शब्द वृक्ष तीन-डॉ. मधुसूदन

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एक: ध्वनि-परिवर्तन

पाठक जानते ही होंगे, कि, हमारे हिन्दी-संस्कृत शब्दों के उच्चारण युरप की भाषाओं में बदल जाते हैं, उस का एक मूल कारण है, रोमन या ग्रीक लिपि में उच्चारणों की और अक्षरों की कमी।

हमारे ३५ व्यंजन और १२ (१६) स्वर, किन्तु रोमन लिपि के १९ व्यंजन और ६-७ स्वर। ऐसी सीमित सामग्री से उन्हें काम चलाना पडता है।

स्वाभाविक है, कि उन्हें, त थ ट ठ ऐसे व्यंजनों का काम अकेले t और th से ही चलाना पडता है। वैसे ही द ध ड ढ का भी काम d और dh से चलाते हैं। इस कारण हमारे अक्षरों का उच्चारण युरप (अंग्रेज़ी) में परिवर्तित हो जाता है।

उदाहरणार्थ हमारा द्वार, अंग्रेज़ी में डोअर हो जाना, हमारा केंद्र अंग्रेज़ी में केंट्र (centre) और सेंटर हो जाना, हमारा गौ (गउ )अंग्रेज़ी में काउ हो जाना, ऐसे बहुत सारे उदाहरण, इस बिन्दु की पुष्टि में दिए जा सकते हैं। इस बिंदु को ठीक समझ कर, ध्यान में रख लिया जाए। इसका अधिक विस्तार करने का उद्देश्य नहीं है।

दो: देवनागरी की क्षमता, और रोमन अंग्रेज़ी की त्रुटियाँ

देवनागरी जानने वालों को, कुछ अपवादों को छोडकर,लगभग सभी रोमन उच्चारण, कुछ अभ्यास करने पर संभव हो जाते हैं। पर रोमन लिपि के साधारण जानकार देवनागरी (संस्कृत) के शुद्ध उच्चारण कर नहीं सकते। पर सही देवनागरी जाननेवाले के लिए यह बडा लाभ है, कि उसे संसार के अधिकांश उच्चारण की सुविधा सहज प्राप्त है।

पर भारत में भी अपनी भाषाओं का स्वाभिमान लुप्त हो रहा है। स्थिति दयनीय है। लोगों को हिन्दी में गलती करने पर संकोच नहीं, पर अंग्रेज़ी में गलती करने पर हीनता का अनुभव होता है। यह हीन ग्रन्थिका लक्षण है।

कुछ शिक्षित(?) पश्चिम-प्रभावित पाठक भी, देवनागरी की उच्चारण क्षमता का यह गुण, समझ नहीं पाते और हिन्दी को देवनागरी त्याग कर रोमन लिपि अपनाने जैसा घाटे का परामर्ष देते रहते हैं। देवनागरी उच्चारण आने पर रोमन उच्चारण अधिक कठिन नहीं। पर रोमन उच्चारण सीखने पर देवनागरी का उच्चारण निश्चित ही कठिन है।

बच्चों को यदि आपने बचपन से केवल रोमन (अंग्रेज़ी ) ही पढायी, तो फिर गीता का पहला श्लोक भी, ढर्म क्षेट्रे कुरु क्षेट्रे समवेटा युयुट्सवाः, इत्यादि सुनने के लिए तैय्यार रहिए।

तीन: ध्वनि-परिवर्तन के नियम

यह युरोपिय ध्वनिपरिवर्तन कुछ भाषा वैज्ञानिकों के ध्यान में आया, और उन्हों ने ध्वनि परिवर्तन संबंधी नियमों का गठन किया।

ऐसे ध्वनि-परिवर्तन संबंधी नियमों का शोध ”ग्रिम” नामक भाषा वैज्ञानिक ने किया था, इस लिए नियमों को ग्रिम नियम कहा जाता है। उदाहरणार्थ, भारतीय मूल के, क त प —-> जर्मनिक ख़ थ फ़ और घ ध भ इत्यादि, बन जाते हैं। और आगे फिर ”ग्रासमन”, और ”फ़ेर्नर” इत्यादि विद्वानों ने भी ऐसे और नियम खोजे हैं।

