प्रतिशोध की भावना सत्य से अलग करा देती है

संत श्री देवराहाशिवनाथदास

भगवान के द्वारा प्राप्त हुई प्रसाद का सदुपयोग न करने से जीव महापाप का भागी होता है। मनुष्य को प्रसाद रूप मे जो बुद्धि मिली है, वही तो भगवत् प्रसाद है। जिसको बुद्धि नहीं मिली है, वही तो भगवत् प्रसाद है। जिसको बुद्धि नहीं मिली है उसको भगवत कृपा से दूर समझें। बुद्धिहीन मनुष्य जानवर की अपेक्षा बहुत नीचे की श्रेणी में होता है। जानवर से पाप नहीं होता और उस बुद्धिहीन से भी पाप नहीं होता। इसलिए कि पाप कर्म करने से उसको दोष ही लगता। हिंसक पशु अपने उदर क्षुधा को तुप्त करने क लिए हिंसा न करें तो वह जीवित नहीं रह सकता। ठीक इसी प्रकार अहिंसक पशु हिंसा नहीं करता वरन् घास-पात खाकर अपनी क्षुधा को तुप्त कर लेता है। ये तो हुई पशुओं की बात। परन्तु जिसको मनुष्य कहते है, वो शाकाहारी और मांसाहारी दोनों होते है। इसलिए इनकी दर्जा हिंसक और अहिंसक दोनों से नीचे की कोटि में है। चुँकि इनको भगवान की ओर से बुद्धि मिली है। लेकिन उस बुद्धि के द्वारा वे काम नहीं लेते है। कुछ लोग बुद्धि के द्वारा काम लेते है और वो अहिंसा परमों धर्म: का पालन करते है। चुँकि जीव को न मारना ही इनका ध्येय और सिध्दांत है। लेकिन इतने से अहिंसा व्रत पूर्ण नहीं हो जाता। अहिंसा व्रत में मनसा, वाचा, कर्मणा, ये तीनो आता है। जैसे – वाणी से किसी का उत्पीड़न न करना। अर्थात् कष्ट न देना, झूठ न बोलना या निंदा न करना इसको वाणी का संयम कहा जाता है। ये अहिंसा व्रत का दूसरा स्टेज है। अब रह गया मनसा-मुन के अंदर किसी का विनाश करने की भावना या किसी को कष्ट पहुँचाकर अपने सुख को भोगने की इच्छा आदि की भावना का उत्पन्न न होना मनसा अहिंसा व्रत का पालन है। जब ये तीनों मार्ग प्रशस्त हो जाता है, अहिंसा धर्म का पूर्णत: पालन हो जाने के बाद मन के अंदर त्यागवृति और सेवा कर्म की भावना जागृत हो जाती है। ऐसे पुरूष के द्वारा किसी के प्रति की गयी सेवा नि:स्वार्थ होती है। लेकिन सेवा के साथ बुद्धि का सदुपयोग निहायत जरूरी हो जाता है। इसलिए भगवान ऐसे सेवक को परिलक्षिता बुद्धि देकर सेवा कर्म कराने में सहयोग प्रदान करते है। जैसे-तुम राह चलते किसी गिरे हुए को उठाकर उसके घर तक पहुँचाने का कष्ट सहते हो। यह कार्य असमर्थता के क्षेत्र में समर्थता का विजय है। और भगवान के दिये हुये बुद्धि का सुदुपयोग है। लेकिन यदि कोई शराब पीकर गिरा हुआ है। उसको उठाकर उसके घर तक पहुँचाने का प्रयास करते हो तो तुम्हारी समर्थता की विजय नहीं वरन् भगवद्बुद्धि का दुरूपयोग है। भगवत् बुद्धि तय करती हैं कि तुम्हे कहाँ पर किस जगह, किस स्थिति में सेवा और सत्कर्म करना चाहिए। डकैती करते लुटेरा गोली खाकर गिर पड़ा है तो वहाँ पर तुम्हारी सत्कर्म और सेवा गौण पड़ जायेगी। इसलिए कि सद्बुद्धि का सदुपयोग हुआ है। इसलिए हर क्षेत्र में सेवक बनना हर क्षेत्र में दान करना, हर क्षेत्र में स्वागत करना यह बुद्धि नहीं बताती, बल्कि दुर्बुद्धि बताती है। यदि अत्याचारी को दान करते हो, तो उसका अत्याचार बढ़ जायेगा। यदि अत्याचारी को मरने से बचाते हो, तो पुण्य के बदले पाप का भागी बनोगे। इसलिए भगवान के भजन तथा लील-चरित्र का श्रवण करना अति आवश्यक है। इसलिए अहिंस व्रत के पालन के साथ-साथ बुद्धि में सद्विचार लान के लिए गुरू के शरण में जाना अतिआवश्यक हे। बगैर गुरू के शरण में गये आत्मा-परमात्मा का अंश छोड़कर जीव की संज्ञा में आ जाता है। इसलिए भगवान ये नहीं करते है कि

