जम्मू कश्मीर की अनकही कहानी की पृष्ठभूमि

डा० कुलदीप अग्निहोत्रीjammu

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक आन्दोलनों का जिक्र आता है और उनकी ऐतिहासिक भूमिका को यथास्थान रेखांकित भी किया जाता है । परन्तु अंग्रेजों के चले जाने के बाद , भारत की अखंडता को पलीता लगा देने के एक ब्रिटिश षडयंत्र को परास्त करने में जम्मू कश्मीर में प्रजा परिषद द्वारा १९५३ में चलाये गये आन्दोलन को जानबूझ कर उपेक्षित करने का प्रयास किया जाता है । शायद इसलिये , क्योंकि राज्य में व देश में उस समय की सत्तीसीन सरकारें ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की चालों का शिकार होकर इस लोक आन्दोलन के विरोध में खडी हो गईं थीं । 
                जम्मू कश्मीर के पिछले छह दशकों के इतिहास में दो आन्दोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण आन्दोलन कहे जा सकते हैं । मुस्लिम कान्फ्रेंस/नैशनल कान्फ्रेंस का १९३१ से लेकर किसी न किसी रुप में १९४६ तक चला , महाराजा हरि सिंह के शासन के खिलाफ आन्दोलन , जिसका अन्तिम स्वरुप ' डोगरो कश्मीर छोडो' में प्रकट हुआ । १९४७ से लेकर १९५३ तक चला प्रजा परिषद का आन्दोलन , जो जम्मू कश्मीर राज्य के लोकतंत्रीकरण और उसके संघीय सांविधानिक व्यवस्था में एकीकरण के लिये चलाया गया था । इसकी अन्तिम परिणति तत्कालीन जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर की जेल में रहस्यमय मृत्यु और राज्य के उस समय के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के पतन में हुई । इन दोनों आन्दोलनों ने राज्य के इतिहास और राजनीति की धारा बदल दी । परन्तु आश्चर्य होता है कि मुस्लिम कान्फ्रेंस/नैशनल कान्फ्रेंस के आन्दोलन का इतिहास केवल लिखा ही नहीं गया बल्कि अकादमिक जगत में उसका गंभीर विश्लेषण भी हुआ है । लेकिन इसके विपरीत प्रजा परिषद के आन्दोलन के विश्लेषण और उसके प्रभावों की बात तो छोड़िए , उसका आज तक कोई सिलसिलेवार इतिहास तक नहीं लिखा गया । जबकि ये दोनों आन्दोलन और उन में उठाये गये मुद्दे आज भी किसी न किसी रुप में राज्य की राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं । अकादमिक जगत द्वारा प्रजा परिषद आन्दोलन की अवहेलना का मुख्य कारण १९४७ के बाद राज्य की राजनीति का पूर्ण रुप से कश्मीर केन्द्रित हो जाना भी हो सकता है ।राज्य की राजनीति में प्रजा परिषद का जन्म रियासत द्वारा २६ अक्तूबर १९४७ को संघीय सांविधानिक व्यवस्था स्वीकार लेने के कुछ दिन बाद ही १७ नबम्वर १९४७ को हुआ था । 

ऐसा समझा जाता है कि प्रजा परिषद की स्थापना नैशनल कान्फ्रेंस का मुक़ाबला करने के लिये बनाई गई थी , लेकिन प्रजा परिषद के बारे में यह भ्रामिक धारणा , इसके इतिहास का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन न होने के कारण ही पैदा हुई है । प्रजा परिषद का गठन , नैशनल कान्फ्रेंस की प्रतिक्रिया में हुआ , यह कहना अज्ञान को ही दर्शाता है । नैशनल कान्फ्रेंस का जन्म तो १९३८ में हुआ था । यदि प्रजा परिषद उसकी प्रतिक्रिया थी , तो उसका गठन भी उसके आस पास होना चाहिये था । जबकि प्रजा परिषद का गठन १७ नबम्वर १९४७ को हुआ था । दरअसल १९४७ में जम्मू कश्मीर रियासत द्वारा संघीय सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार कर लेने के बाद , स्पष्ट हो गया था कि नई लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजकाज में हिस्सेदारी राजनैतिक दलों के माध्यम से ही मिल सकती है और नई परिस्थितियों में शासकीय व्यवस्था के लिये राजनैतिक दलों की आवश्यकता है । राज्य में उस समय एक मात्र राजनैतिक दल नैशनल कान्फ्रेंस ही था । लेकिन इस राजनैतिक दल का कार्य केवल कश्मीर घाटी तक सीमित था । इस के मुद्दे भी कश्मीर केन्द्रित थे , जिनका जम्मू व लद्दाख की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं से कुछ लेना देना नहीं था । इस पृष्ठभूमि में राज्य में व्याप्त राजनैतिक शून्य को भरने के लिये प्रजा परिषद का गठन हुआ था । प्रजा परिषद नैशनल कान्फ्रेंस का विरोध करने के लिये नहीं बनी थी । १९४७ में प्रजा परिषद का नैशनल कान्फ्रेंस से क्या विरोध हो सकता था ? उस समय मुख्य विषय रियासत के भारत में विलय का था और दूसरा कबायलियों /पाकिस्तानी हमले का मुक़ाबला करने का था । नैशनल कान्फ्रेंस स्पष्ट रुप से रियासत के भारत विलय के पक्ष में थी और प्रजा परिषद का भी यही स्टैंड था । श्रीनगर में नैशनल कान्फ्रेंस के कार्यक्रताओं ने डट कर व्यावहारिक स्तर पर भी कबायलियों का विरोध किया था और जम्मू क्षेत्र में प्रजा परिषद के कार्यकर्ताओं ने कबायलियों का सामना किया था । इसलिये प्रजा परिषद के गठन के समय प्रजा परिषद और नैशनल कान्फ्रेंस में परस्पर विरोध का कोई सार्थक आधार नहीं था । बल्कि प्रजा परिषद ने तो नैशनल कान्फ्रेंस को राज्य और देश के हित में परस्पर मिलजुल कर काम करने का प्रस्ताव भी दिया था । नैशनल कान्फ्रेंस के विरोध का आधार तब निर्मित हुआ जब बाद में इस पार्टी के प्रधान शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने , कुछ विदेशी शक्तियों के उकसाने पर और कुछ अपनी असीमित महत्वकांक्षाओं के कारण , जम्मू कश्मीर को संघीय सांविधानिक व्यवस्था से अलग रखने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये । लेकिन यह बाद की कहानी है । जहाँ तक प्रजा परिषद के गठन का प्रश्न है , यह राज्य में स्थापित हो रही नई लोकतांत्रिक व्यवस्था के फलस्वरुप स्वभाविक प्रक्रिया थी । 
                    प्रजा परिषद का आन्दोलन एक प्रकार से अपने जन्म काल से ही शुरु हो गया था । १९४८ का समय तो पाकिस्तान द्वारा क़ब्ज़ा किये गये राज्य के हिस्सों से विस्थापित होकर आने वाले लोगों को बसाने और उनकी सहायता करने में बीता । इसके साथ ही प्रजा परिषद केन्द्र सरकार पर यह दबाव भी बनाये हुये थी कि पाकिस्तानी सेना द्वारा क़ब्ज़े में लिये गये जम्मू संभाग के हिस्सों को भी ख़ाली करवाया जाये । क्योंकि कश्मीर संभाग को ख़ाली करवा लेने के बाद , जम्मू संभाग के पंजाबी भाषी क्षेत्रों मसलन पुंछ जागीर, मीरपुर कोटली इत्यादि को ख़ाली करवाने में शायद केन्द्र सरकार ढिलाई दिखा रही थी । लेकिन राज्य के लोगों को सबसे ज़्यादा हैरानी तो तब हुई जब केन्द्र सरकार पाकिस्तान के क़ब्ज़े में गये जम्मू संभाग के क्षेत्रों , मुज्जफराबाद और बलतीस्तान समेत गिलगित को ख़ाली करवाने की बजाय मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ही नहीं ले गई बल्कि प्रथम जनवरी १९४९ को युद्ध विराम की घोषणा भी कर दी । अब तक यह भी स्पष्ट होने लगा था कि इस युद्ध विराम की नीति में राज्य के उस समय के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला भी