भारत की सही पहचान – भाग २

विश्व मोहन तिवारी

राष्ट्र की अवधारणा भी वेदों – ऋग्वेद तथा अथर्ववेद – में है। देखें :

ऋग्वेद के निम्नोक्त मंत्र हमारी मातृभूमि तथा संस्कृति के गुणों और मह्त्व की प्रेरणा देते आए हैं और आज यह अधिक प्रासंगिक तथा उपयोगी‌ हैं ( यहां दिये अर्थ स्वामी दयानंद तथा डा. गंगा सहाय शर्मा के भाष्य पर आधारित हैं।) :

श्रेष्ठं यविष्ट भारताग्ने द्युमन्तमा भर । वसो पुरुस्पृहं रयिम्‌ ॥ ऋग्वेद २.७.१

(२.७; ६.१६ सूक्त के देवता अग्नि हैं, अर्थात इसमें अग्नि की स्तुति है; । स्वामी दयानंद अग्नि का अर्थ तेजस्वी विद्वान लेते हैं, और ’भारताग्ने’ का अर्थ ’सभी‌ विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी भारतीय’ लेते हैं।)

भारत वह देश है जहां के ऊर्जावान युवा सब विद्याओं में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान हैं, सब का भला करने वाले हैं, सुखी हैं और जिऩ्हें ऋषिगण उपदेश देते हैं कि वे कल्याणमयी, विवेकशील तथा सर्वप्रिय लक्ष्मी को धारण करें । ( और अंग्रेज हम पर आरोप लगते हैं कि हम परलोकवादी हैं !)(यहां लक्ष्मी का वैदिक अर्थ स्पष्ट करना उचित होगा – वैदिक दृष्टिकोण में ब्राह्मण के लिए लक्ष्मी ज्ञान है , क्षत्रिय के लिए बल है, वैश्य के लिए धन है और शूद्र के लिये सेवा है.)

त्वं नो असि भारता sग्ने वशाभिरुक्षाभि: । अष्ठापदीभिराहुत: ॥ ऋ २.७.५

भारत में सभी विषयों में‌ अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान गायों तथा बैलों के द्वारा खेती कर समृद्ध तथा सुखी‌ हैं ; और आठ सत्यासत्य निर्धारक नियमों द्वारा संचालित जीवन जीते हैं।

उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत्‌ । शोचा वि भाह्यहर ॥ ऋ ६.१६.४५

हे सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान ! आप निरंतर उऩ्हें ज्ञान देते हो जो ज्ञानवान हैं, अत: आप और अधिक ज्ञान प्राप्त कर उऩ्हें‌ ज्ञान दीजिये ।

तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्‌ पश्यात्‌ सूर्यमुच्चरन्तम्‌।

य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय नृतमाय नृणाम ॥ RV 4.25.4

( ४.२५ तथा ३.५३ सूक्तों के देवता इंद्र हैं, अर्थात उनकी स्तुति हो रही है।) इन्द्र का अर्थ स्वामी दयानंद नेता या मुखिया या परमात्मा लेते हैं। सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वानों को धारण करने वाला भारत सभी मनुष्यों को घर के समान सुख दे; और जो यह कहते हैं कि विद्यावान, उत्तम शीलवान मनुष्यों के मुखिया कुशल तथा ऐश्वर्यवान समाज का निर्माण करें, वे बहुत काल तक सूर्योदय देखें।

आग्निरगामि भारतो वृत्रहा पुरुचेतन: । दिवो दासस्य सत्पति: ॥ ऋ 6.16.19

( इस मंत्र में स्वामी दयानंद ने भारत का अर्थ प्रकाश देने वाला अधिक उपयुक्त समझा है।) हे अग्नि के समान तेजस्वी विद्वतजन, प्रकाश देने वाले, मेघ के द्वारा वर्षा कराने, भरण पोषण करने वाले और मानव की चेतना जगाने वाले, श्रेष्ठ स्वामी सूर्य की स्तुति करते हुए उनका हम सदुपयोग करें।

य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टव: । विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्‌ ॥ ऋ. ३.५३.१२