इन भाषा वैज्ञानिकों ने अनेक संस्कृत मूल के युरोपीय शब्द लेकर उच्चारण की तुलना करते हुए, ऐसे ध्वनि परिवर्तन के नियम बनाए।सामान्य जानकारी के लिए, इन सभी नियमों को समझने की आवश्यकता नहीं है।

पर इस ध्वनि परिवर्तन का कारण, अंग्रेज़ी कि रोमन लिपि, और ग्रीक इत्यादि लिपियों की सीमित और त्रुटिपूर्ण उच्चारण क्षमता है। यह समझना और ध्यान में रखना आवश्यक है।

चार : ज्ञा बीज धातु वृक्ष

ज्ञा बीज धातु पर आज वृक्ष खडा करते हैं। यह एक मह्त्त्वपूर्ण शब्द-बीज या धातु हैं। इसका सामान्य अर्थ है जानना, प्रत्येक प्रकार की जानने की क्रिया, जिन जिन क्रियाओं से कुछ जानकारी प्राप्त की जाती है, ऐसी हर क्रिया इस धातु के अंतर्गत आती है।

ज्ञा का उच्चारण उत्तर भारत में ग्या, महाराष्ट्र में ग्न्या या द्न्या, और गुजरात में ग्ना होता है। ज्ञान का, ग्यान (हिन्दी), ग्न्यान या द्न्यान (मराठी), ग्नान (गुजराती) होता है।

पांच : अंग्रेज़ी मे ज्ञ का क्न और ग्न

अंग्रेज़ी मे ज्ञ का क्न और ग्न दोनो दिखाई पडते हैं। हमने भी आज इसका सही उच्चारण शायद खो दिया है। फिर भी मेरा प्रामाणिक मत महाराष्ट्र के उच्चारण को स्वीकार करता है। वैसे स्व. संस्कृतज्ञ पद्म श्री डॉ. वर्णेकर जी भी किसी एक उच्चारण को स्वीकार करते नहीं थे। वैसे संस्कृत व्याकरण कि एक पुस्तक में इसका क्रम ज के बाद दिया गया है।

मेरी मान्यता है, कि महाराष्ट्र का उच्चारण ही सही होगा।आप यदि पूछेंगे कि क्यों? तो उसका मेरी दृष्टि से कारण यह है, कि अन्य सभी उच्चारण भी महाराष्ट्र में स्पष्टतः शुद्ध ही होते हैं। यह भी मेरा वयक्तिक मत है। मान्यता, मान्यता ही होती है, कोई तर्क देने में मैं असमर्थ हूँ।

 

छ:: बीज धातु ज्ञा के अर्थ स्तर

(”ज्ञा” जानाति, जानीते) ऐसा उभयपदी धातु है।

धातु ज्ञा पर क्रियापद जानाति, जानीते बनता है।

(१) जानना (सब अर्थों में) सीखना, परिचित होना,(२) जानकार होना, या विज्ञ होना(३) मालूम करना, खोज करना, निश्चय करना,(४) समझना, अवबोध करना, अनुभव करना, प्रतीत होना, (५) परीक्षण करना, जांच करना, वास्तविक चरित्र जानना(६) पहचानना, (७) मान करना, ध्यान करना, (८) काम करना, व्यस्त करना

वैसे और दो प्रेरणार्थक रूप (ज्ञापयति, ज्ञपयति) है। जिनके अर्थ स्तर (९) घोषणा करना, जतलाना, सूचित करना, (१०) निवेदन करना, कहना ऐसे दो अर्थ स्तर होते हैं।