शामिल थे । इतना ही नहीं शेख अब्दुल्ला और नेहरु दोनों ने ही कहना शुरु कर दिया कि लोग रियासत के भारत में विलय को नकार भी सकते हैं । जबकि सांविधानिक स्थिति ऐसी नहीं थी । जनता की राय जान लेने का आश्वासन रियासत की जनता को दिया गया था , इसमें कोई विवाद नहीं था । इसकी चर्चा नेहरु और और अब्दुल्ला दोनों बार बार करते भी रहते थे । लेकिन यह आश्वासन केवल जम्मू कश्मीर को नहीं दिया गया था , भारत सरकार की यह नीति सभी रियासतों के लिये थी । इसका अर्थ केवल इतना ही था कि अब रियासतों में भी लोगों की सरकार होगी , लोकतान्त्रिक सरकार होगी । राजशाही की जगह लोकशाही होगी । लेकिन नेहरु और शेख ने जम्मू कश्मीर के मामले में यहाँ तक कहना शुरु कर दिया कि राज्य भारत से अलग होने और पाकिस्तान में शामिल होने तक का निर्णय ले सकता है । जबकि संघीय संविधान में देश से अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है । ज़ाहिर है राज्य के लोगों में इन घोषणाओं से आशंका बढ़ी । 
प्रजा परिषद आन्दोलन के उस समय जो मुद्दे थे वे आज भी उतने ही प्रासांगिक हैं । जहां तक रियासत द्वारा नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था को स्वीकारने का प्रश्न था उस प्रश्न पर नेशनल कांफ्रेंस और प्रजा परिषद में कोई मतभेद नहीं था। रियासत नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था के किन उपबंधों को अंगीकार करेगी, इसका निर्णय भी रियासत के उस समय के शासक महाराजा हरि सिंह ने नहीं किया था बल्कि यह केन्द्र के गृह मंत्रालय का निर्णय था। इस निर्णय के अंतर्गत ही रियासत ने सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार से जुड़े संघीय संविधान के उपबंधों को स्वीकार किया था । गृह मंत्रालय ने यह निर्णय केवल जम्मू-कश्मीर रियासत के लिए नहीं किया था बल्कि देश की अन्य रियासतों के लिए भी यही निर्णय हुआ था। कालान्तर में रियासतों के प्रतिनिधियों और गृह मंत्रालय ने आपसी विचार-विमर्श से यह तय किया कि रियासतों में संघीय सांवैधानिक व्यवस्था के सभी उपबंध पूर्ण रूप से लागू होंगे ।
​लेकिन नेशनल कांफ्रेंस ने यह स्टैंड ले लिया कि राज्य में नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था के उपरोक्त तीन विषयों सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार संबंधी उपबंध ही लागू होंगे,शेष मामलों में राज्य अपना अगल संविधान बनाएगा। यह राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर होगा कि नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था के अन्य विषयों से ताल्लुक रखने वाले उपबंध राज्य में लागू होंगे या नहीं । राज्य सरकार की सहमति से संघीय संविधान के अन्य उपबंधों को राज्य में लागू करने के लिए संविधान में एक अतिरिक्त प्रक्रिया निश्चित की गई जिसे संविधान की धारा-370 कहा गया। इसके अनुसार राज्य सरकार के अनुरोध करने पर राष्ट्रपति कार्यकारी आदेश द्वारा ही संविधान के अन्य उपबंधों को उनके मूल स्वरूप में या संशोधित स्वरूप में राज्य में लागू कर सकते हैं। इन्हीं सब मुद्दों पर प्रजा परिषद और नैशनल कान्फ्रेंस का विवाद और मतभेद गहराया । 
