पाकिस्तान में उभरता तीसरा राजनैतिक विकल्प?

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तनवीर जाफ़री

पड़ोसी देश पाकिस्तान भीतरी रूप से इतना खोखला हो चुका है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कट्टरपंथ, भ्रष्टाचार, स्वार्थपूर्ण राजनीति, अराजकता तथा सांप्रदायिकता ने पाकिस्तान को दिवालिएपन की कगार पर पहुंचा दिया है। परिणास्वरूप पाकिस्तान में सत्ता में रहने वाली दो पारंपरिक राजनैतिक पार्टियों पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी(पीपीपी)तथा पाकिस्तान मुस्लिम लीग(नवाज) पर से आम लोगों का विश्वास उठने लगा है। इन राजनैतिक दलों से जनता के मोह भंग होने के जहां उपरोक्त कई कारण हैं वहीं अमेरिका के प्रति इन दलों के ‘घुटनाटेक’ रवैये को लेकर भी पाकिस्तानी अवाम कांफी निराश दिखाई दे रही है। जाहिर है ऐसे राजनैतिक वातावरण में जनता को तलाश है किसी ऐसे तीसरे राजनैतिक विकल्प की जो पाकिस्तान की इस वर्तमान डूबती नैया को पार लगाने की कोश्शि कर सके। शायद इसी उम्‍मीद के साथ अब अवाम पूर्व पाक क्रिकेट स्टार इमरान खान की ओर देख रही है।

1990 में पाकिस्तान को क्रिकेट विश्वकप में पहली बार विजय दिलाने वाले इमरान खान उसी समय से पाकिस्तानी जनता के लिए एक आदर्श हीरो के रूप में स्थापित हो चुके हैं। उन्होंने क्रिकेट जीवन से सन्यास लेने के बाद से ही सामाजिक गतिविधियों में भाग लेना शुरु कर दिया था। लगभग एक दशक पूर्व इमरान ने तहरीक-ए-इसाफ नामक एक राजनैतिक दल का गठन भी इसी उ मीद से किया था कि शायद क्रिकेट के नाते स्थापित हुई उनकी लोकप्रियता उनके राजनैतिक संगठन को भी फायदा पहुंचा सकेगी। परंतु ऐसा नहीं हो सका और शुरुआती दौर में उनकी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी जहां भी चुनाव लड़ी उसे अधिकांश स्थानों पर हार का मुंह देखना पड़ा। पिछले चुनावों में भी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी की बुरी तरह पराजय हुई। परंतु अब हालात शायद कुछ बदलते हुए दिखाई दे रहे हैं। पाकिस्तान में अचानक आम लोगों का रुझान इमरान खान व उनकी पार्टी की ओर बढ़ने लगा है। तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी की ताजातरीन बढ़ती लोकप्रियता के कई कारण हैं। एक तो यह कि गत् 6 दशकों से चली आ रही पाकिस्तान की भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था ने आर्थिक तौर पर पाकिस्तान को इतना खोखला कर दिया है कि पिछले दिनों पाकिस्तान में आर्थिक संकट के चलते 106 प्रमुख रेलगाड़ियों के परिचालन को बंद करना पड़ा। कारण यह बताया गया कि इन रेलगाड़ियों को चलाने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं थे। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान में धन की कमी के चलते कई बिजलीघरों के बंद होने के भी समाचार हैं। आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान पर एक मुसीबत यह भी आ पड़ी है कि आप्रेशन एबटाबाद में अमेरिकी सेना द्वारा ओसामा बिन लाडेन के मारे जाने के बाद पाकिस्तान व अमेरिका के बीच संबंधों को लेकर आई दरार के परिणामस्वरूप तथा पाक-अफगान सीमा पर अमेरिका द्वारा कथित रूप से अपेक्षित कार्रवाई न किए जाने के कारण अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक सहायता से भी अपने हाथ खींच लिए हैं। और इन्हीं हालात के बीच पिछले दिनों प्रकृति ने पाकिस्तान को बाढ़ रूपी प्रलय से भी दो-चार कर दिया। नतीजतन जहां लाखों लोग बेघर हो गए वहीं अरबों रुपये की संपत्ति का भी नुंकसान हुआ। पहले से ही घोर आर्थिक संकट से जूझ रहा पाकिस्तानइस प्राकृतिक विपदा से निपटने में पूरी तरह असमर्थ व असहाय देखा गया।