सात: ज्ञा का शब्द वृक्ष

इसका धड या तना तो ज्ञा ही है। अब वृक्ष की एक डाली लेते हैं।

डाली एक पर, ज्ञान, विज्ञान, संज्ञान, प्रज्ञान, अज्ञान, अभिज्ञान, परिज्ञान पराज्ञान इत्यादि शब्द फूल या पत्ते खिले हैं।

इसी डाली से ही एक छोटी डाली फूट कर, ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी ……इत्यादि बन जाते हैं।

डाली दो पर, आज्ञा, अनुज्ञा, प्रज्ञा, संज्ञा, अभिज्ञा, प्रतिज्ञा, अवज्ञा, इत्यादि शब्दफूल या पत्ते खिले हैं।

तीसरी डाली पर, ज्ञापन, विज्ञापन, प्रज्ञापन……..

चौथी पर ज्ञाता, विज्ञाता, प्रज्ञाता, संज्ञाता…….

पांचवीपर ज्ञाति या जाति, प्रजाति, विजाति, सुजाति…….

छठवी डालीपर जानना, जानकार, जानकारी, अनजान, सुजान ……

सातवी :बहुत बडी डाली ज्ञ (विशेषण) समास के अन्त में जोडने से मिलती है। जिसका अर्थ उस उस विषय को जानने वाला ऐसा होता है।

उदाहरणार्थ: शास्त्रज्ञ= शास्त्र जानने वाला, गणितज्ञ= गणित का जानकार,विधिज्ञ= (विधि) कानून का जानकार यन्त्रज्ञ= यन्त्र का जानकार मॅकेनिकल इंजिनियर, वास्तु शास्रज्ञ= आर्किटेक्ट, संगीतज्ञ=संगीत का जानकार, वेदज्ञ= वेदों का जानकार, इतिहासज्ञ =इतिहास का जानकार, संस्कृतज्ञ=संस्कृत का जानकार , विशेषज्ञ=विशेष जानकार , अल्पज्ञ=अल्प (कम) जानकार, अज्ञ = अज्ञानी , सुज्ञ = अच्छा जानकार ,मर्मज्ञ = मर्म जानने वाला।

आंठ: आरक्षित शब्द: और भी अनेक शब्द आरक्षित रखे गए हैं, मैं ने ऐसे शब्द विशेष दिखाए नहीं है। जो प्र, परा, अप, सम, अनु, अव, निस या निर, दुस, या दुर, वि, आ, नि, अधि, अपि, अति, सु, उद, अभि, प्रति, परि, उप… इत्यादि उपसर्ग शब्दांश धातु ओं के आगे लगाने से बन जाते हैं।

इन्हें ज्ञान के आगे क्रमशः लगाकर, अपज्ञान, अनुज्ञान, अवज्ञान, निर्ज्ञान,दुर्ज्ञान, आज्ञान, निज्ञान, अधिज्ञान, अपिज्ञान, सुज्ञान, उद्ज्ञान, प्रतिज्ञान, उपज्ञान….. ऐसे शब्द बनते हैं। इनके अर्थोचित शब्द जब हमें आवश्यकता होगी तब निकाल कर चलन में लाया जा सकता है। ऐसे और भी इस से २५ गुना, शब्द केवल ज्ञा धातु के अनेक रूपों पर रचे जा सकते हैं। उसी प्रकार शब्दों के अंत में प्रत्यय लगाकर एक एक रूप से ही, ८० तक शब्द बनाए जा सकते हैं।

नौ: जुडे हुए अंग्रेज़ी शब्द

यह एक हमारे बट वृक्ष की जटा जो युरप में फैली और वहीं पर फिर उप-वृक्ष बन गयी उसी का शब्द वृक्ष निम्न शब्दों में प्रस्फुटित know के और gno के भिन्न शब्द-रूप हैं। कुछ ही उदाहरण जुटा पाया। आप देखिए।

