भारतवर्ष के यह स्वयंभू गुरु

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निर्मल रानी

कहा जाता है कि हमारा देश किसी युग में विश्वगुरु था। ऐसा कब था तथा भारत रूपी इस विश्वगुरु के कौन-कौन से शिष्य थे यह बातें न तो पता हैं, न ही इसकी गहराई में जाने और जानने से कुछ हासिल होने वाला है। बस एक भारतीय के नाते हम सभी भारतवासियों को यह अनंत सत्य घुट्टी की तरह अपने माता-पिता, अध्यापक, समाज तथा हमारे सम्मानित धर्म गुरुओं द्वारा पिला दिया जाता है कि हम आज भले ही जो कुछ भी हो गए हों परन्तु कल हमारा देश विश्वगुरु जरूर था। अब हम इसे मिथक कहें या वास्तविकता? विश्वगुरु रूपी भारत को किसी ने देखा तो नहीं परन्तु हमारे वेद पुराण, हमारे धर्म ग्रन्थ तथा शास्त्रों के हवाले से ही हमारे मार्गदर्शकों द्वारा यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि भारत वास्तव में विश्वगुरु ही था। आज के परिपेक्ष में यह शब्द समय के अनुसार थोड़ा परिवर्तित होकर ‘मेरा भारत महान’ के रूप में चर्चित होने लगा है।

चूंकि भारत मेरा है और अपनी हर चीज अच्छी, सुन्दर, टिकाऊ और महान ही नजर आती है। इसलिए हम इस बात से कैसे इन्कार कर सकते हैं कि मेरा भारत महान नहीं है? निश्चित रूप से हम भी दिन में कई बार यह रट लगाते हैं कि मेरा भारत महान है। परंतु विश्वगुरु रहे भारतवर्ष के दौर के सद्गुरुओं तथा मेरा भारत महान के आज के समय के मार्गदर्शकों या धर्माधिकारियों पर यदि हम नजर डालें तो हमें महान भारत की तस्वीर कुछ-कुछ साफ होती दिखाई देने लगेगी। यदि हम भारत के सबसे प्राचीन समझे जाने वाले हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में ही अपनी बात को आगे बढ़ाएं तो हम पाते हैं कि विश्व शांति एवं सहिष्णुता का पर्याय बना यह सम्प्रदाय भगवान राम, श्री कृष्ण, रामायण तथा महाभारत जैसी बेशकीमती विरासतों को अपने आप में समाहित किए हुए है। हिन्दू सम्प्रदाय के उस प्राचीनकाल के इतिहास में हमें लक्ष्मण जैसे भाई, हनुमान जैसे सेवक, सीता जैसी वफादारी एवं त्याग का पर्याय समझे जाने वाली देवी तथा अर्जुन और एकलव्य जैसे महान शिष्यों का उल्लेख मिलता है। हमें विश्वकर्मा तथा धनवंतरि जैसे महान ऋषियों का जिक्र मिलता है। इनकी महानता एवं योग्यताओं के बारे में मात्र पढऩे से ही हमें यह सोचने में कोई देर नहीं लगती कि सचमुच आज का हमारा भारत चाहे जिस स्थिति में हो परन्तु बीते कल का भारत जरूर विश्वगुरु रहा होगा।

फिर सवाल यही उठता है कि आख़िर आज के भारत में ऐसी क्या विशेषता है जो हम इसकी महानता की रट लगाए रहते हैं। हालांकि यह विषय इतना असीमित है कि इसको लेकर कई ग्रन्थ रचे जा सकते हैं परन्तु अत्यन्त संक्षेप में चर्चा करते हुए हम इस विषय को मात्र वर्तमान धर्मगुरुओं तक ही सीमित रखने का प्रयास कर रहे हैं। आज यदि हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करें तो हम देखेंगे कि हमारे चारों ओर धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर नए से नए धर्मगुरु अपनी दुकानें सजाए बैठे हैं। किसी की यह दुकानें अभी नई हैं तो किसी की दुकानें एजेन्सी डिपो या आढ़त का रूप ले चुकी हैं। धर्मोपदेशक, कथावाचक तथा अपने-अपने अलग पंथ चलाने वालों की भी इस देश में मानो बाढ़ सी आ गई है। इन सब के साथ आंख मूंदकर जुड़ते जा रहे इनके अनुयायियों को देखकर वास्तव में यह एहसास होता है कि सचमुच मेरा भारत महान ही है। जो बैठे बिठाए किसी एक मामूली से मामूली पीताम्बर या श्वेताम्बरधारी को फर्श से उठाकर अर्श पर बिठा देता है। साधारण सी आत्मा रातों-रात, महात्मा का रूप धारण कर लेती है।

