माओवादियों का सच

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विश्वरंजन

माओवादी दस्तावेजों में यह बात साफ है कि उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस देश की न्याय व्यवस्था में कोई आस्था नहीं है और मूलत: वे उसे हिंसा तथा अन्य तरीकों से ध्वस्त करेंगे। जब मैं एक गिरफ्तार सी.पी.आई. (माओवादी) केसेन्ट्रल कमेटी के सदस्य से पटना में बात कर रहा था, तब उसने साफ कहा था किउसे न तो इस व्यवस्था पर या इस व्यवस्था के नैतिक आधारों पर, न इस व्यवस्था में संचालित विधि व्यवस्था पर विश्वास है और माओवादी संगठन नसिर्फ युद्ध के जरिये, अपितु अन्दर से भी घुसपैठ कर इस व्यवस्था को तोड़नेकी लगातार कोशिश करेगा। वह गणतांत्रिक व्यवस्था में पनप रही हर कमजोरी काफायदा उठाएगा। बाद में इस सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य को न्यायालय से जमानतमिल गई और वह न सिर्फ भूमिगत हो गया, बल्कि जहानाबाद जेल-ब्रेक को अंजाम देने में भी प्रमुख भूमिका निभाई।

लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा न्याय व्यवस्था की सीमा यह है कि वहलोकतांत्रिक न्यायिक अवधारणाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि यदि वह ऎसा करती है, तो उसमें तथा एक माओवादी संगठन में कोई फर्क ही नहीं रह जाएगाऔर गणतंत्र के प्राणस्रोत सूख जाएंगे, परन्तु नक्सली इसे हमारी कमजोरीमानता है और इसका इस्तेमाल लोकतांत्रिक व्यवस्था को तोड़ने में सफलता सेकरता है। वह कानून का इस्तेमाल पुलिस को तमाम न्यायिक प्रकरणों में फंसाने के लिए भी करता है। यदि किसी जिले के पुलिस अधीक्षक को रोज-रोज हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े, तो जाहिर है, वह जिले में नक्सल विरोधी अभियान में कम समय दे पाएगा।

नक्सली-माओवादी की एक खासियत यह है कि वे अपने सिद्धांत, दांव-पेंच, रणनीति, सभी कुछ अपने गोपनीय दस्तावेजों में विस्तार से अंकित कर देते हैं। दरअसल माओवादी अपने को घोर बौद्धिक मानते आए हैं और शायद सोचते है कि हरबात दस्तावेजों के सुपुर्द करना बौद्धिकता की निशानी है। पर ऎसा करते हुएवे अपने असल मनसूबों को भी उजाकर कर देते हैं। यह दूसरी बात है कि उनके दस्तावेज चूंकि गोपनीय रहते हैं और सिर्फ उनके नेता एवं कैडर के पास तथाउनके शहरी सहयोगियों के पास होते हैं, आम जनता तक वे पहुंच नहीं पाते। पुलिस के पास बहुत बार ये दस्तावेज नक्सली शिविरों पर पुलिस कार्यवाही या मुखबिरों के जरिये पहुंच जाते हैं।

इन दस्तावेजों के जरिये सी.पी.आई. (माओवादी) का उद्देश्य बहुत साफ-साफसमझा जा सकता है। उनके दस्तावेज कहते हैं कि सशस्त्र जनयुद्ध के माध्यम सेराजसत्ता की प्राप्ति ही उनका प्रमुख उद्देश्य है। एक अन्य जगह अपने दस्तावेजों में माओवादियों ने कहा है कि सशस्त्र बल द्वारा सत्ता प्राप्ति एवं युद्ध द्वारा मुद्दों का निपटारा ही नक्सलवादी क्रांति का प्रमुख कार्य एवं लक्ष्य है। यह बात साफ जाहिर हो जानी चाहिए कि गरीबों की भलाईसी.पी.आई. (माओवादी) संगठन का उद्देश्य नहीं है, सत्ता प्राप्ति है।

इस उद्देश्य में एक ओर उनके गुरिल्ला दस्ते, मिलिट्री प्लाटून औरकंपनियां, जो माओवादी पीपुल्स गुरिल्ला आर्मी या पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के अंग होते हैं, सक्रिय भूमिका निभाती हैं, वहीं दूसरी ओर, माओवादियों के शहरी संगठन नक्सली शहरी संगठनों का मुख्य काम है सभ्य समाज, मानवाधिकार संगठनों में घुसपैठ करना तथा जनता में ऊहापोह की स्थिति निर्मित करना। आक्रामक नेटवर्किग के जरिये मीडिया, बुद्धिजीवी, न्यायिक तथा प्रशासनिकसंगठनों में भी घुसपैठ करना या ऊहापोह की स्थितियां निर्मित करना इनके प्रमुख उद्देश्य हैं।

माओवादी दस्तावेज के अनुसार, उनके शहरी सहयोगी अंशकालिक क्रांतिकारी हैं। माओवादी संगठन के लिए पेशेवर या गुरिल्ला तथा अंशकालिक क्रांतिकारियों का मजबूत होना अतिआवश्यक है, क्योंकि पेशेवर क्रांतिकारी पार्टी की आत्मा होते हैं और अंशकालिक क्रांतिकारी पार्टी के आधार। माओवादी दस्तावेजों के अनुसार, दोनों का गोपनीय रहना आवश्यक है, ताकि संगठन की गैरकानूनी गतिविधियां आसानी से चलाई जा सके। माओवादी दस्तावेजों में बहुत जगहों परविस्तार से विभिन्न क्षेत्रों तथा संगठनों में घुसपैठ के महत्व को समझाया है और बताया गया है कि कैसे इनका इस्तेमाल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दीर्घकालीन जनयुद्ध को शक्ति प्रदान करता है।

