दूसरी आजादी की लड़ाई में है विराट जन-भागीदारी : प्रो. कुसुमलता केडिया

प्रख्यात समाजवैज्ञानिक एवं गांधी विद्या संस्थान, राजघाट, वाराणसी की कार्यकारी निदेशक प्रो. कुसुमलता केडिया का मानना है कि स्वामी रामदेव और श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में जो जनान्दोलन चल रहे हैं, उनमें दोनों में मिलाकर विराट जन-भागीदारी है और ये आन्दोलन पूर्णत: सफल हैं। स्वयं महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले आन्दोलन में इतनी विराट संख्या में कभी भी लोग शामिल नहीं हुए और उनके किसी भी आन्दोलन की मांगें तत्कालीन शासन ने नहीं मानीं, परन्तु वे आन्दोलन भी पूर्णत: सफल थे। प्रस्तुत है प्रो. केडिया से हमारे संवाददाता की बातचीत-

प्र.- लोगों का कहना है कि रामदेव जी का आन्दोलन पूरी तरह विफल हो गया। एक समाज वैज्ञानिक के रूप में आप इसे कैसे देखती हैं?

उ.- हमारे मध्यवर्ग के एक हिस्से में अजब सी रूमानियत देश के स्वाधीनता आन्दोलन को लेकर छा गई है। उन्हें ऐतिहासिक तथ्यों का कोई स्मरण ही नहीं रहता। न तो राष्ट्रीय तथ्यों का और न ही अन्तर्राष्ट्रीय तथ्यों का। गांधी जी का कोई भी आन्दोलन सफल नहीं माना जाएगा अगर कसौटी यह रखें कि सरकार मांगें मानती है या नहीं। क्योंकि तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने गांधीजी की एक भी महत्वपूर्ण मांग स्वीकार नहीं की थी। कभी-कभी गौण मांगें भले मान लेते थे, वह भी बहुत कम। परन्तु तथ्य यह है कि महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में चले सभी जनान्दोलन अत्यंत सफल रहे। उन्होंने देश की राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना को तथा राष्ट्रीय भावना को प्रदीप्त करने का काम किया, आततायी शासन के मन में भय पैदा किया, चिंता और घबराहट पैदा की, तनाव पैदा किया तथा लोक मानस को इतना मजबूत बनाया कि वे कभी-कभी खुलकर, अन्यथा सदा ही थोड़ा छिपाकर, क्रांतिकारी आन्दोलन का भरपूर समर्थन और सहयोग करने लगे, हर महान क्रांतिकारी को देशभक्त वीर और गौरवयोग्य मानने लगे, जबकि अंग्रेजों का प्रचार तो यही था कि वे क्रांतिकारी नहीं हैं, डकैत हैं, लुटेरे हैं, भगोड़े हैं और राजद्रोही हैं। आज कांग्रेस के कई लोग बाबा रामदेव के लिए ठीक वही भाषा बोल रहे हैं, जो अंग्रेज अफसर चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आदि के लिए बोलते रहे हैं और 1942 के आन्दोलन के बाद स्वयं महात्मा गांधी के लिए बोलने लगे थे। जो गांधी स्वयं को 1920 तक ब्रिटिश शासन का सबसे बड़ा भक्त, सच्चा ब्रिटिश राजभक्त गौरव के साथ कहते थे, उन्हें ही 1942 के ‘करो या मरो’ आन्दोलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने बाकायदा अपने प्रकाशित दस्तावेज में ‘ब्रिटिश शासन का दुश्मन नं.1 (एनिमी नं-1)’ तथा ‘राजद्रोही’, ‘अराजकतावादी’, ‘व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए उतारू असामाजिक तत्व’, ‘तोड़फोड़ को उकसावा देने वाला’ आदि कहा था। यह दस्तावेज सम्पूर्ण गांधी वांग्मय में भी प्रकाशित है तथा ‘ट्रांसफर ऑफ पॉवर’ सहित अन्य अनेक प्रकाशनों में भी।

प्र.- जनान्दोलनों की सफलता की कसौटी आप क्या मानती हैं?