उधर पाकिस्तानी राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की बन चुकी गैर भरोसेमंद छवि को लेकर भी पाक अवाम काफी दु:खी है। समय-समय पर पाकिस्तान में होने वाले सैन्य तख्‍तापलट ने वहां की परंपरागत राजनैतिक पार्टियों की विश्वसनीयता तथा उनकी योग्यता पर भी प्रश्चिन्ह लगा दिया है। ऐसे में पाक अवाम का तीसरे राजनैतिक विकल्प की तलाश करना स्वाभाविक माना जा सकता है। उधर पाक अवाम की तीसरे विकल्प की तलाश की इच्छापूर्ति करने की दिशा में इमरान खान द्वारा भी जनता के बीचकुछ ऐसे शगूफे छोड़े जा रहे हैं जिनपर इमरान खान अथवा उनकी पार्टी द्वारा अमल कर पाना संभव हो या न हो परंतु अवाम को पहली नजर में यह मुद्दे आकर्षित जरूर कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर तालिबान से लड़ रही नाटो सेनाओं में लगभग 103700 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। पाकिस्तान के अफगानिस्तान सीमांत क्षेत्र में अमेरिकी सेना द्वारा किए जाने वाले ड्रोन हमलों का पाक अवाम पुरजोर विरोध कर रही है। इस मुद्दे पर अपने लाख विरोध जताने के बावजूद पाक सरकार अथवा पाक सेना इस अमेरिकी कार्रवाई को रोक नहीं पा रही है। ड्रोन हमलों से प्रभावित क्षेत्र के लोगों का कहना है कि इन हमलों में बेगुनाह आम नागरिक मारे जा रहे हैं। इस क्षेत्र के लोग अब इस ड्रोन कार्रवाई के विरुध्द अंतर्राष्ट्रीय अदालत में भी जाने को तैयार हैं। इस प्रकरण में सत्ता में होने के नाते जाहिर है पाक सरकार व पाक सेना अपनी सीमाओं के भीतर ही रहकर अपना सीमित विरोध दर्ज कराती है जबकि इमरान खान इस विषय पर मुखरित होकर जनता की आवाज बनने की कोशिश कर रहे हैं।

इमरान की पाकिस्तान में बढ़ती लोकप्रियता का दूसरा कारण भारत-पाक के बीच पारंपरिक विवादित मुद्दा यानी मसल-ए-कश्मीर भी है। गत् 30 अक्तूबर को पाकिस्तान के लाहौर शहर के मध्य स्थित मीनार-ए- पाकिस्तान नामक ऐतिहासिक मैदान में इमरान खान ने एक ऐसी विशाल रैली को संबोधित किया जो तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी द्वारा आयोजित की गई अब तक की सबसे विशाल रैली मानी जा रही है। खबरों के अनुसार इस रैली में एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ इमरान खान को सुनने के लिए इकट्ठी हुई। इसी विशाल जनसभा में इमरान ने जहां अमेरिकी ड्रोन कार्रवाई के प्रति अपना खुला विरोध दर्ज कर जनता के दिलों को जीतने की कोशिश की वहीं भारतीय कश्मीर में मौजूद भारतीय सेना की मौजूदगी को भी उन्होंने गलत ठहराया। पाक अवाम का दिल जीतने के लिए इमरान खान इस जनसभा में जमात-उद-दावा के प्रमुख तथा भारत के 2611 के मुंबई हमलों के मोस्ट वांटेड अपराधियों में सर्वप्रमुख हाफिज मोहम्‍मद सईद की पाक अवाम को बरगलाने वाली भाषा बोलने से भी नहींचूके। इमरान ने अपने उत्तेजनात्मक भाषण में कहा कि ‘मैं भारत को यह बता देना चाहता हूं कि कश्मीर घाटी के लोगों के बीच 7 लाख फ़ौजी तैनात कर हिंदुस्तान को कुछ हासिल नहीं होगा। उन्होंने कहा कि इतिहास गवाह है कि कोई भी सेना किसी भी देश की समस्या का समाधान नहीं कर सकती। उन्होंने यह प्रश्न किया कि क्या अमेरिका अफगानिस्तान में कामयाब हो गया? क्या भारतीय सेना अमेरिकी सेना से भी ताकतवर है? और जब अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में कामयाब नहीं हो सकती तो फिर भारत की सेना घाटी में कैसे कामयाब हो सकती है? इमरान ने यह सवाल भी किया कि क्या कश्मीर में भारत 7 लाख फौजियों के दम पर कामयाब हो सकता है? इमरान ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी कश्मीरी लोगों के साथ है और हमेशा उनकी आवाज उठाती रहेगी’। उन्होंने भारत सरकार को सलाह देते हुए कहा कि भारत सरकार को कश्मीर से भारतीय फौज को हटा लेना चाहिए। इमरान खान की पाक अवाम को उत्तेजना दिलाने वाली यह भाषा यह समझ पाने के लिए कांफी है कि पाक अवाम की तीसरे राजनैतिक विकल्प की तलाश के चलते भले ही उनका राजनैतिक जनाधार पाकिस्तान में माबूत क्यों न हो रहा हो परंतु इस दिशा में इमरान खान द्वारा किए जा रहे प्रयासों को देखकर यही नजर आ रहा है कि वे पाकिस्तान में कट्टरवादी तथा भारत विरोधी मानसिकता को हवा देकर ही अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि इमरान खान भी शेर की सवारी करने की तैयारी में हैं और वह भी पाकिस्तान की सत्ता का सफर तय करने की खातिर।