                        २६ जून १९५० को भारत में नया संविधान लागू हो गया और अब भारत एक डोमिनियन न रह कर गणतंत्र बन गया । जम्मू कश्मीर संविधान सभा का गठन हुआ और उसने राज्य के लिये नया संविधान बनाना शुरु कर दिया । इस मरहले पर दो मित्रों पंडित नेहरु और शेख अब्दुल्ला ने आपसी बातचीत द्वारा ही राज्य का भावी संविधान तय करना शुरु किया । इस पर विवाद होना ही था । नेहरु और शेख की राज्य के संविधान के भावी स्वरुप को लेकर यह बातचीत इतिहास में १९५२ की बातचीत या दिल्ली समझौता या दिल्ली वार्ता के नाम से प्रसिद्ध है । इस वार्ता में इन दोनों महानुभावों ने ही तय कर लिया कि राज्य में निर्वाचित प्रधान होगा , अलग ध्वज होगा । राज्य में उच्चतम न्यायालय, महालेखाकार, चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र नहीं होगा । नेहरु शेख वार्ता ने राज्य के लोगों के धैर्य का बाँध तोड़ दिया । जम्मू संभाग , लद्दाख संभाग , गुज्जर , बक्करबाल,पहाड़ी ,जनजाति समाज , और शिया समाज सभी सड़कों पर उतर आये । इसके बाबजूद प्रजा परिषद ने प्रयास किया कि एक बार नेहरु से इस विषय पर बात की जाये और उनके सामने नैशनल कान्फ्रेंस के समर्थक , कश्मीर घाटी के सुन्नी मुसलमानों को छोड़ कर राज्य के बाक़ी लोगों का पक्ष भी रखा जाये । लेकिन नेहरु प्रजा परिषद से बात करने तक के लिये तैयार नहीं थे । डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरु को बार बार पत्र लिखे कि वे कम से कम एक बार प्रजा परिषद के प्रधान पंडित प्रेमनाथ डोगरा से मिल तो लें । लेकिन नेहरु के राज हठ में वे सब पत्र जल कर स्वाहा हो गये । हद तो तब हो गई जब जम्मू कश्मीर संविधान सभा ने संघीय संविधान के प्रावधानों की धज्जियाँ उड़ाते हुये १४ नबम्वर १९५२ को राज्य के राजप्रमुख के पद को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर निर्वाचित प्रधान की व्यवस्था लागू कर दी ।जबकि यह अधिकार संसद को था किसी राज्य की विधान सभा को नहीं । लेकिन अभी एक और आश्चर्य बाक़ी था । नेहरु ने इस ग़ैर सांविधानिक कृत्य का विरोध करने की वजाये राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि वे धारा ३७० के अन्तर्गत इस असंवैधानिक कार्य को स्वीकृति प्रदान करें । अब साफ हो गया था कि नेहरु और शेख मिल कर राज्य में राजशाही की जगह शेखशाही स्थापित कर रहे थे ।जम्मू-कश्मीर राज्य में केवल अलग संविधान ही नहीं बना बल्कि राज्यपाल के स्थान पर निर्वाचित प्रधान की व्यवस्था की गई और इसी प्रकार राज्य के लिए अलग ध्वज भी निश्चित किया गया । प्रजा परिषद और नेशनल कांफ्रेंस में इन सभी मुद्दों पर बुनियादी मतभेद था ।  प्रजा परिषद का मानना था कि जैसे अन्य राज्यों में नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था पूर्ण रूप से लागू है उसी प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य में भी लागू होनी चाहिये । जाहिर है यदि जम्मू-कश्मीर में नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था पूर्ण रुप से लागू हो जाती  है तो संविधान की धारा-370 की भी जरुरत नहीं रहेगी, न ही राज्य में निर्वाचित प्रधान हो सकता है, और न ही उसका अपना अगल ध्वज।राज्य में अलग संविधान भी स्वत: समाप्त हो जायेगा ।  इन सभी मुद्दों को लेकर प्रजा परिषद ने १४ नबम्वर १९५२ को राज्य में व्यापक आंदोलन प्रारम्भ कर दिया ।