(१) know=जानना

(२) knowable=जानने योग्य

(३) knower=जानकार

(४) knowingly= जानते हुए

(५) Known=जाना हुआ

(६) Unknown, अनजाना।

(७) knowledge=जानकारी

(८) knowledgeable= जानकार या ग्यानी

(९) knowledgeability= जनकारी युक्तता

(१०)knowledgeably= जानकारी पूर्णता से,

(११)knowledgeableness =विज्ञता, जानकारी वाली स्थिति

निम्न शब्दों में gn या gno रूप है।

(१२) Cognition, Cognizance= संज्ञान, प्रज्ञान, बोध,

(१३) Recognize, Recognition= पहचानना, प्रसिद्धि (जाना जाना)

(१४) Diagnosis, = रोग अन्वेषण (जानना)निदान

(१५) Prognosis= विश्लेषण के आधार पर पूर्व सूचना।

(१६) Agnostic= अज्ञातवादी (कुछ जान नहीं सकते, ऐसा विश्वास करने वाले)

(१७) Ignore= जान बुझकर अनजाना करना।

(१८)Ignorance= अग्यान।

नोट: अंग्रेज़ी डिक्षनरी में कुछ ही प्रयास करने पर मुझे ये शब्द मिले। इन से कम से कम पांच गुना शब्द होने का अनुमान करता हूँ।

आप देख सकते हैं, अपनी देववाणी संस्कृत की शब्द क्षमता, और उसका अतुल शब्द भण्डार कैसे रचा जा सकता है।

10 COMMENTS

  1. sir, आपकी मेहनत काबिल-ए-तारीफ़ है ….आपके articles पढने के बाद तो मैं आपका और आपकी सोच का fan हो गया हूँ

  2. मान्यवर,

    मैंने इस शृङ्खला के आपके चारों आलेख और अन्य भी आपके बहुत सारे आलेख ध्यानपूर्वक पढे हैं । संस्कृत के गूढ विषयों को आपने स्वयं आत्मसात् करके सरल बनाकर सामान्यजीवि के पढने योग्य बनाया है, जो अत्यन्त प्रशंसनीय है, और आपके द्वारा पाठकों और समाज के लिए किया गया महान् परोपकार ही है । यह करके आपने देववाणी संस्कृत के प्रति लोगों की श्रद्धा का वर्धन किया है ।

    संस्कृत का ज्ञान अध्यात्म ज्ञान के प्रति जाने वाला एक मुख्य द्वार है (यद्यपि आपके आलेखों से ये भी सूचना मिलती है कि संस्कृत के ज्ञान से भौतिक ज्ञान-विज्ञान का भी एक मुख्य द्वार उद्घाटित होता है) । और संस्कृत के ज्ञान की ओर जाने वाले मार्ग पर भी २ मुख्य द्वार हैं –

    १) संस्कृत क्यूँ ? – यह द्वार आपके आलेखों से सम्यक् उद्घाटित होता है ।

    २) संस्कृत कैसे (पढने का आरम्भ कैसे, कहाँ से किया जाए) ? – आपसे सनम्र निवेदन है कि अपने पाठकों को इस का मार्गदर्शन भी प्रदान करें । एक मार्ग “संस्कृत भारती” इति संस्था से होते हुए जाता है, जो एक सरल और सहज मार्ग है । अन्य भी मार्ग हो सकते हैं । आपको जो भी उचित लगे, उस मार्ग से सभी को कृपया अवगत कराएँ ।

    अपने अल्प परन्तु निष्ठापूर्ण संस्कृत अनुभव के आधार पर विश्वास से “ज्ञ्” के उच्चारण के विषय में कुछ कह सकता हूँ । “ज्ञ्” एक “संयुक्ताक्षर” या “compound alphabet” है, यह दो अक्षरों के मेल से बना है ।

    -> ज्ञ् = ज् + ञ्

    “ज्ञ्” में कोई स्वर नहीं है, क्यूँकि “ज्” और “ञ्” दोनों ही व्यञ्जन हैं । “ज्ञ्” में जब स्वर “अ” जुडता है, तब यह “ज्ञ” बन जाता है । कुछ उदाहरण –