॥सन्मुख होंहि आत्मा मोह॥

भगवान तो ये कहते हैं कि

॥ सन्मुख होहि जीव मोह जबहि।

जनम काहि अध नासहुँ तोहि तबकि॥

भगवान जहाँ जीव को उपदेश देते है, वहीं पर गुरू है। गुरू के सामने क्या ? अगर पीछे से भी जीव नजदीक हो जाय तो वे उस जीव का उध्दार कर देते है। भगवान श्रीराम के कुलगुरू ब्रह्मर्षि की संज्ञा नहीं मिली। मै भी तो श्रीराम का गुरू हूँ फिर भी वशिष्ठ को सभी लोग ब्रह्मर्षि की संज्ञा से सुशोभित कर दिये। जबकि वशिष्ठ मेरी तपस्या की तुलना में आधा भी नहीं है। ये सोचते-सोचते विश्वामित्र के अंदर क्रोध की ज्वाला उत्पन्न हो गयी और वे सोंचे कि आज रात्रि पहर में ही वशिष्ठ को सोने के समय अपनी तलवार की धर से मृत्यु की घाट पहुँचा दूँगा। मुझे वशिष्ठ की पद प्राप्त हो जायेगी। ये कैसी पद-प्रतिष्ठा की भावना है, जो तपस्वी के अंदर हिंसक प्रवृतियों को जागृत कर देती है। विश्वमित्र अर्ध्द रात्रि को एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कमण्डल लिये वशिष्ठ की कुटिया के पीछे जा छिपे। उस समय ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरूंधती के साथ शयन कर रहे थे। फिर भी वे अपनी योगशक्ति से कि विश्वामित्र मेरा वध करने के लिए मेरे कुटिया के पीछे जा छिपा है। फिर भी कोई शोर-शराबा न किये। केवल एक बात अरूंधती से बोले कि अरूंधती आज की चाँदनी राज महर्षि विश्वामित्र के कानो का ही भेदन न किया बल्कि उनके हृदय को भी मर्माहत कर दिया। विश्वामित्र का भाव उसी वक्त बदल गया और वे चित्कार करने लगे। अहा! जिस ब्रह्मर्षि का वध करने हेतु में उद्यत था, वो ब्रहर्षि की तुलना में लेश मात्र भी नहीं हूँ ये कहकर विश्वामित्र उनकी कुटिया के दरवाजे के समक्ष जाकर धड़ाम से गिर पड़े और उनके मुँह से यही आवाज आ रही थी कि हे परममुख! मुझे क्षमा करें और मुझमें अपने जैसी विचारधारा को प्रवाहित कर दें। फिर भी वशिष्ठ ये कहना न छोड़े कि – हे मुनिश्रेष्ठ! आप सचमुच चाँदनी रात चन्द्रमा की भाँति विख्यात है। यहीं तो सच्चे गुरू में प्रतिशोध की भावना नहीं रहती। उसके अंदर हित-शत्रु का भाव नहीं रहती। वह सबमें परमपिता परमेश्वर को ही देखता है। और वह सबका प्रशंसक ही होता है। निंदक नहीं। आज तो संसार में निंदा करने पर ही मंत्री करने पर ही मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसी से आप सब समझें कि – कलयुग में सत्य किस कोने में बड़ी हैं कि महात्मा की भी निंदा हो रही है। और भगवान की भी निन्दा की जा रही है। प्रतिशोध् की भावना लहरा रही है। कहाँ जाएँ-जहाँ पर प्रतिशोध का वेग दूर करने वाला वैद्य मिल सके।(दिव्य प्रसाद)

3 COMMENTS

  1. संत श्री देवराहा शिवनाथ दास आध्यात्मिक, पारमार्थिक या पारलौकिक बात कर रहे हैं, जो वयक्तिक मुक्ति से संबधित है| और शंकर शरण जी व्यावहारिक इहलौकिक बात कर रहें है, जो इस लोक में अस्तित्व से संबधित है| दोनों मेरी दृष्टी में अपनी जगह सही है|

  2. शंकर शरण जी के लेख में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि, शस्त्र पूजा प्रतिशोध कि भावना से प्रेरित होती है, अथवा प्रतिशोध को प्रेरित करती है.

  3. एक तरफ संत श्री देवराहाशिवनाथदास का यह लेख है,दूसरी तरफ डाक्टर शंकर शरण का शक्ति पूजा का विस्मरण है.क्या ये दोनों लेख किसी भी साधारण आदमी को असमंजस की स्थिति में नहीं खड़ा कर दे रहे हैं?

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