वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे

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स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

 

कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि “मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।” प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि – “वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।”

सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

 

10 COMMENTS

  1. र.सिंह जी APKE विचार अति उत्तम और TARK पूर्ण है में आपसे सहमत HUN

  2. @ डा कपुर साहाब ! कहा जाता है की अगर वेश्याए नही होती तो समाज में माँ बहने सुरक्षित नही रह पाती. कहने वाले का तात्पर्य यह है की कामुक पुरुषो की वृति को वेश्याए निकास देती हैं. अगर वेश्याए न हो तो समाज मे बलात्कार बकी घटनाए बढ जाएंगी. अतः वेश्या रहित समाज की अपनी विडम्बनाए हैं. अगर हम उन समाजिक विवशताओ जो एक महिला को वेश्या बनने पर मज्बुर करती है, उनको निर्मुल नही कर पाते तो वेश्याओ को असम्मान की स्थिति से उबारने का प्रयास करना हीं चाहिए.

  3. श्री द्विवेदी जी ने बहुत गंभीर मुद्दा उठाया है और बिलकुल सही कह रहे है.
    श्री सिंह साहब भी सही कह रहे है की जब से समाज बना है तब से वेश्याएं भी इसका हिस्सा रही है. किन्तु जैसा राजा होता, जैसे न्याय व्यवस्था होगी, जैसे संस्कृति होगी उसी हिसाब से राज्य में वेश्या वृत्ति कम या जादा होती रही होगी.
    डॉ. कपूर जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात की है की जिस व्यवस्था में स्त्री को वेश्या बनने के लिए मजबूर होना पड़े, ऐसी नकारा व्यवस्था को समझा और बदला जाना चाहिए न कि वेश्यावृत्ति को कानूनी या गैर बनाने पर चर्चा होनी चाइये.
    न तो सरकार कभी कुछ करेगी, न न्याय व्यवस्था कुछ करेगी. अंग्रेजी नियमो की कापी पेस्ट कर के बनी हमारी न्याय व्यवस्था में हजारो टनों अनाज सड़ तो सकता है किन्तु किसी भूखे को बांटा नहीं जा सकता है. भूखा पेट क्या नहीं करवाता है…
    इस बाजार को कम किया जा सकता है व्यक्तिगत स्तर पर. अपने परिवार के बच्चो में अछे संस्कार डाले. मैदानों में पसीने बहाने दे ताकि अच्छी नींद आये, योग प्रयाणं, ध्यान की आदते डाले ताकि मन नहीं भटके, बच्चो की गलत संगतों पर ध्यान रखे. फिर देखे आपका बच्चा गलत आदत में भटकता है. वोह न तो खुद वेश्यालय जायेगा न ही ऐसा काम करेगा की उसके द्वारा कोई लड़की को वेश्यालय जाने पड़े.

  4. राजेश कपूर जी आपने अपनी टिपण्णी में दो बातें कही .एक तो जिस व्यवस्था में स्त्री को वेश्या बनने पर मजबूर होना पड़े उसको बदलने की बात.. और दूसरी बात में तो आपने साफ़ साफ़ गाली दी.गाली का जवाब मैं गाली से तो नहीं ही दूंगा,क्योंकि कौन समाज के माथे पर कलंक है यह एक विचारणीय विषय है और उस निष्कर्ष पर न मैं इतनी जल्दी पहुचना चाहता हूँ न गाली देने वाले को पहुचाना चाहता हूँ.पहले तो व्यवस्था की बात की जाये तो किस व्यवस्था में वेश्याएं नहीं थी? कपूर साहिब को शायद फुर्सत ही नहीं मिली की मेरी टिपण्णी के उस अंश को पढ़ते जहाँ मैंने लिखा है कि “इसका विस्तार पूर्वक वर्णन हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है.जहाँ तक मेरा ज्ञान है,लिच्छवियों और मौर्यों के समय तो इसे एक तरह की कानूनी मान्यता भी प्राप्त थी.बौद्ध ग्रंथों में भी आम्रपाली नामक राजनर्तकी का उल्लेख है.”शायद उन्होंने पढ़ा भी हो पर उन्होंने सोचा होगा कि उस जमाने क़ी राजनर्तकी तो पूजनीय थी,वह वेश्या कैसे हो सकती है?यह गलत फहमी कपूर जी जैसे बहुत से भारतीयों को है,पर उन जैसे लोगों को सोचना चाहिये कि जिस देश में कामसूत्र कि रचना हजारों वर्ष पूर्व हो सकती है और जहां गुफाओं में प्रस्तर चित्र के रूप में काम क़ी विभिन्न मुद्राएँ दिखाई जा सकती है वह देश इस मामले में कितना आगे होगा,यह बताने कि आवश्यकता नहीं है.कपूर जी जैसे लोगों को मैं एकबार कौटिल्य अर्थशास्त्र भी फिर से पढ़ने कि सलाह दूंगा(फिर से पढ़ने क़ी सलाह इसलिए ,क्योंकि वे पहले भी इसे पढ़ चुके होंगे.)क्यों क़ी जहां तक मेरा ज्ञान है वहां भी इसका विषद वर्णन है. कोढ़ को छिपाने से नहीं उसको सामने लाकर उसका उपचार करने में व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण है.आप जैसे महानुभाओं से यही अनुरोध है कि हिपोकरैसी यानि विचारों के दोगलापन से ऊपर उठिए और वास्तविकता पर नजर डालिए तब आपलोग भी उसी निष्कर्ष पर पहुचेंगे जहाँ हमारे जैसे तथाकथित समाज के माथे के कलंक पहुचे हैं. नहीं तो आप बताईये तो सही कि समाज का कौन ढांचा आप तैयार करेंगे जहां वेश्याएं नहीं हों?