आम लोग बहुत जांच-पड़ताल या सोच-विचार नहीं करते हैं, सीधे-सरल होतेहैं। चीजों को, समस्याऔं को सरलीकरण करके देखने के आदी होते हैं। हम सोचते हैं – अरे! एक समाजसेवी नक्सली कैसे हो सकता है। अरे! एक डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक नक्सली या उनका निकट सहयोगी कैसे हो सकता है! हम कुछ इस तरह से भी सोचते हैं – अरे, जब मैं उस व्यक्ति से बात कर रहा था, तब तो वह बहुत सज्जन व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा था, वह नक्सली कैसे हो सकता है! हम भूल जाते हैं कि कई लोग बहुत जटिल भी होते हैं। मात्र ऊपरी तौर पर देखकर कईलोगों को आसानी से नहीं समझा जा सकता। माओ कवि थे। उन्हें तो बहुतसंवेदनशील होना चाहिए था, परन्तु हिंसा और क्रूरता में वे हिटलर के ही समान थे।

वैसे हिटलर भी अच्छी चित्रकारी करता था और उसे भी संवेदनशील होना चाहिए था, परन्तु हिटलर ने कैसे अमानवीय जुल्म ढाए, यह सर्वविदित है। अपनी जन-अदालतों में नक्सलियों ने किस तरह की अमानवीय क्रूरता का परिचय दिया है, यह बस्तर में लोगों को मालूम है।

यदि नक्सली शहरी नेटवर्क के प्रतिनिघियोंके झूठ और अर्धसत्यों के कारण भारत की जनता बस्तर में ढाए जा रहे नक्सलीजुल्म से अनभिज्ञ है, तो दुख की बात है। तथ्यों की अनभिज्ञता तथा गणतंत्रके विषय में ऊहापोह की स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की पहलीघंटी ही मानी जानी चाहिए, परन्तु आदमी एक बहुत ही जटिल चीज होता है और एक साथ बहुत सारे आयामों में जी सकता है। नक्सली के साथ जुड़े बहुत सारे लोगों के साथ भी यही स्थिति है। हमें सावधान रहना चाहिए।

2 COMMENTS

  1. विश्वरंजन जी ने बहुत सही व्याख्या की है माओवादियो के बारे में।

    क्या माओ भी माओवाद का पक्षधर था ? चीन में भी युवा जन क्रांति को बुरी तरह से तियानमें चौराहे में कुचला गया ।
    आज यह जन क्रांति न रहकर एक 1500-२००० करोड़ रुपए सालाना उगाही का तरीका रह गया है और उसके लिए ये भी उनही दहशत गर्दियों को फॉर्मूला अपनाते हैं जो बाकी अन्य आतंकवादी अपनाते हैं ।

    आज ही स्वामी अग्निवेश के सौजन्य से 5 पुलिस कर्मियों की रिहाई हुई है इसके लिए स्वामी जी को साधुवाद

    लेकिन जहां इतनी बड़ी सरकार नहीं पहुँच पा रही है वहाँ स्वामी जी की पहुँच है ?
    और दूसरा यह बयान स्वामी जी का कि माओवादी भारतीय सविधान का पूर्ण सम्मान करते हैं , बात गले के नीचे नहीं उतरती ।

  2. आदरणीय विश्वरंजन जी,
    1. माओवाद क्रांती की एक विधी है जिससे समाज की शोषणकारी राज्य व्यवस्था को परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है. पार्टी, जनसेना तथा मोर्चा ये तीन हतियार है लक्ष्य को हासिल करने के लिए. ऐसा वह बताते है.
    माओवादी हिंसाको लक्ष्य प्राप्ती के लिए जायज ठहराते है.
    2. भारत की वर्तमान राज्य व्यवस्था से बहुसंख्यक नागरिक खुश नही है. अतः विविध विधीयो से भारत मे अभिनव क्रांती का पौधा फलफुल रहा है. संघ या पातंजली योगपीठ के स्वामी रामदेव या गोविन्दाचर्य या रविशंकर या ब्रहमकुमारी आदि इत्यादी भी क्रांती कर रहे हैं. लेकिन स्वामी रामदेव आदि गैर-हिंसक तरीके से क्रांती कर रहे है.
    वह हिंसा को जायज नही ठहराते.
    3. सभ्य समाज मे क्रांती के लिए सभी लोग हिंसक तरीके से क्रांती करना शुरु कर दे तो समाज बचेगा ही नही. इसलिए हिंसक तरीको का उपयोग को स्वीकार नही किया जा सकता.
    4. माओवाद को मैने नजदीक से देखा है. उनके संजाल के लिए विदेशो से धन आता है. विदेशी से योजनाए प्राप्त होती है . अतः इनका प्र्योग विदेशी हितो मे हो रहा हो सकता है इसकी पुरी संभावना है. खास कर अमेरिका एवम स्कैण्डेवीयन आदि देशो के संगठनो से माओवादीयो का घणिष्ठ सम्बन्ध देखा जाता है. इनके दर्शनशास्त्र एवम दस्तावेज अंग्रेजी भाषा मे देखे जाते है.
    5. अगर माओवाद का सम्बन्ध विदेशी सरकारो से नही है तो फिर माओवाद से देश को बडा खतरा हो ऐसा मै नही मानता. विदेशो से सम्बन्ध न होने की स्थिती मे मै उनको देश की राजनीति का हिस्सा मानुंगा.
    6. आप अक्सर माओवाद के बारे मे लिखते है. आप बडे शुरक्षा-पद पर रह चुके है. लेकिन आपने कभी यह नही लिखा की माओवादीयो के सुत्रधार विदेशो मे है. क्या आप माओवादीयो को इस मामले मे क्लीनचीट देना चाहेगें ???

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