उ.- वस्तुत: तो यह प्रश्न उन लोगों से पूछा जाना चाहिए, जो रामदेव जी के विराट जनान्दोलन को असफल बताते हैं। उनसे पूछना चाहिए कि किन कसौटियों पर मार्टिन लूथर किंग या महात्मा गांधी के द्वारा चलाए गए जनान्दोलन सफल माने जाएंगे और फिर उन्हीं कसौटियों पर किस प्रकार रामदेव जी का आन्दोलन असफल माना जाएगा। बड़े आन्दोलन बड़े व्यक्तित्वों द्वारा चलाए जाते हैं, किन्हीं भोंदुओं द्वारा नहीं। केवल कोई भोंदू ही यह खामखयाली कर सकता है कि उसके आन्दोलन चलाते ही शासन तुरन्त उसकी सभी मांगें मान लेगा, व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन कर देगा, कानून बनाकर उन्हें लागू कर देगा। संक्षेप में यह कि तत्कालीन शासक वर्ग स्वयं अपने आधारों पर चोट करके आत्मघात कर लेगा। बड़े व्यक्तित्व तो यह जानते ही हैं कि जिनके विरुध्द जनान्दोलन चल रहा है, वे हर संभव उपाय से यह प्रयास करेंगे कि जनान्दोलन सफल न हो, उसके द्वारा उठाई गई मांगों की तोड़मरोड़कर व्याख्या की जाएगी, उसके विरुध्द झूठा प्रचार किया जाएगा और तरह-तरह के झूठे लांछन लगाए जाएंगे। जिसे इतना भी न पता हो, वह बड़े आन्दोलन चलाने लायक व्यक्ति नहीं होता और जनता पर उसके व्यक्तित्व की कोई छाप नहीं पड़ती।

सत्य तो यह है कि आन्दोलनों का मूल उद्देश्य उन तथ्यों और उन प्रावधानों के बारे में समाज को सजग करना होता है, जो समाज के कल्याण के विरुध्द होते हैं और जिनकी आड़ लेकर ऐसे अनर्थकारी कार्य किसी शासन द्वारा किए जा रहे होते हैं। अगर कांग्रेस शासन सचमुच कालेधन का विरोधी ही होता तो वह वैसे कानून कभी बनाता ही नहीं, जिनकी आड़ लेकर कालाधन पैदा हुआ है और विदेशों में जाकर जमा हुआ है। आधुनिक राय एक अत्यंत शक्तिशाली संस्था है और बड़े पैमाने पर कोई भी काम उसके संज्ञान के बिना कभी हो ही नहीं पाता। हमारी सरकारों को अच्छी तरह पता था कि जो कानून हैं, कराधान से लेकर बाजार के नियंत्रण तक की जिस प्रकार की व्यवस्थाएं हैं, संसाधनों पर जिस तरह शासन तंत्र का पूर्ण नियंत्रण है और उसके नियंत्रण में जिस प्रकार देश के संसाधनों का इकतरफा हस्तांतरण की कार्यवाही विकास कार्यों के नाम पर चल रही है, उसमें करों की चोरी, शासन तंत्र से मिलकर अनुचित मुनाफाखोरी और कमाए गए धन को देश से बाहर ले जाने के काम होने हैं। यही नहीं, ये सभी काम शासन के उच्च स्तरों के संज्ञान में ही संभव हैं। जिसका अर्थ है कि इन कामों में शासकों में से बड़े लोगों की अच्छी खासी सहभागिता या हिस्सेदारी है। जिन मासूम लोगों को यह नहीं पता, उनकी किसी भी आन्दोलन के बारे में टिप्पणी का कोई अर्थ ही नहीं। जिन्हें यह पता है, केवल वे ही प्रबुध्दजन कहे जा सकते हैं। ऐसे सभी प्रबुध्दजन जानते हैं कि जनान्दोलन दीर्घकालिक लक्ष्यों की सिध्दि की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं। उससे राजनीति और विधिव्यवस्था पर अनुकूल दबाव पड़ता है तथा देश में बौध्दिक सजगता आती है। लूट और अन्याय का अनुभव तो समाज को प्रत्यक्ष होता ही है, उसके लिए किसी आन्दोलन की आवश्यकता थोड़े ही है। वह तो रोज का अनुभव है। आन्दोलन की आवश्यकता तो उन व्यवस्थाओं, प्रावधानों, कानूनी छेदों और पोलों तथा उन गलत कानूनी प्रावधानों के बारे में समाज में सजगता लाने के लिए पड़ती है, जिनके जरिये ये सब लूट और अन्याय के कार्य किये जाते हैं। आन्दोलन होते ही लूट और अन्याय करने वाले उसे छोड़ देंगे, वर्षों से जिस पर पलते आए हैं, वह वृत्ति छोड़ देंगे और उस ईमानदारी और न्याय का रास्ता अपना लेंगे, जो उन्हें नैतिक समृध्दि तो देगी परन्तु उस आर्थिक चमक को उनसे छीन लेगी, जो आज उनके आत्मगौरव का एकमात्र आधार है, यह कल्पना तो कुछ विचित्र से नमूने लोग ही कर सकते हैं। जनान्दोलनों की सफलता अन्याय और लूट के आधारों और प्रावधानों के प्रति व्यापक समाज में सजगता ला देने में है। इस दृष्टि से महात्मा गांधी के सभी आन्दोलन पूर्णत: सफल थे और इसी दृष्टि से स्वामी रामदेव तथा श्री अन्ना हजारे द्वारा चलाए गए दोनों ही जनान्दोलन पूर्णत: सफल हैं। उनसे देश में विराट जागृति आई है। दोनों ही आन्दोलनों का अलग-अलग महत्व है और अलग-अलग स्वरूप है। दोनों के ही अलग-अलग प्रकार के शुभ परिणाम समाज पर पड़ने वाले हैं।