(इस सूक्त के ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता इंद्र हैं) विश्वामित्र कहते हैं,”हे मनुष्यो ! हम (इंद्र) की स्तुति करें‌ जो अंतरिक्ष तथा पृथ्वी दोनों के द्वारा भारत में जन्म लेने वालों की रक्षा करता है” (इस मंत्र में स्वामी दयानंद ’भारतं’ शब्द का अर्थ वाणी लेते हैं, किन्तु डा. गंगा सहाय शर्मा इसका सीधा अर्थ भारत अधिक सटीक समझते है।)

अमन्थिष्ठा भारता रेवदग्निं देवश्रवा देववात: सुदक्षम्‌ । अग्ने वि पश्य बृहताभि रायेषां नो नेता भवतादनु द्यून्‌ ॥ ऋ 3.23.2

(इस सूक्त के देवता अग्नि हैं। स्वामी दयानंद इस मंत्र में ’भारता’ का अर्थ धारण कर्ता तथा पालन कर्ता लेते हैं। और डा. गंगा सहाय शर्मा ’भारता’ का अर्थ भरत की संतान लेते हैं।) हे अग्नि ! धारण कर्ता और पालन कर्ता और विद्वानों के वचनों के श्रोता और श्रेष्ठ प्रेरणाकारक से प्रेरित पुरुष अनुकूल दिवस पर श्रेष्ठ कौशल के द्वारा धन उत्पन्न करने वाली अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करें जो हम लोगों के लिये सुमार्ग में अग्रणी होवे, (हे अग्नि)आप बहुल धन तथा अन्नादि की कृपादृष्टि रखें।

भारतीळे सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे । ताताश्रिये ॥ ऋ 1.188.8

हे भारत माता, हे धरती मां, हे सरस्वती मैं प्रार्थना करता हूं कि आप हमें लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये प्रेरणा दें। (अर्थात हमें भारत माता, धरती मां और विद्या का सम्मान करते हुए धन कमाना है।)

शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती । इळा सरस्वती मही बर्हि: सीदन्तु यज्ञिया: ॥ ऋ1.142.9

भारती (भारत माता अर्थात धारण पोषण करने वाली), इला धरती तथा वाक्‌देवी सरस्वती शुद्ध, अमर और देवों को समर्पित यज्ञ का संपादन करने वाले अग्नि देव विशाल यज्ञ को सफ़ल करें। (अर्थात – किसी‌ भी महान कार्य को करने के लिये यह तीनों देवियों तथा ऊर्जा के देव अग्नि आवश्यक होते हैं।)

त्वमग्ने अदितिर्देव दाशुषे त्वं होत्रा भारती वर्धसे गिरा। त्वमिळा शतहिमासि दक्षसे त्वं वृत्र हा वसुपते सरस्वती ॥ ऋ2.1.11

हे विद्या देने वाले विद्वान देव प्रकाशमान अग्ने ! आप दानशील शिष्य के विकास के लिए अन्तरिक्ष को प्रकाशित करने वाली सूर्य की‌ माता अदिति के समान विद्या के गुणों को प्रकाशित करते हैं। यज्ञ संपादिका, विद्याशील भारती तथा ज्ञानवृद्ध इला आपके सम्मान को बढ़ाती हैं। हे धन के पालन हारे आप मेघहन्ता सूर्य के समान तथा ज्ञान विज्ञानयुक्त वाक्देवी के समान हैं।

आ भार॑ती॒ भार॑तीभिः स॒जोषा॒ इळा॑ दे॒वैर्म॑नु॒ष्ये॑भिर॒ग्निः ।

सर॑स्वती सारस्व॒तेभि॑र॒र्वाक्ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्तु ॥ ऋ ३.४.८, तथा ऋ ७.२.८

प्रबुद्ध तथा संस्कारित निस्वार्थ सेवा करने वाली‌ भारती (भारतमाता), दिव्य एवं विचारशील पुरुषों को निस्वार्थ संसाधन प्रदान करने वाली‌ इला (पृथ्वी) और अग्नि के समान तेजस्वी ज्ञान विज्ञानमय वाणी वाली सरस्वती, यह तीनों देवियां यहां के (भारत के) वायुमंडल में उपलब्ध हैं, सभी मनुष्य इनका आश्रय लें।