हालांकि पाकिस्तान में आम चुनाव 2013 में होने की संभावना है। परंतु इन दो वर्षों के बीच इमरान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी को देश के एक मु य विकल्प के रूप में स्थापित करने की पूरी कोशिश करेंगे। लाहौर के जिस मीनार-ए-पाकिस्तान नामक मैदान में पहली बार इमरान खान को इतना बड़ा जनसमर्थन मिलता दिखाई दिया उस मैदान का भी अपना एक असाधारण ऐतिहासिक महत्व है। यह वही मैदान है जहां 1940 में मुस्लिम लीग की एक ऐसी ही विशाल जनसभा में अलग पाकिस्तान देश के निर्माण का प्रस्ताव पारित हुआ था। बताया जा रहा है कि इस मैदान में उसके बाद अब दूसरी बार इमरान खान की इस रैली में इतनी बड़ी सं या में मध्यम उच्च व उच्च वर्ग भी शामिल हुआ जो आमतौर पर राजनैतिक कार्यक्रमों तथा भीड़भाड़ वाले कार्यक्रमों में शिरकत नहीं करता, न ही मतदान के लिए जाने की जरूरत महसूस करता है। रैली में इस वर्ग की अच्छी-खासी मौजूदगी भी पाकिस्तान के राजनैतिक विशेषकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही है।

निश्चित रूप से लाहौर में आयोजित तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी की इस सफलतम रैली का आयोजन जहां इमरान खान के हौसलों को ओर बुलंद करेगा वहीं पाकिस्तान मीडिया द्वारा विशेषकर पाकिस्तानी अखबारों द्वारा इस रैली की सफलता के तमाम पहलुओं को उजागर करना भी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के लिए काफी फायदेमंद साबित हो सकता है। अब इस बात की पूरी संभावना है कि इमरान खान शायद अब पीछे मुड़कर देखने के बजाए अपने दल को और अधिक माबूत करने तथा इसका जनाधार और व्यापक करने में अपना पूरा समय लगाएं। इन सभी सकारात्मक बातों के साथ-साथ इमरान खान की पार्टी को इस बात की कमी भी महसूस हो रही है कि तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी में इमरान खान के अतिरिक्त कोई दूसरा कद्दावर राजनैतिक चेहरा नजर नहीं आ रहा है। सवाल यह है कि ऐसे में भविष्य में यदि पीपीपी या मुस्लिम लीग(नवाज) की पार्टियों से अथवा अन्य दलों से कुछ जाने-पहचाने राजनैतिक चेहरे दलबदल कर तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी में शामिल होते भी हैं तो इंसाफ पार्टी को इससे लाभ होगा या नुकसान? दूसरी बात यह कि पाकिस्तानी व्यवस्था से दु:खी जो अवाम इमरान खान के भाषण को सुनने के लिए इतनी बड़ी तादाद में इकट्ठा होती दिखाई दे रही है वह भीड़ केवल एक क्रिकेट स्टार के दर्शन के लिए जुट रही है या फिर वास्तव में वर्तमान व्यवस्था से आजिज होकर उनके साथ खड़ी हो रही है इसका सही अंदाजा तो उसी वक्त लग सकेगा जब 2013 के आम चुनावों में यह भीड़ तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के पक्ष में मतदान करने वाले मतदाता के रूप में भी परिवर्तित हो। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से पाकिस्तानी जनता देश में एक तीसरे राजनैतिक विकल्प को प्राप्त करती हुई देखी जा सकेगी।

