श्वेत क्रांति की सच्चाई

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23706overviewहाल में दिल्ली में दूध की कीमतों में एक रूपये प्रतिलीटर की वृध्दि की गई। सहकारी डेयरी कंपनियों के अनुसार संग्रहण, भण्डारण, प्रसंस्करण और विपणन की बढती लागत के कारण दूध के दाम बढाना आवश्यक हो गया था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। यहां प्रतिवर्ष 10.2 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। यह उत्पादन किसी भी फसल की तुलना में अधिक है और किसानों को प्रति इकाई सबसे अधिक कमाई भी कराता है। फसलों की बर्बादी की क्षतिपूर्ति करने ओर सामाजिक सुरक्षा देने में दुग्ध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इसे किसानों की आत्महत्या पर राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एम.एस.एस.ओ.) की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार किसान आत्महत्या की घटनाएं उन क्षेत्रों में नाममात्र की हैं, जहां दूध उत्पादन से किसानों को नियमित आय हो रही है। दूध उत्पादन का कार्य अधिकांशत: लघु व सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों द्वारा किया जाता है। इसमें महिलाओं की भी प्रभावी भागीदारी है। इससे इन वर्गों को आय व रोजगार का सतत स्रोत मिल जाता है।श्वेत क्रांति(दुग्ध उत्पादन) की इन उपलब्धियों के बीच कई खामियां भी हैं जो इसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती हैं। श्वेत क्रांति की सबसे बड़ी सीमा यह है कि दूध की कीमत का लाभ वास्तविक हकदारों (उत्पादकों) तक नहीं पहुंच पा रहा है। जिस दूध को नगरों-महानगरों में 26 से 27 रूपये प्रति लीटर बेचा जाता है, उसी दूध के लिए दूध उत्पादकों को मात्र 14 से 15 रूपये प्रति लीटर का भुगतान किया जाता है। इस कीमत अंतराल का एक बड़ा हिस्सा प्रसंस्करण, प्रशीतन, परिवहन, प्रबंधन में जाता है। दूध उत्पादकों को जो 15-16 रूपये लीटर कीमत मिलती है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा चारे व पशु आहार, दुधारू पशुओं के रखरखाव आदि में खर्च हो जाता है। इससे दूध उत्पादकों का प्रतिफल और भी कम हो जाता है। दूसरे डेयरी सहकारिताओं के संग्रह के कारण गांव से दूध गायब हो गया। दूध उत्पादक दूध के बजाय चाय पीने लगे क्योंकि दूध की बिक्री से होने वाली आमदनी परिवार के लिए मुख्य हो गई। इससे किसानों, श्रमिकों में कुपोषण बढा। यद्यपि भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है लेकिन प्रतिव्यक्ति दूध उपलब्धता 246 ग्राम प्रतिदिन है जो कि विश्व औसत (265 ग्राम प्रतिदिन) से कम है। दूध की खपत के राष्‍ट्रीय औसत में भी अत्यधिक असमानता विद्यमान है।

दरअसल दूध संग्रह, परिरक्षण, पैकिंग, परिवहन, विपणन, प्रबंधन कार्य में वृध्दि होने से दूध की लागत बढी है। इसे कोलकाता की दूध आपूर्ति से समझा जा सकता है। आनंद (गुजरात) से कोलकाता तक प्रतिदिन रेफ्रिजरेटेड टेंकरों की रेलगाड़ी में दूध भेजा जाता है। दो हजार किलोमीटर तक ताजे दूध की नियमित आपूर्ति करना टेक्नालाजी का कमाल तो कहा जा सकता है लेकिन यह बिजली, डीजल व रेलवे की बरबादी है। जब गुजरात, राजस्थान जैसे सूखे प्रदेशों में श्वेत क्रांति संभव है तो गीले बंगाल में क्यों नहीं। असली श्वेत क्रांति तो तब मानी जाती जब दूध उत्पादन की विकेंद्रित, स्थानीय व मितव्ययी तकनीक प्रयोग में लाई जाती।

श्वेत क्रांति के बाद भी देश में दुधारू पशुओं की दूध देने की औसत क्षमता अधिकतम 1200 किग्रा वार्षिक ही है जबकि विश्व औसत 2200 किग्रा का है। इजराइल में तो दुधारू पशुओं की उत्पादकता 12,000 किग्रा वार्षिक तक पहुंच गई है। दूध उत्पादन में उन्नत प्रजातियों का अभी भी अभाव है। संकर प्रजाति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयास सिर्फ प्रयोगशालाओं तक सीमित हैं। पशुधन स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दुधारू पशु संक्रामक रोगों के कारण मर जाते हैं।

शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रति व्यक्ति आय में बढोत्तरी, खान-पान की आदतों में बदलाव जैसे कारणों से दूध व दूध से बने पदार्थों की मांग तेजी से बढ रही है। वर्तमान में दूध का तरल रूप में उपयोग मात्र 46% ही होता है शेष दूध का उपयोग दूध उत्पादों के रूप में होता है। आने वाले समय में दूध उत्पादों के उपयोग का अनुपात बढना तय है। ऐसी स्थिति में उत्पादन में तीव्र वृद्धि अतिआवश्यक है। लेकिन यह तभी संभव है जब देश में पशुचारा व पशु आहार की प्रचुरता हो। देश में इस समय 65 करोड़ टन सूखा चारा, 76 करोड़ टन हरा चारा और 7.94 करोड़ टन पशु आहार उपलब्ध है। यह मात्रा पशुओं की मौजूदा संख्या की केवल 40% जरूरत को पूरा करने में सक्षम है। दुधारू पशुओं के लिए मोटे अनाज, खली और अन्य पौ31टिक तत्वों की भारी कमी है। स्पष्‍ट है भूखे पशुओं से न दूध उत्पादन की अपेक्षा की जा सकती है और न ही अन्य अत्पादों की। अत: पशुचारा विकास की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। जिन सवा करोड़ लघु व सीमांत किसानों के बल पर दुग्ध उद्योग फल-फूल रहा है उनमें पशुपालन की वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है। श्वेत क्रांति में गाय-भैसों की देसी नस्लों की भी उपेक्षा हुई और विदेशी नस्लों का प्रचलन बढा। इससे भारतीय गोवंश में जैव विविधता का तेजी से ह्रास हो रहा है। चारा उगाने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। दूध उत्पादन बढाने के लिए नुकसानदेह हारमोन युक्त इंजेक्शनों का प्रचलन बढा। इससे दूध में हानिकारक रसायनों की मात्रा बढी। महानगरों में सिंथेटिक दूध का प्रचलन एक बड़ी समस्या है।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

फोटो साभार-www.fnbnews.com 

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