नक्सलवाद से निर्णायक लड़ाई का समय

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समस्या के समाधान के लिए सही रणनीति जरूरी

संजय द्विवेदी

भारतीय राज्य के द्वारा पैदा किए गए भ्रम का सबसे ज्यादा फायदा नक्सली उठा रहे हैं। उनका खूनी खेल नित नए क्षेत्रों में विस्तार कर रहा है। निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे नक्सल संगठन हमारे राज्य को निरंतर चुनौती देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। उनका निशाना दिल्ली है। 2050 में भारतीय राजसत्ता पर कब्जे का उनका दुस्वप्न बहुत प्रकट हैं किंतु जाने क्यों हमारी सरकारें इस अधोषित युद्ध के समक्ष अत्यंत विनीत नजर आती हैं। एक बड़ी सोची- समझी साजिश के तहत नक्सलवाद को एक विचार के साथ जोड़ कर विचारधारा बताया जा रहा है। क्या आतंक का भी कोई ‘वाद’ हो सकता है? क्या रक्त बहाने की भी कोई विचारधारा हो सकती है? राक्षसी आतंक का दमन और उसका समूल नाश ही इसका उत्तर है। किंतु हमारी सरकारों में बैठे कुछ राजनेता, नौकरशाह, मीडिया कर्मी, बुद्धिजीवी और जनसंगठनों के लोग नक्सलवाद को लेकर समाज को भ्रमित करने में सफल हो रहे हैं। गोली का जवाब, गोली से देना गलत है-ऐसा कहना सरल है किंतु ऐसी स्थितियों में रहते हुए सहज जीवन जीना भी कठिन है। एक विचार ने जब आपके गणतंत्र के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है तो क्या आप उसे शांतिप्रवचन ही देते रहेंगें। आप उनसे संवाद की अपीलें करते रहेंगें और बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगें। जबकि सामने वाला पक्ष इस भ्रम का फायदा उठाकर निरंतर नई शक्ति अर्जित कर रहा है।

पिछले दिनों दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री के साथ छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मुख्यमंत्रियों की हुयी बैठक में नक्सलवाद की समस्या से जूझने के सवालों पर बातचीत बहुत उत्साह नहीं जगाती। क्योंकि नक्सलवाद एक ऐसी समस्या बन गया है जिससे निर्णायक लड़ाई लड़ने का साहस हमारी सरकारें नहीं दिखा पा रही हैं। छत्तीसगढ़ से रोजाना आ रही बुरी खबरों के बाद भी यह आंकलन कि पिछले साल की तुलना में इस साल नक्सली घटनाओं में कमी हुयी है, आश्चर्य जगाती है। केंद्रीय गृहमंत्री ने इस बैठक में कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों के समेकित प्रयासों से माओवादी हिंसा में इस साल, गत साल की अपेक्षा कमी आयी है। इस साल अब तक माओवादी हिंसा की 811 घटनाओं में सुरक्षा बलों के 80 कर्मियों सहित 270 लोग मारे गए हैं। पिछले वर्ष 14 जून तक माओवादी हिंसा की 1025 घटनाओं में सुरक्षा बलों के 177 कर्मियों सहित 473 की मौत हुयी थी। जाहिर तौर पर आंकड़े कुछ भी कर रहे हों किंतु यह साफ दिखता है। इस समय नक्सलियों ने उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ को अपना मुख्य निशाना बना रखा है। क्या यह संयोग नहीं है कि तीनों राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं। जिनमें दो का नेतृत्व भाजपा ही कर रही है। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह विदेशी विचारों द्वारा प्रेरित लोगों के द्वारा सत्ता को अस्थिर करने या उसके खिलाफ वातावरण बनाने का षडयंत्र तो नहीं है। हालांकि गृहमंत्री ने कहा कि वे दोनो राज्यों उडीसा और छत्तीसगढ़ के माओवादी हिंसा के लिए चल रहे अभियान में पूरी मदद देंगें और केंद्र उनकी मांगों को पूरा करेगा। छत्तीसगढ़ उड़ीसा सीमा पर बढ़ती नक्सल गतिविधियों के मद्देनजर बुलाई गयी इस बैठक के निष्कर्ष जो भी हों हमें सभी नक्सल प्रभावित को समवेत कर एक समन्वित अभियान चलाना ही होगा। इस ज्वाइंट आपरेशन के माध्यम से ही इस समस्या से लड़ा जा सकता है। पुलिस और सुरक्षाबलों का मनोबल बनाए रखने के लिए आला पुलिस अफसरों को भी मैदान में उतारने की जरूरत है जो अपने वातानुकूलित कमरों में आराम फरमा रहे हैं। उन्हें पुलिस मुख्यालय से निकाल कर बस्तर को अलग-अलग जोन में बांट कर उनका प्रभार देने और नियमित वाच की आवश्यक्ता है। वरना यूं ही साधारण जवान मौत के शिकार होते रहेंगें और हमारा राज्य बहादुरी से जंग जारी रखने के बयान देते रहेगा। माओवाद प्रभावित राज्यों की छत्तीसगढ़ से लगी 4000 वर्ग किलोमीटर की सीमा पर चौकसी बढ़ाने के साथ-साथ स्थानीय पुलिस बलों और केंद्रीय बलों में और बेहतर समन्वय की आवश्यक्ता है। साथ ही पुलिस बलों को यह भी प्रेरित करने की जरूरत है कि वे आम जनता के मित्र की तरह पेश आएं और जनता के बीच विश्वास बहाली का काम करें। क्योंकि जनसहयोग के बिना यह आपरेशन सफल नहीं हो सकता। पुलिस की छवि अगर अत्याचारी और बलात्कारी की होगी तो इससे नक्सलवाद को ही बढ़ावा मिलेगा।

आदिवासी समाज को निकट से जानने वाले जानते हैं कि यह दुनिया का सबसे निर्दोष समाज है। ऐसे समाज की पीड़ा को देखकर भी न जाने कैसे हम चुप रह जाते हैं। पर यह तय मानिए कि इस बेहद अहिंसक, प्रकृतिपूजक समाज के खिलाफ चल रहा नक्सलवादी अभियान एक मानवताविरोधी अभियान भी है। हमें किसी भी रूप में इस सवाल पर किंतु-परंतु जैसे शब्दों के माध्यम से बाजीगरी दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भारत की भूमि के वास्तविक पुत्र आदिवासी ही हैं, कोई विदेशी विचार उन्हें मिटाने में सफल नहीं हो सकता। उनके शांत जीवन में बंदूकों का खलल, बारूदों की गंध हटाने का यही सही समय है। बस्तर से आ रहे संदेश यह कह रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र यहां एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है, जहां हमारे आदिवासी बंधु उसका सबसे बड़ा शिकार हैं। उन्हें बचाना दरअसल दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों को बचाना है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारों और राजनीति की प्राथमिकता में आदिवासी कहीं आते हैं। क्योंकि आदिवासियों की अस्मिता के इस ज्वलंत प्रश्न पर आदिवासियों को छोड़कर सब लोग बात कर रहे हैं, इस कोलाहल में आदिवासियों के मौन को पढ़ने का साहस क्या हमारे पास है ?

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