प्रमोद भार्गव
भारतीय कुटुंब व्यवस्था में परिवारों के बिखरने और जुड़ने का सिलसिला चलता रहता है। जनता परिवार के दलों का टूटना और जुड़ना इस सिलसिले के नए पर्याय के रुप में सामने आया है। अब लंबी रस्साकशी के बाद अततः जनता परिवार के छह दलों के विलय की घोषणा कर दी गई है। कालांतर में ये दल सामाजवादी पार्टी,जनता दल,राष्ट्रीय जनता दल;यूनाइटेड, ,भारतीय राष्ट्रीय लोकदल,जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी के एकीकृत समूह में बदलने जा रहे हैं। हालांकि एकीकरण की कवायद में पिछले एक साल से लगे इस परिवार में ‘एक नाम,एक झंडा और एक विधान‘ पर सहमति अभी भी सामने नहीं आई है। दल की बुनियादी पहचान से जुड़े ये तीनों ऐसे मुद्दे हैं,जो अहम् टकराव के चलते परिवार के कथित जोड़ में दरार पैदा कर सकते हैं। क्योंकि पहचान के यही वे चिन्ह हैं,जो इन दल प्रमुखों की अस्मिता कायम रखे हुए हैं। फिलहाल पार्टी और संसदीय बोर्ड की कमान मुलायम सिंह पर छोड़कर,सभी विवादित मुद्दों के हल की जुम्मेबारी उन्हीं पर छोड़ दी है। ये मुद्दे जल्द हल हो भी जाते हैं तो लगता नहीं कि राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर भानुमति का यक कुनबा कोई बड़ा चमात्कार दिखा पाएगा ?
जनता परिवार में शामिल दलों के मुखिया उस समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन के अनुयायी रहे हैं,जिसकी नींव १९३० में स्वामी सहजानंद ने रखी थी,और जिसे कालांतर में परिवर्तित रूपों में आचार्य नरेंद्र देव,डॉ राममनोहर लोहिया एवं जयप्रकाश नारायण ने आगे बढ़ाया था। आपातकाल के बाद १९७७ में हुए लोकसभा निर्वाचन में इसी विचारधारा के अलंबरदारों ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके जनता पार्टी की अगुवाई में चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत का परचम फहरा कर गैर-कांग्रेसवाद का झंडा राष्ट्रीय फलक पर लहराया। लेकिन लंबे संघर्ष के बाद जीती हुई बाजी अहम् टकराव के चलते जल्दी गंवा भी दी थी।
इसी विचारधारा के लोग १९८९ में एक बार फिर वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल के रूप में एकजुट हुए और बोफोर्स गोले दागकर राजीव गांधी को दिल्ली की गद्दी से बेदखल कर दिया था। दुर्भाग्यवश आपसी फूट और प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने की होड़ के चलते यह गठबंधन फिर छिन्न-भिन्न हो गया। बिखराव के संक्रमण की मार के बावजूद लालू,मुलायम,नीतीश,देवगौड़ा और ओमप्रकाश चौटाला समाजवादी विचारधारा के क्षेत्रीय क्षत्रपों के रूप में मजबूती से स्थापित हो गए। उत्तर प्रदेश,बिहार,हरियाणा और कर्नाटक की राज्य सत्ताओं के तो ये लंबे समय तक खिलाड़ी रहे ही,केंद्र में कांगे्रस और भाजपा के साथ गठबंधन सरकारों में शामिल होकर सत्ता का लुफ्त भी उठाते रहे। अलबत्ता २०१४ के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी ने अपनी हैरतअंगेज राजनीतिक कौशल दक्षता के चलते क्षेत्रीय,जातीय और सांप्रदायिक भूगोल को बदलकर इन क्षत्रपों के हौसले पस्त कर दिए। जिन क्षेत्रों को ये नेता अपना अपराजेय गढ़ मानते थे,उनमें इनके दलों को गिनने लायक सीटें भी नहीं मिल पाई थीं। मुलायम तो जैसे-तैसे अपने कुनबे की नैया खेने में सफल भी रहे,लेकिन लालू तो कुनबे समेत डूब गए थे। नतीजतन,वर्तमान लोकसभा में जनता परिवार के लोकसभा में १५ और राज्यसभा के ३० सांसद हैं। इन दलों के पास कुल मिलाकर ४२४ विधायक हैं। जबकि कांग्रेस के पास ९४१ और भाजपा के पास १०२९ विधायक हैं। गोया,इस परिवार का असर जुम्मा-जुम्मा पांच राज्यों में है और बिहार व उत्तर प्रदेश में सत्ता में हैं। बावजूद इस परिवार को एक नाम,एक निशान और एक विधान मिल जाता है तो यह दल भाजपा और कांगे्रस के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा दल बन जाने का खिताब हासिल कर लेगा।