  5. क्या हम मुद्दे से भटक कर टिप्पणियाँ नहीं कर रहे ? मुद्दा तो यह है कि जिस व्यवस्था में स्त्री को वेश्या बनने के लिए मजबूर होना पड़े, ऐसी नकारा व्यवस्था को समझा और बदला जाना चाहिए न कि वेश्यावृत्ति को कानूनी या गैर कानूनी बनाने पर चर्चा होनी चाहिए. जिस समाज में स्त्री वेश्या बनने को बाध्य हो उस समाज के मुखियाओं, शासकों के लिए यह शर्म की बात होनी चाहिए. क्या कहें ऐसे शर्म प्रुफों को जो इस कलंक को समाप्त करने के स्थान पर इसे कानूनी मान्यता दे रहे हैं या उसकी वकालत कर रहे हैं. ऐसे विचारक तो विचारक नहीं, समाज के माथे पर कलंक हैं.

  6. जब से मनुष्य समाज का इतिहास बना हैतभी से वेश्याएं भी इसका हिस्सा रही है.यह हमारे देश में आयातित पेशा नहीं है. इसको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हर युग में मान्यता प्राप्त रही हैं.इसका विस्तार पूर्वक वर्णन हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है.जहाँ तक मेरा ज्ञान है,लिच्छवियों और मौर्यों के समय तो इसे एक तरह की कानूनी मान्यता भी प्राप्त थी.बौद्ध ग्रंथों में भी आम्रपाली नामक राजनर्तकी का उल्लेख है.अतः मैं नहीं मानता की इसको कानूनी मान्यता मिलने से कोई हानि होगी.रह गयी बात इस पर माफिया वगैरह के कब्जे की बात तो आज भी तो इस पूरे धंधे पर माफियायों का कब्जा है,जो कानूनी मान्यता मिलने पर शायद कुछ कम हो जाये..आज जो खतरा उन वेश्यायों के सर पर हमेशा मडराता रहता है,कानूनी मान्यता के बाद शायद वह भी कुछ कम हो जाये.ऐसे बहुत देशों में इसे कानूनी मान्यता प्राप्त है.मेरे समझ से वहां वे जयादा शान्ति पूर्वक जिंदगी गुजार रही हैं. रह गयी महिलाओं को और अँधेरे गर्क में धकेले जाने की तो मुझे तो ऐसा नहीं लगता.क्योंकि जो आज इस पेशे में हैं उनकी इससे ज्यादा खराब दशा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

  7. बहोत ही गंभीर मुद्दा है संसद प्रिया दत्त ने अपने बयान में जो कहा है इस बयान के पीछे yonkarmiyon ki आजीवका की apeksha से कहा है eisa pratit hota है .

  8. जिम्मेवारीपूर्ण लेखन.

    महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण उनकी अनेक समस्याओं का समाधान बन सकती है. समाज में मातर शक्ति को सम्मानजनक स्थान पर बनाए रखना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. आपने ठीक कहा प्रियादत्त अतिसरलीकृत समाधान चाहती है. जबकी कई कोणो से इसा समस्या का निराकरण आवश्यक है. उनके द्वारा सुझाया समाधान महिलाओं को और अधिक अंधे कुए की तरफ धकेल सकता है.

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