                        यह आन्दोलन एक प्रकार से जन आन्दोलन था । जल्दी ही यह जम्मू संभाग के गाँव गाँव तक में फैल गया । इसमें हिन्दु मुसलमान सभी लोग शामिल थे । हज़ारों लोगों ने आगे बढ़कर गिरफ़्तारियाँ दीं और पुलिस के अमानुषिक अत्याचारों को सहा । राज्य सरकार ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिये बहुत ज़ोर ज़ुल्म किया । उन दिनों राज्य में कश्मीर मिलिशिया के नाम से पुलिस बल हुआ करता था । यह बल एक प्रकार से शेख अब्दुल्ला की प्राइवेट सेना ही थी । इस सेना को जम्मू में बुला लिया गया था । पंजाब पुलिस भी राज्य में लगा दी गई थी । मिलिशिया के सिपाही लोगों के घरों में घुस जाते थे । औरतों का अपमान और बलात्कार तक किया गया । सरकार ने सत्याग्रहियों की सम्पत्तियाँ कुर्क कर दीं । पशु तक नीलाम करवा दिये गये । सत्याग्रहियों को तुरत फुरत लम्बी लम्बी सजाएँ सुना दी गईं । लेकिन सरकार के इन सारे अत्याचारों के बावजूद आन्दोलन दबने की वजाये फैलता गया । गाँव गाँव में लोग स्वत: स्फूर्ति से , हाथ में तिरंगा लेकर , छाती पर डा० राजेन्द्र प्रसाद का चित्र लगा कर और दूसरे हाथ में भारत का संविधान लेकर जय घोष कर रहे थे-- एक देश में दो निशान , दो प्रधान , दो विधान , नहीं चलेंगे , नहीं चलेंगे । लोग सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा लहराने की कोशिश करते और मिलिशिया के सिपाही वहाँ से तिरंगा गिराने की कोशिश करते । तिरंगे को रोकने के लिये राज्य पुलिस ने अनेक जगह गोलियाँ चला दीं । पन्द्रह सत्याग्रही शहीद हो गये , लेकिन आन्दोलन थमा नहीं । वास्तव में यह आन्दोलन देश विभाजन के बाद भी बचे खुचे अलगाववाद और राष्ट्रवाद के बीच था । राष्ट्रवाद के पक्ष में जम्मू कश्मीर के लोग भी अपने हिस्से की आहुति डाल रहे थे । इस आन्दोलन का दूसरा स्वरुप राज्य में लोकशाही बनाम शेखशाही का था । लेकिन लोगों को नेहरु की भूमिका सबसे ज़्यादा आश्चर्यचकित करती थी । उन्होंने राज्य के लोगों की राय जानने का वायदा किया था । उसका अर्थ यही था कि राज्य में लोकशाही स्थापित की जायेगी ।लेकिन अब जब लोग उसके लिये लड रहे थे तो नेहरु लोकशाही की वजाये शेखशाही के साथ चले गये थे । 
                            नेहरु चाहे शेखशाही के साथ चले गये थे , परन्तु देश की आम जनता जम्मू कश्मीर में लोकशाही के पक्ष में खड़ी थी । प्रजा परिषद के आन्दोलन के पक्ष में कुछ राजनैतिक व सामाजिक संगठनों ने मिल कर एक संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर लिया , जिसने जम्मू कश्मीर में लोकशाही के पक्ष में आन्दोलन छेड़ दिया । जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी समिति की ओर से राज्य में मौक़े पर जा कर वस्तुस्थिति का अध्ययन करने के लिये जम्मू गये , लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें सीमा पर ही बंदी बना लिया और श्रीनगर की जेल में भेज दिया । कुछ दिनों उपरान्त २३ जून १९५३ को जेल में ही उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई । डा० मुकर्जी ने लोगों की इच्छा जानने के संकल्प की पूर्ति करते हुये राज्य में लोकशाही की स्थापना हेतु , अलगाववाद के विरोध में अपनी शहादत दे दी थी । लेकिन उनकी इस शहादत से शेखशाही का असली चेहरा भी सामने आ गया । सात जुलाई को प्रजा परिषद ने अपना अपना आन्दोलन वापिस ले लिया और संघर्ष का स्वरुप बदल दिया । शेखशाही के इस सांविधानिक स्वरुप को लेकर नैशनल कान्फ्रेंस में ही विवाद हो गया और शेख अब्दुल्ला अपनी पार्टी में भी अकेले पड़ गए औऱ उनकी सरकार का पतन हो गया।