वैसे तो इन दलों की एक जुटता मुश्किल थी,क्योंकि उत्तर प्रदेश में इस विलय के बावजूद सपा से नए मतदाताओं समूह नहीं जुड़ रहे हैं। सपा का आखिर में मुकाबला भाजपा और बसपा से ही होगा। बिहार में लालू भी अपने परिवार के राजनीतिक हितों के बलिदान को तैयार नहीं थे। किंतु मोदी लहर ने जिस तरह से उनके कुनबे को पराजय का स्वाद चखाया और इस हार के बावजूद वे कुछ नया कर पाने में खुद को सक्षम नहीं पा रहे हैं,इसलिए हृदय परिवर्तन को विवश हुए हैं। लालू के इस परिवार में शामिल होने का एक कारण यह भी है कि बीते साल मोदी की सुनामी गुजरने के बाद जब बिहार में विधानसभा के उप चुनाव हुए थे, तब लालू और नितीश ने गठजोड़ करके चुनाव लड़ा था। नतीजतन ये ११ में से ८ सीटें जीतने में सफल हो गए थे। लालू को इस कामयाबी ने भी एकीकरण के लिए प्रेरित किया है। जाहिर है,लालू और नितीश इसी साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे तो मोदी की चुनौती का सामना ठीक से कर पाएंगे,अन्यथा भाजपा को बिहार में हराना मुश्किल होगा। गोया इस विलय का जो असर दिखेगा,उसके कारगर नतीजे जनता परिवार को केवल बिहार से ही मिलने की उम्मीद है। लेकिन इन अपेक्षित नतीजों के लिए नितीश कुमार को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार चुनाव पूर्व घोषित करना होगा।
जनता परिवार के सभी दल प्रमुख अपने आप में एक बड़ी राजनीतिक शख्सियत की हैसियत हासिल कर चुके हैं। गोया,राष्ट्रीय दल के रूप में उभरती इस परिवार की शक्ति कांग्रेस और वाम दलों के अस्तिव को बड़ी चुनौती बनने जा रही है। सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के समक्ष है,जो पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार अपना जानाधार खोती चली आ रही है। बावजूद इस सबसे पुरानी पार्टी में परिवर्तन की आहट दिखाई नहीं दे रही है। जिन राहुल गांधी पर पार्टी के कायाकल्प का दायित्व है,वे दो़ माह बाद लौटे हैं। ऐसे पलायनवादी रवैये के चलते पार्टी में आमूल-चूल बदलाव नमुमकिन दिखाई दे रहा है। यदि कांग्रेस कुछ समय और यथास्थिति का शिकार बनी रहती है तो कोई हैरानी नहीं कि उसे भी जनता परिवार की शरण में जाने की लाचारी झेलना पड़ जाए ? ऐसा होता है तो उसे कालांतर में वजूद कायम रखना भी मुश्किल होगा।
कांग्रेस जैसी दयनीय हालत में वामदल आ गए हैं। क्योंकि ये भी समय के साथ बदलाव लाने में नाकाम रहे हैं। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी द्वारा पराजय के बाद ये दल अखिल भारतीय स्तर पर महामोर्चा के गठन को सक्रिय दिखाई दिए थे,लेकिन अब जनता परिवार में छह दलों के एकीकरण के बाद वामदलों के नेतृत्व में महामोर्चा की संभावनाएं कमोवेष खत्म हो गई हैं। गोया, बदलते परिदृष्य में मतदाता की नब्ज जानने में असफल रहे वामदलों के पास भी अब जनता परिवार का हिस्सा बनने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। वैसे भी जनता परिवार का जो भी वर्चस्व है,वह कर्नाटक को छोड़ हिंदी प्रेदेशों में ही है और इन प्रदेशों से वामदल नदारद हैं। गोया,वामदलों से तत्काल जुड़ने की कोई लाचारी जनता परिवार के पास नहीं है। बहरहाल जनता परिवार राष्ट्रीय फलक पर एक नए समाजवादी विकल्प के रूप में उभरता दिखाई दे रहा है,लेकिन इसकी प्रभावशाली पहचान जनमानस में तभी बनेगी जब यह दल एक नाम,एक निशान और एक विधान के रूप में तो पेश आए ही,नीति कार्यक्रम और राजनीतिक संस्कृति को भी समावेशी पहचान दे। इनकी कार्यशैली इसलिए संदिग्ध बनी रहती है,क्योंकि ये दल ताकत पकड़ते ही क्षेत्रीय, जातीय और संप्रदाय से जुड़ी विघटनकारी राजनीति का शिकार हो जाते हैं।
झक सफ़ेद और सफेदपोश मेजों पर बिसलेरी की बोतले लिए जो नेता एकीकरण के लिए बैठक करते दिख रहे थे वे समाजवादी और जनता के हैं या नहीं यह विचारणीय विषय है, जिन नेताओं की तस्वीर आई है उनमे तीन नेता तो दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं /तीन में से दो ऐसे हैं जिनका आधा कुनबा पदों पर विराजमान हैं. यदि वे सभी इस बैठक में होते तो सोचिये नज़ारा कैसा होता?तेज यादव,अखिलेश यादव , रामगोपाल यादव, साधु यादव, श्रीमती राबड़ी देवी, नेताजी की बहु , भाई ,ये सब होंगे ही या फोटो में होते तो ऐसा लगता जैसे कोई पारिवारिक समारोह हो. यह मोर्चा ाअनुभवी नेताओं से युक्त है। इन नेताओं ने संघर्ष किये हैं. यह मोर्चा सफल हो सकता है बशर्ते (१)लालूजी,मुलायमजी,और शरद जी घोषणा कर दें की हम हमारे परिवारों से केवक एक और केवल एक व्यक्ति को ही टिकट देंगे. (२ )नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनायेंगे. (३)किसी भी स्थिति में इस मोर्चे को बिखरने नहीं देंगे. चाहे हम पर किसी प्रकार की जाँच ,चले और उसका कोई फैसला आये. (४) हम में से जो नीतीश कुमार के अलावा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री रहा है वह कदापि अब किसी पद की लालसा नहीं रखेगा. और हमारे परिवार से केवल एक निकट का व्यक्ति ही सरकारी पद पर होगा. देखें की यह मोर्चा भाजपा और कांग्रेस को पीछे छोड़ देगा.