    -> ज्ञ = ज् + ञ् + अ = ज् + ञ
    -> ज्ञा = ज् + ञ् + आ = ज् + ञा
    -> ज्ञे = ज् + ञ् + ए = ज् + ञे

    इत्यादि । कुछ और संयुक्ताक्षरों के उदाहरण –

    -> क्ष् = क् + ष्
    -> द्य् = द् + य्
    -> द्म = द् + म्
    -> ह्न् = ह् + न्
    -> ह्ण् = ह् + ण्
    -> त्त् = त् + त्
    -> त्र = त् + र् + अ

    इत्यादि ।

  3. अवनीश, डॉ शशि, अग्रवाल जी, और बहन रेखा–सभी को धन्यवाद|
    समस्या हमारी आप जानकारों के कारण नहीं है|
    ===> हमारी समस्या जो पढ़े लिखें हैं, फिर भी अपनी भाषा को हीन मानते हैं, उनके कारण है|
    धृष्टता सहित निम्न विधान करता हूँ|

    ===>जिस नेतृत्व ने संस्कृत को सही मात्रामें जाना नहीं था, उसने भाषा का निर्णय गुणावगुण पर नहीं, पर राजनीति का लाभालाभ देख कर किया| और ऐसे नेतृत्व ने हमें विश्व की ओलिम्पिक दौड़ के लिए अंग्रेजी की बैसाखी थमा दी|
    ऐसा कर उसने जो माँ भारती का घोर अपराध किया है, उसकी पूर्ति कौन सा उसका वंशवादी करेगा?
    ==क्या, कोई बैसाखी पर चढ़कर, ओलिम्पिक दौड़ जित सकता है?
    यदि हाँ तो भारत भी अंग्रेज़ी के सहारे विश्वमें आगे निकल सकता है|
    कडा प्रयास कर के युवा बेचारा कुछ कुछ आगे बढ़ता है| पर वह भी ब्रेनवाश हो जाता है| यही हमारी समस्या है|

    अंग्रेजी माध्यम में मैं ने २५ से भी अधिक वर्ष पढ़ाया है| १०-१२ वर्ष केवल बैसाखी पर चढ़कर दौड़ना सिखते बीता| और विनय से कहता हूँ, मैं स्वर्ण पदक विजेता था|
    जब मैं ने गहराई से सोचा तो जाना कि हमारी समस्याओं की जड़ अंग्रेजी है|
    अंग्रेजी ना होती, तो हमारा कृषक अफसरों से जनभाषा में प्रश्नोत्तर करता| उनके अंग्रेजी में लिखे नियम पुस्तिका के गोल गोल अनुवाद को चुनौती देता|
    पर बेचारा अंग्रेजी के कारण उनकी भ्रष्टता से पीड़ित होता है|
    अंग्रेज़ी ही हमारे पिछड़े रहने का भी कारण है| जब तक अंग्रजी रहेगी,भारत पिछड़ा रहेगा| भ्रष्टाचार का बड़ा कारण भी अंग्रेज़ी ही है|
    कुछ लोग संसार क़ी सारी (कुल १०-१२) प्रगत भाषाए पढ़े, पर सारी रेलगाड़ी अंग्रेजी के, परबत पर क्यों ले जाते हो?

  4. लेख को पढ़ती ही चली गयी |साहित्य है न अनंत तो होना ही था |इन सारे शब्द वृक्ष लेखो को पढकर लगता है की कितना कुछ है जानने को और हमे अभी तक पता नहीं था |बहुत कुछ समझने और जानने को मिला |आपके लेखो के माध्यम से संस्कृत हिंदी अन्य भारतीय भाषाए एवं अंग्रेजी का स्तर पता लगता है | भारत की विविधता भाषा ,वेश भूषा , खान पान ,रहन सहन ,बहुत ही सम्रध है ,बेजोड़ है |
    जानकारी पूर्ण लेख के लिए ह्रदय से धन्यबाद |

