कांग्रेस में बगावत, प्रशांत पर उठते सवाल

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congressसंजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश कांग्रेस में बगावत मिशन 2017 में जुटे कांगे्रसियों के लिये परेशानी का सबब बन गया हैं। 27 साल से उत्तर प्रदेश में बेहाल कांग्रेसमें नई जान फूंकने के लिये किराये पर बुलाये गये रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी कांग्रेसमें नई उर्जा का संचार कर पा रहे हैं। नेताओं में निराशा है तो कार्यकर्ताओं में नेतृत्व को लेकर उदासी। प्रशात किशोर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की सक्रियता बढ़ाकर और जातीय समीकरणों के सहारे कांग्रेसकी बेहाली दूर करने की जितनी भी कोशिश कर रहे हैं,उसका उलटा प्रभाव पड़ रहा है। प्रशांत ने राहुल को यूपी में सक्रिय तो कर दिया लेकिन वह भी राहुल की योग्यता को लेकर उठने वाली तमाम उंगलियों को मोड़ नहीं पाये हैं। राहुल सार्थक मुद्दों और बहस को अनदेखा करके खून की दलाली,सूटबूट की सरकार के आगे बढ़ ही नहीं पा रहे हैं तो आलू की फैक्ट्री जैसी बचकानी बयानबाजी के कारण उपहास का केन्द्र और गुस्से का पात्र बन कर रह गये हैं। वहीं राहुल की ही तरह अभिनेता से नेता बने राजब्बर, दिल्ली की पूर्व सीएम और यूपी में कांग्रेसका मुख्यमंत्री चेहरा शीला दीक्षित और गुलाम नबी आजाद की तिकड़ी भी प्रशांत की उम्मीदों पर खरी उतरती नजर नहीं आ रही है। शीला दीक्षित बढ़ती उम्र के प्रभाव के कारण ज्यादा दौड़-भाग नहीं कर पा रही हैं,वहीं लगता है कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी गुलाम नबी आजाद को कहीं न कहीं इस बात का अहसास हो गया है कि यूपी में कांग्रेसऔर राहुल के पास हासिल करने के लिये ज्यादा कुछ नहीं है। बदनामी का ठीकरा उनके सिर न फोड़ा जाये इस लिये यूपी कांग्रेसका प्रभारी होने के बाद भी आजाद अपने आप को दिल्ली तक ही सीमित किये हुए हैं। कांग्रेसके प्रदेश अध्यक्ष राजब्बर का हाल यह है कि उन्हें अपने काम से अधिक इस बात का गुमान है कि वह एक बड़े फिल्मी स्टार हैं। इसी लिये शायद अभी तक राजब्बर अपनी टीम तक घोषित नहीं कर पाये हैं और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष निर्मल ख़त्री की वफादार टीम के सहारे ही अपना काम चला रहे हैं।
बात प्रशांत किशोर की रणनीति की कि जाये तो उनके द्वारा उठाये गये कदमों से साफ झलकता है कि उन्हें प्रदेश के नेताओं पर भरोसा नहीं है। इसी लिये उन्होंने मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करते समय ब्राह्मण नेत्री डा. रीता बहुगुणा जोशी की जगह शीला दीक्षित को तरजीह दी। मुस्लिम चेहरे के लिये सलमान खुर्शीद,जफर अली नकवी,नबाव काजिम अली खाॅ उर्फ नावेद मियाॅ(रामपुर) आदि नेताओं की जगह बाहरी नेता गुलाम नबी आजादी को महत्व दिया। यही हाल प्रदेश अध्यक्ष के लिये चेहरे की तलाश करते समय भी रहा। यूपी में श्री प्रकाश जायसवाल, प्रमोद तिवारी,रीता बहुगुणा जोशी, आरपीएन सिंह जैसे तमाम नेताओं को अनदेखा करके राजब्बर को अचानक यूपी कांग्रेस अध्यक्षी की कुर्सी सौंप दी गई। कहने को तो राजब्बर भी यूपी से ही आते हैं,लेकिन उनकी सक्रियता यूपी में कभी देखने को नहीं मिली। राजब्बर को प्रशांत किशोर के अलावा प्रियंका वाड्रा गांधी की पसंद बताया जाता है।