​प्रजा परिषद के आंदोलन के परिणाम स्वरूप ही भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए परमिट सिस्टम समाप्त कर दिया। राज्य की संविधान सभा ने रियासत के भारत में विलय का अनुमोदन किया । राज्य में निर्वाचित प्रधान का पद समाप्त कर के अन्य राज्यों की तर्ज पर ही राज्यपाल का पद स्थापित किया गया। राज्य के प्रधानमंत्री के लिए मुख्यमंत्री पद नाम ही स्वीकार किया गया। समय के अंतराल में धारा-370 के माध्यम से संघीय संविधान के लगभग दो सौ उपबंधों को राज्य में लागू किया गया। उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र जम्मू-कश्मीर तक बढाया गया । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रजा परिषद आंदोलन ने जो जन जागृति पैदा की उनकी पृष्टि भूमि में नेशनल कांफ्रेंस के लिए ऐसी स्वायत्तता की ओर बढ़ना मुश्किल हो गया जिसे कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने राजनैतिक स्वतंत्रता के समकक्ष ही कहा है।
​लेकिन जो मुद्दे  प्रजा परिषद ने आज से साठ साल पहले अपने आंदोलन में उठाये थे वे आज की राजनीति में कितने प्रासंगिक हैं? धारा-370 का प्रश्न तो प्रासंगिक है ही । यह धारा वैसे भी अस्थाई है और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसको संघीय संविधान में समाहित किया गया था वह अब पूरा हो चुका है। संघीय संविधान का अधिकांश हिस्सा राज्य में लागू हो चुका है। शेष भाग भी लागू किया जा सकता है , क्योंकि अब राज्य में १९४७-१९५० की हालत तो नहीं ही है, जिसके कारण धारा ३७० की जरुरत पडी थी । इस लिए इस धारा को निरस्त किये जाने की मांग निरंतर उठती रहती है ।  जम्मू-कश्मीर में भी संघीय संविधान के उपबंध उसी प्रकार और उसी पद्धति से लागू होने चाहिए जैसे वे अन्य राज्यों में होते हैं। धारा-370 के समाप्त हो जाने से जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान अपने आप  समाप्त हो जाएगा और वह संघीय संविधान में ही समाहित हो जाएगा। १९५७ से , जब जम्मू कश्मीर का अपना संविधान राज्य में लागू हुआ था , अब तक संघीय संविधान के लगभग २६० अनुच्छेद राज्य में लागू हो चुके हैं । अब धारा ३७० राज्य में आम जनता से अन्याय का एक साधन बन गया है । राज्य में आम आदमी मौलिक अधिकारों के तहत देश के अन्य नागरिकों को मिल रही सुरक्षा से मरहूम है । नेशनल कांफ्रेंस ने शुरू में ही जिस कश्मीर केन्द्रित राजनीति का आगाज किया था वह आज भी किसी न किसी रुप में विद्यमान है। लेकिन इसके साथ ही नैशनल कान्फ्रेंस धारा ३७० की आड में आम कश्मीरी को उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से बंचित कर रही है । प्रजा परिषद आन्दोलन का यह मुख्य मुद्दा अभी भी समाधान की राह ताक रहा है । इसलिए जम्मू और लद्दाख में बराबर असंतोष बना रहता है। प्रजा परिषद ने 1953 में इसी असंतोष को वाणी दी थी और इसके लिए उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। अभी भी जम्मू और लद्दाख के लोग राज्य में इस कश्मीर केन्द्रित राजनीति के खिलाफ लड़ते रहते हैं और इन दो संभागों के साथ हो रहे अन्याय का प्रश्न उठाते है। जम्मू और लद्दाख के साथ भेदभाव की यह नीति किसी न किसी रुप में अभी भी प्रचलित है। २००८ में हुआ अमरनाथ आन्दोलन उसी का परिणाम था । 
