दक्षिण में हिंदी का विरोध हो रहा है.
    विरोध को समाप्त करने की चेष्टा छोड़कर – हमारे नेताओं ने हिंदी अधिनियम के तमिलनाडु से दूर ही रख लिया. वह वहाँ प्रचलन में नहीं है.
    यह क्या हुआ– जो अड़ जाए तो छोड़ दो अन्यथा दबोच लो.
    आज भी हिंदी देश की शालाओं में अनिवार्य नहीं है क्योंकि इससे विरोध बढ़ेगा और वोट का समीकरण गड़बड़ा जाएगा.
    ऐसे में देश में हिंदी का विकास हो सकेगा?
    रही बात सरकारी कार्यालयों की तो – वहाँ टूटी फूटी अंग्रेजी ही लोगों की शान है.
    विश्व की – तो हिंदी में पर्याप्त संभावनाएं भी नहीं हैं.
    हम हिंदी के लिए करेंगे कुछ नहीं केवल कामना के — उद्यमेन हि न सिद्ध्यंते.. कार्याणि न मनोरथैः
    आज भी हिंदी भक्त हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते लिखते थकते नहीं हैं जबकि आज का बात तो दूर हिंदी कभी भी देश की राष्ट्रभाषा बनी ही नहीं.
    अंततः मैं काँग्रेस को भी इसमें दोषी मानता हूं कि उसने राष्ट्रभाषा बनाने के अभियान में अन्यों को साथ नहीं लिया इसलिए आज राष्ट्रभाषा शब्द से ही लोग बिफरने लगे हैं .. यहाँ तक कि संविधान की भाषा समिति ने एक नया शब्द राजभाषा का ईजाद कर लिया.

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