बाहरी नेताओं को तरजीह और प्रशांत किशोर की मनमानी के चलते ही आज की तारीख में कांग्रेस को मजबूती मिलने के बजाय नेताओं की नाराजगी अधिक झेलनी पड़ रही है। पार्टी छोड़ते वक्त रीता बहुगुणा जोशी का बयान इसी बात का सबूत था। ऐसा ही असंतोष कांग्रेस के करीब-करीब सभी प्रमुख नेताओं में देखा जा सकता है। हालात यह है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपने रणनीतिकार प्रशांत किशोर पर आंख बंद करके भरोसा करते चले जा रहे हैं। प्रशांत की रणनीति है जो राहुल सपा-बसपा की बजाये मोदी पर ज्यादा हमलावर हैं। राहुल के प्रशांत पर अंधविश्वास के चलते कोई नेता प्रशांत के खिलाफ खुल कर नहीं बोल पा रहा है। प्रशांत की रणनीति के चलते ही यूपी के कांगे्रसी नेताओं में विरोध के स्वर बढ़ते जा रहे हैं। हाल ही में पीके ने अपने सर्वे के बाद करीब 142 कांग्रेस के संभावित उम्मीदवारों को अनफिट करार देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।
प्रशांत किशोर के सहारे राहुल गांधी यूपी में 27 साल से राजनीतिक वनवास झेल रही कांग्रेस की खोई सियासी जमीन तलाश रहे है तो वहीं उसके अपने सिपहसालार विरोधी दल में शामिल होते जा रहे हैं। प्रशांत की सक्रियता के बीच पिछले तीन महीने में अब तक 9 कांगे्रसी विधायक बागी हो चुके हैं। कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका भाजपा ने दिया है। भाजपा ने कांग्रेस का ब्राह्मण चेहरा समझी जाने वाली नेत्री रीता बहुगुणा जोशी समेत 5 विधायकों अपने पाले में खींच लिया है। इसके अलावा कांग्रेस के 3 विधायक बसपा में गये और एक ने सपा का दामन थाम लिया।
कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की शुरूआत बसपा से हुई थी। अगस्त के महीने में कांग्रेस के तीन विधायक बसपा में शामिल हुए थे। बसपा में जाने वाले विधायकों में रामपुर की स्वार सीट से विधायक नवाब काजिम अली खां, तिलोई सीट से विधायक और विधानमंडल दल के मुख्य सचेतक डॉक्टर मोहम्मद मुस्लिम खां और स्याना सीट से विधायक दिलनवाज खां के नाम थे। हालांकि कांग्रेस का कहना था कि उसने इनको पहले ही अपनी पार्टी से बर्खास्त कर दिया था। इस सदमें से कांग्रेसहक्का-बक्का थी,वह संभल पाती इससे पहले दूसरे ही दिन भाजपा ने भी कांग्रेस के तीन विधायक तोड़ लिए। भाजपा में शामिल होने वाले विधायकों में संजय जायसवाल (बस्ती की रुधौली सीट), विजय दूबे (कुशीनगर की खड्डा सीट) और माधुरी वर्मा (बहराइच की नानपारा सीट) के नाम थे। इसी माह के अंत में 26 अगस्त को भाजपा ने एक बार फिर कांग्रेस को तब झटका दिया,दिया जब सहारनपुर की गंगोह विधानसभा सीट से विधायक प्रदीप चैधरी ने भी अपने समर्थकों के साथ भाजपा प्रदेश कार्यालय में बीजेपी की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। प्रदीप चैधरी के भाजपा में शामिल होने की घोषणा होते ही उनके समर्थकों ने भाजपा, मोदी और प्रदेशाध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के नारे लगाकर अपनी भावनाएं प्रगट की थीं।
अगस्त के बाद सितंबर भी कांग्रेसके लिये मुसीबतें मोल लेकर आया। बीजेपी और बीएसपी से चोट खाई कांग्रेसको अबकी से समाजवादी पार्टी ने झटका दिया। 8 सितंबर को बहराइच जिले की पयागपुर विधानसभा सीट से कांग्रेसी विधायक मुकेश श्रीवास्तव ‘साइकिल’ पर सवार होकर चले गये। मुकेश ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मंत्री आजम खान के सामने सपा का दामन थामा।
