बच्चों का बिगड़ता बचपन

tv childएक जमाना था जब बच्चे नानी-दादी की गोद में परी कथायों की रंगीन दुनिया में खो जाते और नींद में ही बुन लेते सपनों का एक सुनहरा संसार| एक अजीब सा वक्त, जिसमें न कोई फिक्र न कोई गम और न ही किसी की परवाह| याद है, जब हम हम बच्चे थे तो उस समय की मौज-मस्ती दुनिया की सारी खुशियों से भी ऊपर है| दादा का दुलार, दादी का प्यार और मम्मी-पापा की दी हुई आजादी का मोल नहीं लगाया जा सकता| हाँ, लेकिन जब उस दौर को याद करता हूँ तो उसे वापस पाने की चाहत में दिल रो जाता है| कहाँ आ गया हूँ मैं? काश! वो वक्त वहीँ ठहर जाती…

बेशक, लेकिन अगर हमारी 15 साल पहले की सामाजिक स्थिति की आज से तुलना करें तो काफी कुछ बदला दिखता है| लोगों का स्वभाव, उनका व्यव्हार, उनकी जरूरतें सबकुछ बहुत तेजी से बदला है| कह सकतें हैं की जब देश बदल रहा है, समाज बदल रहा है, लोग बदल रहें हैं तो ऐसे में स्वाभाविक है की बच्चे का स्वाभाव, उनका व्यवहारसबकुछ बदलेगा ही| कुल मिलाकर आज के बच्चों की कोई तुलना ही नहीं है| टेलीविज़न, सिनेमा और इन्टरनेट की इस दुनिया में बच्चों की मासूमियत कहीं गम सी हो गयी है| स्कूल से घर आने पर दादा की आँखें तरसने लगी है, अपने पोते की मासूम कारनामों को देखने की| अब कोई बच्चा अपनी दादी से कहानियां सुनाने की जिद नहीं करता| जानते हैं क्यों? आज की आधुनिकता की दौर में फंसे परिवारों में दादा-दादी अप्रासंगिक हो गए हैं| शहरी नौकरीपेशा परिवारों में तो लोग बड़े परिवार के साथ रहे से परहेज़ करने लगे हैं| चाचा-बुआ जैसे संबंधों को बच्चे नाम के अतिरिक्त ज्यादा कुछ नहीं समझ पाते!

इन सब से ठीक उलट इन बच्चों ने अपनी एक नई दुनिया बसा ली है| उनका दुनिया-जहाँ है, मार-काट से भरे कंप्यूटर गेम्स, उलुलजुलुल के कार्टून्स और बेसिर-पैर के भद्दे फ़िल्मी गीत| जाहिर सी बात है, इससे न तो उनका शब्द सामर्थ्य बढ़ना है और न ही बौधिक विकास होना है| हालात ये हैं की आज के बच्चों से किसी पौराणिक चरित्र का नाम पूछिये तो बगलें झाँकने लगेंगे, लेकिन किसी कार्टून कैरेक्टर या किसी फ़िल्मी हीरो का नाम पूछिये तो वह उनकी जुबान पर ही रखा होगा| यह बदलाव कहाँ से आया? यह बदलाव उस माहौल, उस परिवेश से आया है जिसमें आज के बच्चे पल रहे हैं| उनके माँ को रसोई से और बचे टाइम में सास-बहु सीरियल के अलावा फुर्सत ही नहीं है, जबकि उनके पिता जिन्दगी के भागदौड़ में अक्सर व्यस्त ही रहते हैं| आजकल के पेरेंट्स बच्चे को अच्छे अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में दाखिला दिला देने को परिपूर्ण मान लेते हैं| कितने ऐसे पेरेंट्स हैं जो स्कूल से आने के बाद बच्चे की कॉपी चेक करते हैं? कितने ऐसे पेरेंट्स हैं जो बच्चे की हरकतों पर नज़र रखते हैं की उनका बच्चा क्या खा रहा है, क्या देख रहा है? कहीं वो किसी गलत संगत में तो नहीं पड़ गया? लेकिन इसकी हकीकत बहुत ही निराशाजनक है…

अक्सर देखा जाता है की बच्चे स्कूल से घर आते ही हाथ में रिमोट लेकर कार्टून देखने में लग जाते हैं| आजकल के पेरेंट्स अपने बच्चों की बिगड़ी बातचीत की भाषा से खासे परेशान हैं| वे कार्टून कैरेक्टर्स को पूरी तरह से अपना लेते हैं और बोलचाल में कार्टून चरित्र वाली ही लहजे का इस्तेमाल करते हैं| जिद्द पूरी करने के लिए डोरेमोन, निंजा जैसे बेवकूफाना हथकंडे अपनाते हैं और न मानने पर उन चरित्र जैसा मुंह भी बनाने लगे हैं| कुल मिलाकर ये सारी चीजें बच्चों के बालमन में घुसपैठ करके पूरी तरह हावी हो चुकी है, जो एक गंभीर संकेत है| ऐसे में बेहतर होगा की अभिभावक इन चीजों पर पाबंदी लगायें और मनोरंजन के तौर पर साथ बैठकर उन्हें वही चीजें देखने को प्रेरित करें जो उनके भविष्य निर्माण के लिए सार्थक हो| अगर ऐसा नहीं होता है तो कहीं न कहीं बच्चों के बिगड़ने का जिम्मेदार उन्हें ही माना जाएगा| दो-तीन साल के बच्चे जो टीवी-सिनेमा की इस आधुनिक दुनिया में रहते-रहते इस कदर आधुनिक हो जाते हैं की अगर उनके सामने गुडिया और खिलौना रिवाल्वर रख दिया जाए तो वो रिवाल्वर को उठाता है|

नतीजा क्या हो रहा है? उनका बालमन बदल रहा है, उनका मानस बदल रहा है, उनकी मासूमियत छीन रही है और उनका व्यवहार भी उनकी उम्र जैसा नहीं रहा| ये इस बात का संकेत है की आनेवाली जो पीढियां हमें मिलने वाली है उसमें हमारे गुण-दोष से कई गुना ज्यादा समाहित होगी| इसलिए चाणक्य ने कहा था की 6 साल तक अपने बच्चे को खूब प्यार करो, 6 से 12 साल तक कठोर अनुशासन सिखाओ, 12 से 15 तक सारे संस्कार बताओ उसके बाद मित्रवत व्यवहार करो… (जो आज काफी हद तक सही भी लगता है…)

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