अस्मे तदिन्द्रावरुणा वसुष्यादस्मे रयिर्मरुत: सर्ववीर:।

अस्मानवरुत्री: शरणैन्त्वमस्मान्‌ होत्रा भारतीदक्षिणाभि: ॥ ऋ ३.६२.३

हे वज्रधारी इन्द्र और हे ब्रह्माण्ड के नियंता वरुण हमारे पास उचित धन हो, हे पवन देव मरुत हम सब वीर और कुशल हों जो लक्ष्मी प्राप्त कर सकें। वरुत्री: अर्थात हमारी रक्षक देवी, होत्रा अर्थात यज्ञ संपादिका, तथा भारती अर्थात संपूर्ण विद्याओं को पूर्ण करती वाणी की हम शरण लें जो दोनों हाथों से हमारी रक्षा करें। (अर्थात – बिना सैन्य शक्ति तथा नैतिकता, वीरता, कौशल, कार्य संपादन की क्षमता तथा श्रेष्ठ विद्या एवं संचार शक्ति के न तो हम लक्ष्मी प्राप्त कर सकते हैं और न अपनी रक्षा।)

भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही ।

इमं नो यज्ञमा गमन्‌ तिस्रो देवी: सुपेशस: ॥ ऋ 9.5.8

हमारे सोम यज्ञ में उत्तम गुणों वाली तीन देवियां – भारती, सरस्वती एवं महान इला – सम्मिलित हों। दृष्टव्य है कि इन तीन देवियों -भारत माता, ज्ञान और कार्य करने की जमीनी क्षमता की महिमा बार बार गाई जा रही है।

आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती।

तिस्रो देवीर्बहिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपस: सदन्तु ॥ ऋ 10.110.8

हमारे यज्ञ में सूर्य की सी कान्ति वाली भारती, और मनुष्य को ज्ञानी बनाने वाली इळा और उत्तम ज्ञानदा सरस्वती शीघ्र आवें । तीनों उत्तम कार्य करने वाली, प्रकाशऔर ज्ञान के देने वाली देवियां इस उत्तम आसन पर सुखपूर्वक विराजें ।

आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रा यविष्ठ भारतीम्‌।

वरुत्रीं धिषणां वह ॥ ऋ 1.22.10

हे कार्यकुशल विद्वान अग्ने ! हमारी रक्षा करने के लिये कुल रक्षक देवियों को यहां ले आओ; हमें ऐसी वाणी (भारती) दो जिससे हम देवों को बुला सकें एवं निष्ठापूर्वक सत्य भाषण कर सकें।

इस तरह हम देखते हैं कि ऋग्वेद में भारत या भारती या भारतवासी के अनेक अर्थ हैं। जैसे, सब का पोषण करने वाला; अग्नि के समान तेजस्वी तथा भला करने वाला; विद्यावान; उत्तम शीलवान; वाणी के महत्व को समझने वाला; सुख प्रदान करने वाला; चरित्रवान; ज्ञान प्रदान करने वाला; योग्य मुखिया को चुनने वाला; मानवीय चेतना से प्रेरित, भारत माता, धरती मां और विद्या का सम्मान सहित उपयोग करने वाला; शक्ति और कौशल के द्वारा धन पैदा करने वाला; अपनी रक्षा के लिये चौकस; ऊर्जा का सही उपयोग करने वाला; गुणवानों का सम्मान करने वाला; भारती, इला, सरस्वती तथा अग्नि की सहायता से कार्यों को यज्ञ की‌ भावना से करने वाला इत्यादि। क्या आज हममें ऐसे गुण हैं ? यह विचारणीय है और अनुकरणीय है। तभी‌ भारत भारत होगा, अन्यथा इंडिया तो बन ही रहा है।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

1 COMMENT

  1. आदरणीय –विश्वमोहन जी
    एक अतीव आवश्यक विषय पर आपने प्रकाश डाला.
    और सीधे वेदों से सामग्री परोस दी.
    इतना तर्कातीत प्रमाण हमारे पास है.
    भारत को १९४७ से ही राष्ट्र मानने वालोंके लिए पुनर्विचार करने का अवसर आपके इस लेख द्वारा प्राप्त होगा.
    बहुत बहुत धन्यवाद.
    व्यस्तता के कारण, विलम्ब हुआ.
    एक संग्रहणीय आलेख.

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