  5. अवनीश, धन्यवाद।
    (१) हमारा आत्मविश्वास बढे,
    (२) आत्म गौरव बढे
    (३) जानकारी हो, कि हिन्दी बहुत सक्षम है
    (४) लगे कि, इसीसे भारत की सर्वांगीण सर्वस्पर्शी उन्नति संभव है।….
    (५) वह भी अब्जों रुपयों का बजट बचाकर……..इत्यादि,
    मेरी दृष्टि में यह सारा संभव था, आज भी है।
    यह मैं तर्क के आधार पर ही प्रमाणित करना चहता हूँ।
    धन्यवाद एवं आशीष।

    • जी, बिलकुल संभव है|
      इस अभियान में हमें भी अपना मानस पुत्र समझिये और भविष्य के ध्वजवाहक भी|

  6. आप केछोटे से लेख से मन संतुष्ट नहीं हुआ कृपया इसका विस्तार करे यह तो बहुत ज्ञान वर्धक है !

    • आर पी अग्रवाल जी, धन्यवाद।आपने मेरे मन की ही बात कही है।
      (१) मैं आपके सुझाव पर सोच रहा हूँ, कि कैसे विस्तार किया जाए? विस्तार असंभव निश्चित नहीं पर अधिक समय, अध्ययन, और परिश्रम माँगता है।
      (२)फिर विस्तार के दो पहलु हैं। एक: हमारे अपने शब्द रचना-शास्त्र पर उदाहरणों सहित विवेचन {इसका भी प्रचंड विस्तार है}
      यह पाठकों को विश्वास दिला सकता है, कि हिन्दी में शब्द भंडार की कमी नहीं।
      (३) दूसरा: हमारे शब्द बीजों का परदेशी भाषाओं में अनुसन्धान। यह हमारी अस्मिता और गौरव जगाने में, योगदान देता है।
      आप कुछ अन्य लेख भी जो मैं लिख पाया हूँ,
      जैसे “अर्थवाही शब्द रचना”, “शब्द वृक्ष(कुल १, २, ३)”खिचडी भाषा अंग्रेज़ी”, (इत्यादि १५ लेख) जिन्हें, देखने का अनुरोध करता हूँ।
      बहुत बहुत धन्यवाद।
      जो संक्षिप्त आलेख में लिया जा सकता है, वह तो हिमशैल की शिखा मात्र है।

  7. “भारत में भी अपनी भाषाओं का स्वाभिमान लुप्त हो रहा है। लोगों को हिन्दी में गलती करने पर संकोच नहीं, पर अंग्रेज़ी में गलती करने पर हीनता का अनुभव होता है। यह हीन ग्रन्थिका लक्षण है|”
    जी, शत-प्रतिशत सहमत
    लोग अंग्रेजी बोल कर खुद को विशेष महसूस करते हैं, दूसरों पर रोब गाँठने की कोशिश करते हैं| अरे भाई, काहे की झूठी शान, काहे का इम्प्रेशन, काहे का रोब, तुम तो खुद अपनी नजर में इतने हीन हों चुके हो कि अपनी मातृभाषा में बात करने में शरमा रहे हो|

    आपने कहा- “कुछ शिक्षित(?) पश्चिम-प्रभावित पाठक भी, देवनागरी की उच्चारण क्षमता का यह गुण, समझ नहीं पाते और हिन्दी को देवनागरी त्याग कर रोमन लिपि अपनाने जैसा घाटे का परामर्ष देते रहते हैं। ”

    ये ही आज के सबसे बड़े अशिक्षित हैं| इनकी हालत ऐसी है जैसे किसी पगले को बंदूक चलाना सिखा दिया जाये तो वो उससे आत्मरक्षा करने के बजाय हत्या व आत्महत्या ही करेगा| अनपढों व अज्ञानियों को तो समझाया जा सकता है पर इन पढ़े-लिखे “तथाकथित” ज्ञानीजनों का क्या किया जाये?

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