-इक़बाल हिंदुस्तानी-
-बढ़ते रेपः कानून नहीं सिस्टम व समाज बदलने की ज़रूरत पहले!-
दिसंबर 2012 में जब दिल्ली में निर्भया के साथ गैंगरेप हुआ और पूरे देश में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन व हंगामा मचा तो सरकार ने जनता का गुस्सा भांपकर कानून सख्त करने का वादा किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस जे एस वर्मा की अध्यक्षता में सुझाव देने के लिये एक आयोग बनाया गया जिसने बलात्कारियों को फांसी तो नहीं, लेकिन पहले से सख़्त सज़ा देने का सुझाव दिया जिसको सरकार ने मान लिया। इसके बाद यह मामला रफा दफा हो गया। अगर आप हमारे लेखों का अध्ययन करें तो हमने उसी समय दो लेख लिखे थे जिनका शीर्षक था ‘‘बढ़ते रेप: कानून नहीं सिस्टम बदलने की ज़रूरत है’’ और दूसरा आर्टिकिल था- ‘‘कानून और सिस्टम ही नहीं समाज को भी बदलना होगा’’।
इसे विडंबना ही कहिये कि उत्तरप्रदेश के एक पिछड़े ज़िले बिजनौर के एक मामूली कस्बे नजीबाबाद में बैठे एक अदना से अख़बार पब्लिक ऑब्ज़र्वर के संपादक की आवाज़ सत्ता के ऊंचे मचान पर बैठे सत्ताधीश कहां सुनने वाले थे? आधुनिक तकनीक में भरोसा करने वाले आज के पीएम मोदी जी ने तो इस बारे में जनता के सुझाव नेट पर पीएमओ की वैबसाइट बनाकर सराहनीय पहले की है। हमने उसी समय यह आशंका व्यक्त की थी कि कानून को सख़्त करके बलात्कारों को नहीं रोका जा सकता, क्योंकि इससे उल्टा परिणाम यह आ सकता है कि बलात्कार जैसे जघन्य और घिनौना अपराध करने वाले सख़्त सज़ा से बचने के लिये बलात्कार पीड़िताओें की कहीं हत्या न करने लगें? संयोग की बात देखिये हमारी यह आशंका आज अक्षरशः सही साबित हो रही है।
कहीं यूपी के बदायूं में दो दलित बहनों को बलात्कार का शिकार बनाकर दबंग सबूत मिटाने को पेड़ से लटकाकर फांसी दे देते हैं तो लखनऊ में एक विधवा के साथ गैंगरेप करके बलात्कारी इतनी बेदर्दी से उसकी पिटाई करते हैं कि कालेज का मैदान खून से लाल हो जाता है। दिल्ली में बलात्कार के बाद एक लड़की के गुप्तांग में कांच की बोतल डाल कर उसको मरने के लिये छोड़ दिया जाता है लेकिन एक भले और बहादुर मुसाफिर की वजह से उसको समय पर अस्पताल पहुंचाने से उसका इलाज शुरू हो जाता है लेकिन वह आज भी मौत और ज़िंदगी के बीच झूल रही है। बंगलुरु में एक मासूम बच्ची के साथ सामूहिक वहशी हरकत होती है और पुलिस घटना के तीन सप्ताह बाद भी हवा में तीर चलाती रहती है। अस्पताल में सरकारी डॉक्टरों के रुख़ से लेकर अदालतों की कछुवा चाल से चलने वाली कानूनी कार्यवाही पर कहीं भी कोई असर नहीं पड़ा है नये कानून का।
हम ने यह सवाल पहले ही उठाया था कि सिस्टम को ठीक किये बिना और समाज की सोच बदलने बिना रेप के मामले में बलात्कारी के लिये फांसी की सज़ा का प्रावधान करना भी ठीक ऐसा ही होगा जैसे विदेश में छिपे किसी आतंकवादी के खिलाफ कोर्ट का सज़ा ए मौत का फरमान। जब कोई कानून या फैसला लागू ही नहीं होगा तो उसका सख्त या मुलायम होने का क्या महत्व रह जाता है? सच तो यह है कि कुछ दिन इस तरह के मामलों की चर्चा होने के बाद फिल्म अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन के अनुसार सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़ित लड़की किस हाल में जी रही है? दरअसल सरकार और मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है।
किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद अगली घटना घटने तक मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतज़ार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों का साथ देती नज़र आती है। सत्ताधीश अगर वास्तविकता जानना चाहते हैं तो आम आदमी बनकर थाने जायें, वहां सबसे अधिक अपराध होते हैं। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी थाने जाने से भी डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। पुलिस रपट भी तभी दर्ज करती है जब मजबूरी आ जाये मिसाल के तौर पर जेब गर्म की जाये या कोई बड़ी असरदार सिफारिश आ जाये।
रूचिका गिरहोत्रा, जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मटटू कांड इसके गवाह हैं कि जब तक मीडिया ने हल्ला नहीं काटा तब तक पुलिस ने इन मामलों में गंभीरता नहीं दिखाई। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज़्यादा केस दर्ज होते हैं, उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है, बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सज़ा देने का मतलब है, जो केस पुलिस पहले एक लाख रूपए में आरोपी को बचाने में तय कर लेती थी, उसकी कीमत बढ़ाकर दो लाख कर देना।
प्रियदर्शिनी मट्टू के मामले में आरोपी एक बडे़ पुलिस अधिकारी का बेटा होने से पुलिस ने आखि़री दम तक सबूतों को या तो बदल दिया, या फिर जमकर छेड़छाड़ कर जज को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि वह जानते हैं कि आरोपी ने ही रेप किया है लेकिन पुलिस के जानबूझकर सबूत मिटाने या छिपाने से वह मजबूर हैं कि आरोपी को सज़ा ना दें। राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों के मामलें में भी पुलिस ऐसा ही करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ होने के लिये हैं? गवाहों को खुद पुलिस डराती धमकाती है, ऐसे में अपराधी तो निडर होकर ज़मानत के बाद घूमते हैं।
फांसी या चौराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सज़ा ए मौत है ही नहीं, वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आये दिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है, वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे। खूद हमारे देष में हत्या के लिये फांसी की सज़ा है लेकिन क्या हत्यायें रूक गयीं? नहीं बिल्कुल नहीं । जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और दहेज़ एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सज़ा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और ज़िम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है।
हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं समाज को अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा, क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं, उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसलिये सुधार भी वहीं करना होगा।
लड़ें तो कैसे लड़ें मुक़दमा उससे उसकी बेवफाई का,
ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।