कांग्रेसको कई झटके मिल चुके थे। इन झटकों ने राहुल गांधी की होने जा रही खाट पंचायत और किसान यात्रा का मजा किरकिरा कर दिया था,लेकिन शायद इसके बाद भी कांग्रेसमें ‘बड़ा विस्फोट’ होना बाकी रह गया था। शीला दीक्षित को कांग्रेसका सीएम चेहरा बनाये जाने के बाद हासिये पर खड़ी उत्तर प्रदेश कांग्रेसकी पूर्व अध्यक्ष और लखनऊ कैंट की विधायक डा0 रीता बहुगुणा जोशी की नाराजगी के चर्चे आम हो गये थे। 20 अक्टूबर को इस चर्चा पर मोहर भी लग गई। कांग्रेस की सबसे तेज-तर्रार महिला नेत्री मानी जाने वाली डा0 रीता बहुगुणा जोशी को तोड़ने में भाजपा कामयाब रही। भाजपा के पास कोई दमदार महिला ब्राह्मण चेहरा नहीं था। 2017 के विधान सभा चुनाव के समय रीता बहुगुणा बीजेपी के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। रीता और उनके बेटे मयंक ने दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। कहा जाता है कि रीता बहुगुणा को लेकर राहुल गांधी पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। दरअसल, जब उत्तराखंड में कांग्रेसकी हरीश रावत सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे थे और विजय बहुगुणा समूची कांग्रेस पार्टी के लिए बड़ा संकट बने हुए थे, उस समय कांग्रेसआलाकमान ने रीता को अपने भाई विजय को मनाने उत्तराखण्ड भेजा था, लेकिन वो उन्हें मनाने में सफल नहीं हो पाई। इस पर राहुल गांधी को यह संदेश पहुंचाया गया कि रीता खुद भी नहीं चाहती कि विजय बहुगुणा अपनी जिद से पीछे हटें। इसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी और राहुल गांधी ने उन्हें अलग-थलग कर दिया । इतना ही नहीं पिछले कुछ महीनों में रीता ने कई बार राहुल से मिलने की कोशिश की लेकिन उन्होंने रीता बहुगुणा से मुलाकात तक नहीं की। न तो उन्हें किसान यात्रा में बुलाया गया न ही पार्टी में हुए फैसलों की उन्हें जानकारी दी जाती थी। खबर है कि रीता ने पार्टी छोड़ने के अपने निर्णय से पहले सोनिया गांधी से मुलाकात की थी और पार्टी में अपनी स्थिति पर नाखुशी भी दर्ज कराई थी,लेकिन सोनिया गांधी कुछ कर नहीं सकीं।
बहरहाल, रीता के बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करते ही बहुगुणा खानदान की गद्दारी के किस्से कांगे्रसियों की जुबान पर आ गये हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ओर रीता बहुगुणा के पिता हेमवती नंदन बहुगुणा,भाई और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को लेकर रीता पर उंगलिया उठाई जाने लगी। 9 विधायकों के कांग्रेसछोड़ने के बाद कांग्रेसकी हैसियत 28 से 19 विधायकों पर आकर सिमट गई है। वैसे अटकले यह भी लगाई जा रही हैं कि कुछ और कांगे्रसी नेता भी पार्ट छोड़ने की लाइन में लगे हुए हैं। जल्द ही कांग्रेस के एक राज्यसभा सदस्य जो मोदी के खिलाफ काफी मुखर रहे हैं भी न-न करते हुए भगवा खेमें में आ सकते हैं।
लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेसके लिये पिछले कुछ समय से कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। कहने को राहुल गांधी की खाट पंचायत और किसान यात्रा में काफी भीड़ देखने को मिली थी,लेकिन जानकार इसे ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं। इन लोंगो का कहना है कि अब भीड़ जुटना नेता की लोकप्रियता और पार्टी की मजबूती का पैमाना नहीं रह गया है। आज स्थिति यह है कि जो भी पार्टी मीटिंग करती है,उसमें भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है। भीड़ जुटाने के मामले में कभी बसपा सुप्रीमों मायावती की चर्चा हुआ करती थी,लेकिन प्रबंधन के इस दौर में सभी इस खेल में ‘महावीर’ हो गये हैं। बिहार हो या दिल्ली के विधान सभा चुनाव दोंनो ही जगह मोदी की जनसभाओं में खूब भीड़ देखने को मिलती थी,लेकिन नतीजे दोंनो ही जगह बीजेपी के खिलाफ गये।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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