​प्रजा परिषद ने अपने आंदोलन में एक मुख्य मुद्दा यह उठाया था कि राज्य का जो भाग पाकिस्तान ने बल पूर्वक अपने कब्जे में ले लिया है उसको पाकिस्तान से वापस लिया जाए। यह मुद्दा भी अभी तक अटका हुआ है। 1994 में संसद ने इन क्षेत्रों को वापस लेने का एक प्रस्ताव तो अवश्य पारित किया लेकिन उसे वापस लेने के लिये कोई सार्थक पग नहीं उठाए गए। अतः कहा जा सकता है कि प्रजा परिषद ने जिन मुद्दों को लेकर आंदोलन लड़ा था वे मुद्दे आज भी प्रासांगिक हैं। राज्य में , विशेषकर जम्मू संभाग औऱ लद्दाख संभाग में इन मुद्दों को लेकर किसी न किसी रुप में अभी भी आंदोलन होते रहते हैं। इसी से इन मुद्दों की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासांगिकता को समझा जा सकता है।

जहां तक प्रजा परिषद द्वारा चलाये गये आन्दोलन की सफलता या असफलता का प्रश्न है ,किसी भी आन्दोलन की सफलता और असफलता मापने के दो ही पैमाने हो सकते हैं । पहला पैमाना तो यही होता है कि जिन माँगों को लेकर आंदोलन किया गया है , उनमें से कितनी स्वीकार की गई हैं । ​किसी भी आंदोलन का आंकलन अन्ततः इसी बात से किया जाता है कि उसे अपने उद्देश्य में कितनी सफलता मिली है। इस दृष्टि से प्रजा परिषद आंदोलन का आंकलन कैसे किया जाएगा ? सफलता मापने के दो मापदण्ड स्वीकार किये जाते हैं। पहला मापदण्ड तो यही है कि जिन मांगों की पूर्ति के लिए आंदोलन किया गया है और दूसरा मापदण्ड यह है कि आंदोलन चलाने वाली पार्टी जिस समस्या को लेकर लोगों का या सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहती है उसे इसमें कितनी सफलता मिली है। यहां तक प्रजा परिषद के आंदोलन का संबंध हैं पार्टी का ऐसा मानना था राज्य और देश के हितों को लेकर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला अब विश्वासी नहीं माने जा सकते। रियासत द्वारा संघीय सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार करने के महाराजा हरि सिंह के निर्णय का समर्थन कर के शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय लिया था। कवालियों का विरोध करने में भी नेशनल कांफ्रेंस की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इस मोड़ तक प्रजा परिषद औऱ नेशनल कांफ्रेंस में विरोध का कोई बहुत बड़ा आधार दिखाई नहीं देता।
परन्तु शेख द्वारा चुनावों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरे बिना पूरी रियासत की सत्ता प्राप्त कर जाने के बाद शेख ने नेशनल कांफ्रेंस के घोषित उद्देश्यों से पार्टी को दूर ले जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। इस नये शेख और इसकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस की इन नयी राजनीतिक नीतियों का विरोध प्रजा परिषद ने किया परन्तु केन्द्र सरकार और पं. जवाहर लाल नेहरू इसको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। दिल्ली में बैठें जवाहर लाल नेहरू के लिए देश की अन्य समस्यों की तरह यह भी मात्र एक समस्य़ा हो सकती थी लेकिन जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए, खास कर जम्मू और लद्दाख संभाग के लिए यह मात्र एक समस्या नहीं थी बल्कि उनके अस्तित्व का प्रश्न था। शेख पाकिस्तान के कब्जे में गए रियासत के हिस्से को भी मुक्त करनवाने में रुचि नहीं रखते थे जबकि प्रजा परिषद के लिए पाकिस्तान के कब्जे में गए राज्य के हिस्सों को मुक्त करवाना पहली प्राथमिकता थी.