3 COMMENTS

  1. तनवीर साहब, इमरान भले ही भीड़ जुटाऊ हो लेकिन वोट जुटाऊ नहीं हैं. उनका खुद का जीवन इस्लाम विरोधी हरकतों से भरा है. और पाकिस्तान में वही होगा जो मुल्ला आई एस आई और आर्मी चाहेगी. वहां लोकतंत्र इतना परिपक्व भी नहीं है कि कौम-कुनबे और कबीले से बाहर सोचे!! जब वक्त था तब इमरान जेमिमा खान से आशिकी लड़ा रहे थे. अब इमरान का वक्त चला गया.

  2. लेखक के लेख की हवा निकालती हुयी इक़बाल जी की शानदार टिप्पणी

    सपने देखने प़र अभी भी किसी देश ने टैक्स नहीं लगाया है फिर सपने देखने और दिखने में क्या बुराई है पाकिस्तान में तो सपने देखने दिखने का रिवाज उसकी पैदायिस के समय से है पाकिस्तान के जन्मदाताओ ने सपने देखने दिखने का जो शिलशिला शुरू किया था माशा अल्ला आज तक कायम है ईश्वर से यही प्रार्थना है की कभी पाकिस्तानियों को सपनो से मरहूम मत करना .

    पर हकीकत तो हकीकत होती है हकीकत यह है की सपनो से दुनिया नहीं चलती .

    पर पाकिस्तानियों ने तो हकीकत को ही झुठला दिया धन्य है वहा के लोग जिन्होंने पिछले ६५ साल केवल और केवल सपनो के सहारे गुजार दिए .

    कुछ तो सबक लो भारत वासियों ऐसे देश से जहा सपने देखने दिखने से ही जिन्दगी गुजार जाती है

    और यहाँ भारत में लोग रासन तेल दवाईया अनरेंगा मनरेगा आदि आदि ना जाने क्या क्या लेने के बाद भी कहते है जिन्दगी नहीं गुज़र रही अब आरक्षण भी दो तो शायद थोडा आराम से जिन्दगी गुज़र जाये .

    और यही आराम से जिन्दगी गुजरने के चक्कर में ना जाने क्या क्या घपले घोटाले ……तक करते है यहाँ के लोग .