यहां फिल्म जगत से जुड़े एक दृश्य का हवाला देना तर्कसंगत होगा। क्रान्तिवीर नामक एक फिल्म में अभिनेता नाना पाटेकर एक मीडिया कर्मी महिला की भूमिका अदा कर रही सिने तारिका डिम्पल कपाडिया को सम्बोधित करते हुए इस आशय का संवाद पेश करते हैं कि ‘जब हमारे सदियों पुराने गीता, कुरान और रामायण जैसे धर्मग्रन्थ समाज को सही दिशा दिखा पाने में कारगर साबित नहीं हुए तो तुम्हारी मामूली सी लेखनी से समाज क्योंकर बदल सकेगा’। इसी बात के मद्देनजर हमें कल के और आज के धर्मगुरुओं की भी आपस में तुलना करनी जरूरी हो जाती है। राम ने अयोध्या के वैभवपूर्ण राजपाट को ठोकर मार कर 14 वर्ष वनवास में गुजारे। इस दौरान उन्हें तमाम तकलीफें भी उठानी पड़ीं। यहां तक कि सीता हरण तथा रावण वध जैसे जीवन के कष्टदायी एवं चुनौतीपूर्ण दौर से भी गुजरना पड़ा। उन तमाम त्याग व तपस्या के बाद आज भगवान राम, मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से करोड़ों राम भक्तों के हृदय में वास करते हैं। इसी तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखें। हम आज के उन धर्माधिकारियों पर नजर डालें जो स्वयं को भगवान राम और कृष्ण का सेवक, अनुयायी या उनके उद्देश्यों को आगे बढ़ाने वाले ध्वजावाहक के रूप में पेश करते हैं तो हमें न तो कहीं त्याग के दर्शन होते हैं, न तपस्या दिखाई देती है, न ही दुरूख तकलीफ सहन करने की कोई क्षमता नजर आती है। ऐसी हर जगह पर केवल आधुनिकता एवं पाश्चात्य चकाचौंध का बोलबाला दिखाई पड़ता है। वास्तविकता तो यह है कि अज्ञानियों द्वारा ज्ञान बांटने का दावा किया जाने लगा है। इसी दौर में हुए महान त्यागमूर्ति एवं तपस्वी सन्त देवराहा बाबा का व्यक्तित्व हिन्दू समाज में परिचय का मोहताज नहीं है। वास्तव में उनकी एक झलक मात्र से ही ऐसा प्रतीत होता था कि आंखों ने किसी महान व्यक्तित्व के दर्शन किए हों। ऐसी ही एक और तपस्या एवं त्याग की प्रतिमूर्ति स्वामी कल्याणदेव जी के रूप में थी। अपना सारा जीवन शैक्षणिक संस्थाओं के खुलवाने में बिता देने वाली तथा फटे हुए चिथड़ों में अपनी जिन्दगी गुजारने वाली इस महान आत्मा ने अभी कुछ समय पूर्व कथित रूप से 128 वर्ष की आयु पूरी कर स्वर्ग लोक का रास्ता तय किया। ऐसे प्रतिभाशाली एवं अद्वैत संतों के नामों के साथ राष्ट्रीय संत शब्द लगा दिखाई देता था। परन्तु बड़ी हैरानी की बात है कि आजकल जिसे देखो वही मात्र साधू वेषभूषा धारण कर स्वयं को राष्ट्रीय संत की श्रेणी में स्वयंभू रूप से गिनने लग जाता है। इन दिनों एक कृष्ण भक्त तथाकथित सद्गुरु द्वारा अपने प्रवचनों का जोरदार अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान में उनकी मार्किटिंग की व्यवस्था स्वयं संत जी के भाई व अन्य रिश्तेदार जो गृहस्थ जीवन से जुड़े हैं वे स्वयं देखते हैं। बताया जाता है कि इस तथाकथित वर्तमान गुरु को उसी के गुरु ने उसकी हरकतों से नाराज होकर अपने आश्रम से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। गुरु बनने का चस्का लग चुकने के बाद आख़िर शिष्य ने गुरु का रूप धारण करके ही दम लिया। देखते-देखते सुव्यवस्थित मार्किटिंग एवं बढिय़ा मीडिया प्रबन्धन की बदौलत आज वही गुरु तथाकथित रूप से एक महान संत का रूप धारण कर चुके हैं। जाहिर है महान व्यक्ति के साथ यदि कोई विशिष्ट उपाधि न लगी हो तो महानता अधूरी समझी जा सकती है। इसी शंका के मद्देनजर इस तथाकथित कथावाचक रूपी सद्गुरु ने देखते ही देखते अपने नाम के साथ ‘राष्ट्रीय संत’ शब्द भी लगाना शुरु कर दिया। हरियाणा से अपनी राष्ट्रीय संत की पारी शुरु करने वाले इस कथावाचक ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने कुशल मीडिया प्रबन्धन एवं मार्किटिंग की बदौलत शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली है। जाहिर है जब इतने शार्टकट से आज राष्ट्रीय संत जैसी सम्मानित उपाधि को ‘दबोचा’ जा सकता हो तो देवराहा बाबा या स्वामी कल्याणदेव जी जैसी महान विभूतियों का त्यागपूर्ण अनुसरण करने की आख़िर जरूरत ही क्या है?