प्रजा परिषद के आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि बदले हुए मोहम्मद शेख अब्दुल्ला की असलियत देश के सामने आ गई थी और ज्यों ज्यों आंदोलनकारियों पर राज्य सरकार के अमानुषिक अत्याचार बढ़ते गए त्यों त्यों शेख अब्दुल्ला के भीतर का तानाशाह अपने भयावह रुप में प्रकट होता गया। प्रजा परिषद के आंदोलन ने बदले हुए शेख अब्दुल्ला का असली चेहरा जनता के सामने लाने में सफलता प्राप्त की जिसके कारण नेशनल कांफ्रेंस के भीतर भी दो मत बन गए और शेख को पार्टी के अध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया गया। केन्द्र सरकार भी शेख के असली चेहरे को पहचान गई। शेख की समय के भीतर हो जाने वाली इस पहचान के कारण जम्मू कश्मीर राज्य एक भीषण सकंट से बच गया। इस दृष्टि से यह प्रजा परिषद आंदोलन की यह सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है।
​यह ठीक है कि प्रजा परिषद की सभी मांगे उसी समय स्वीकार नहीं की गई परन्तु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य के लोगों की इस मांग को की संघीय संविधान के ज्यादा से ज्यादा उपबंध राज्य में भी लागू हो, इसे केन्द्र सरकार ने भी स्वीकार किया और इस दिशा में निरंतर पग भी उठाए और यह प्रक्रिया अभी तक जारी है । प्रजा परिषद आन्दोलन के दो विषय ऐसे हैं , जिनका जल्दी समाधान होना राज्य और देश दोनों के हित में है । इनमें से पहला मुद्दा धारा ३७० की समाप्ति , जिससे जम्मू और विशेषकर कश्मीर घाटी के लोगों का निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा किये जाने वाला शोषण समाप्त हो सके । दूसरा विषय राज्य के पाकिस्तान के क़ब्ज़े में गये क्षेत्र को मुक्त करवाने का है , जिसके लिये संसद प्रतिबद्ध है । इसे क्या कहा जाये कि नैशनल कान्फ्रेंस आज साठ साल बाद भी कहानी १९५३ से शुरु करना चाहती है । जबकि नैशनल कान्फ्रेंस को उस समय भी सत्ता राज्य के लोकबल से नहीं बल्कि नेहरुबल से मिली थी । नेहरु ने जानबूझकर कर शेख की सहायता की ताकि शेख कश्मीर घाटी के लोगों को अपने सत्ता स्वार्थों के लिये बंधक बना सकें और अपनी सत्ता की लड़ाई में उनका मोहरे  के तौर पर इस्तेमाल कर सकें । नैशनल कान्फ्रेंस में शेख अब्दुल्ला धड़े के इस जन विरोधी व लोकतांत्रिक विरोधी आचरण का विरोध करते हुये तब प्रजा परिषद ने राज्य में 'लोकयुद्ध' का आगाज किया था ।उस समय भी उस लोकयुद्ध में कांग्रेस राज्य के लोगों के विरोध में शेख के साम्राज्यवादी धड़े की अग्रिम पंक्तियों में थे और आज २०१३ भी जब नैशनल कान्फ्रेंस एक बार फिर जम्मू कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को एक पक्ष के रुप में निमंत्रण दे रही है तो कांग्रेस फिर से उसे सत्ता में बनाये रखने की ऐतिहासिक भूमिका में उपस्थित है । इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है ।

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