    जरा शर्म करो

  3. लाहौर के मीनारे पाकिस्तान पर इमरान खान ने एक लाख से अधिक लोगों की जो कामयाब रैली पिछले दिनों की उसको लेेेेेेकर यह गलतफहमी पालना मेरे विचार से ठीक नहीं कि वे सब लोग चुनाव होने पर उनको वोट भी देेंगे। अगर एक मिनट के लिये इस अनुमान को मान भी लिया जाये कि वह चुनाव जीतकर आश्चर्यजनक तरीके से पाक मंे सरकार भी बना सकते हैं तो यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि वे सरकार चलायेंगे कैसे? सबको पता है कि इमरान खान एक क्रिकेटर रहे हैं। एक बेहतरीन खिलाड़ी बेहतरीन राजनेता भी साबित हो यह ज़रूरी नहीं। जिस तरह से हमारे देश में एक बेहतरीन अर्थविशेषज्ञ मनमोहन सिंह एक प्रधानमंत्री के तौर पर पूरी तरह नाकाम साबित हो रहे हैं उसी तरह इमरान के भाषण से यह साफ लग रहा है कि पाकिस्तान के भले के लिये उनके पास कोई सुनियोजित प्रोग्राम नहीं है। वह भी अभी से वही बातें दोहरा रहे हैं जो उनसे पहले घाघ पाक शासक सत्ता मंे आने और सरकार बनाये रखने को कहते रहे हैं। उनका काम यह लग रहा है कि घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने। उनको अमेरिका के सामने हर वक्त कटोरा लिये खड़ा पाक न दिखाई देकर हमारा कश्मीर दिखाई दे रहा है। वह हमें पाठ पढ़ा रहे है कि जब दुनिया की महाशक्ति अमेरिका अफगानिस्तान में सेना के बल पर कामयाब नहीं हो पाया तो हम फौज के बल पर कश्मीर को कब तक बचाये रखेंगे। इमरान भूल रहे हैं कि अमेरिका आज अगर अफगानिस्तान में नाकाम हुआ तो इसलिये कि उसने पाकिस्तान पर विश्वास किया जबकि अमेरिका के लिये अफगानिस्तान पराया और अजनबी मुल्क था जबकि कश्मीर हमारा है और उसके निवासियों का 99 फीसदी हिस्सा हमारे साथ है। जो एक फीसदी सरफिरे नौजवान या दूसरे अलगाववादी लोग गुमराह होकर कश्मीर को भारत से अलग करने का सपना देख रहे हैं उनको हम अपने तरीके से या तो समय आने पर समझा लेंगे या फिर लातों से भूत बातों से नहीं मानेंगे तो उनको राहे रास्त पर लाना भी हमको आता है। अधिकांश कश्मीरी लोग हमारे संविधान के हिसाब से बाकायदा चुनाव में हिस्सा लेते हैं। सरकार और स्थानीय निकायों का गठन कश्मीरी अपना वोट देकर अपनी खुशी और अपनी मर्जी से करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कश्मीर हमारी सरकार के बनाये लगभग सभी कानूनों को अपनाता रहा है। वहां की अदालतें हमारे कानून के हिसाब से ही चलती हैं। इमरान को चाहिये कि पहले पाक की चिंता करें कश्मीर की नहीं।
    इमरान खान को पता होना चाहिये कि जिस अमेरिका को आज वे कोस रहे हैं उसी की बदौलत आज पाकिस्तान ज़िंदा है। पाकिस्तान ने जो बबूल का पेड़ बोया था उसपर फल तो आने ही नहीं थे। कट्टरपंथ और आतंकवाद का नतीजा है कि आज पाक खुद उस मुसीबत का शिकार है जो उसने कभी भारत और अमेरिका के लिये पैदा की थी। वहां मस्जिदों नमाज़ पढ़ते लोग और स्कूल जाते मासूम बच्चे तक सुरक्षित नहीं हैं। सही बात तो यह है कि पाक जब तक भारत को हव्वा और कश्मीर को अपने बापदादा की जायदाद समझकर उससे दावा नहीं छोड़ेगा वह हमारा और कश्मीर का बिगाड़ तो कुछ खास नहीं पायेगा लेकिन अपने आप को एक दिन ज़ख़्मी करते करते ख़त्म कर लेगा। अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का शौक इमरान मियां भी पालना चाहें तो हम उनकी आत्महत्या पर अफसोस ही जता सकते हैं रोक तो नहीं सकते। जिस तरह से हमारे यहां सदी के महान अभिनेता अमिताभ बच्चन और चुनाव मंे तहलका मचाने वाले चुनाव आयुक्त टीएन शेषन राजनीति में आकर नाकाम रहे, उसी तरह से इमरान खान भी पाक मंे सरकार बनाकर कोई तीर नहीं मार सकते। सबसे पहले तो पाक और उसके बाशिंदो को एक बात साफ तौर पर समझनी होगी कि मुकाबला बराबर वालों का होता है। भारत एक पहाड़ है और जब तक वह हमें बिना वजह अपना दुश्मन मानकर हमसे टक्कर लेने का दुस्साह करता रहेगा उसे तबाह और बर्बाद होने से कोई नहीं बचा सकता। धर्म और साम्प्रदायिकता के आधार पर घृणा और ईष्या रखने वाला पाकिस्तान चाहे इमरान खान को सत्ता सौंपे या फौज का हमारा नहीं अपना ही शत्रु है। इमरान ख़ान के तेवर देखकर लगता है कि वह पाकिस्तान को कुएं से निकालकर खाई में ही ले जा सकते हैं।
    0 मुझे क्या ग़रज़ पड़ी है तुझे नीचा दिखाने को,
    तेरे आमाल काफी है तेरी हस्ती मिटाने को।।
    इक़बाल हिंदुस्तानी, संपादक, पब्लिक ऑब्ज़र्वर, नजीबाबाद।

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