उपरोक्त उदाहरण से एक और बात उजागर होती है कि आख़िर इन सन्तों के वास्तविक आदर्श हैं कौन? भगवान राम, भगवान कृष्ण? यदि यह आदर्श हैं तो गुरु घंटाल बनने का दुष्प्रयास करने की जरूरत ही क्या है? फिर तो त्याग और तपस्या की न सिर्फ बातें होनी चाहिएं बल्कि उस रास्ते पर पूरा न सही परन्तु कुछ दूर तक तो चलने का प्रयास किया ही जा सकता है। परन्तु दरअसल इनके आदर्श वे हैं ही नहीं। ये आधुनिक एवं नित्य नए पैदा होने वाले कथित धर्मोपदेशक राम और कृष्ण का तो केवल नाम ही प्रयोग करते हैं। ताकि राम-कृष्ण को मानने वाले अधिक से अधिक भक्तों को अपना अनुयायी बनाया जा सके। इनके वास्तविक आदर्श एवं प्रेरणास्त्रोत तो वे तथाकथित महान संत एवं धर्मोपदेशक हैं जो न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी मार्किटिंग एवं मीडिया प्रबन्धन के बल पर अपनी पहचान बना चुके हैं। आज मात्र धर्मोपदेशक की ही आड़ में उनके बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हो चुके हैं। जिसका उत्पाद मात्र उन्हीं के भक्तों ही द्वारा ख़रीदा जाए तो उन्हें खुले बाजार में अपना माल बेचने की जरूरत ही नहीं महसूस होगी।

शायद ऐसे ही धर्मोपदेशक या इनकी क़तार में लगे अन्य नवोदित धर्मगुरुओं की ही बदौलत हम आज भी यह रट लगाए रखते हैं कि सचमुच जिस देश की सीधी-सादी, शरीफ जनता महान है उस देश का गुरु अथवा कथित धर्मोपदेशक या कथावाचक महान क्यों नहीं होगा और यदि यह सब कुछ महान हैं तो हमें यह कहने में क्या हर्ज है कि वास्तव में ‘मेरा भारत महान ही है’।

1 COMMENT

  1. यहाँ भी एक कभी न ख़त्म होनेवाला सामंतवाद ही नज़र आए…
    सच ही कहा !यहाँ सादगी, चरित्र, त्याग, तपस्या,अपरिग्रह, शील इत्यादि के दर्शन दुर्लभ हुए हैं…

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