प्र. – तो क्या आप अन्ना हजारे के इस आह्वान से सहमत हैं कि यह आजादी की दूसरी लड़ाई है?

उ.- मेरा जहां तक ज्ञान है, भारत कभी भी पराधीन नहीं रहा है। हमने एक पुस्तक में वे सारे तथ्य दिये हैं। यदि भारत कभी भी मुसलमानों के अधीन होता तो आज भारत में एक भी हिन्दू जीवित नहीं बचता। पाकिस्तान में आज हिन्दू कहां हैं? जो मुट्ठीभर बचे हैं, वे कब तक बचे रह पाएंगे? 60 वर्षों में यह स्थिति है तो 600 वर्षों में या 1200 वर्षों में क्या स्थिति होती? विश्व के किस मुस्लिम राष्ट्र में इस्लाम से पहले के गैर मुस्लिम लोग बचे हैं? इसी प्रकार यदि भारत पूरी तरह अंग्रेजों के अधीन होता तो सम्पूर्ण भारत वैसा ही ईसाई हो चुका होता, जैसा इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैण्ड आदि हैं। 300 वर्षों पूर्व इनमें से प्रत्येक देश में बड़ी आबादी बहुदेववादियों अर्थात सनातनधर्मियों (पैगन्स) की थी। स्पष्ट है कि भारत कभी भी पराधीन नहीं रहा है। उसे पराधीन बनाने की लालसाएं और चेष्टाएं अवश्य रही हैं। परन्तु वे सफल नहीं होने दी गईं। भारत को पराधीन बनाने के इच्छुक लोगों के विरुध्द भारतीयों ने जो पराक्रम किए, अगर श्री अन्ना हजारे तथा अन्य लोग भी उसे ही भारत की आजादी की लड़ाई कहते हैं, तो इसमें कोई हर्ज नहीं। उस रूप में वर्तमान जनान्दोलनों को आजादी की दूसरी लड़ाई कहने में भी कुछ गलत नहीं है। जो लोग भारत को सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सभ्यतागत, सामाजिक और आर्थिक तथा विधिक रूप से पराधीन बनाना चाहते हैं, उनके विरुध्द पराक्रमी भारतीयों द्वारा चलाए जा रहे ये विराट जनान्दोलन हैं। अत: इस रूप में मैं श्री अन्ना हजारे की बात का पूर्ण समर्थन करती हूं।

प्र.- आपने कहा कि ये दोनों आन्दोलन प्रकृति में थोड़े भिन्न-भिन्न हैं। कृपया समाजवैज्ञानिक स्तर पर इसे थोड़ा स्पष्ट करें।

उ.- भारत में विधि का शासन है। इस विधि का एक निश्चित रूप है। अभी मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगी, क्योंकि आपका प्रश्न उससे संबंधित नहीं है। यह जो संविधान है और उसके अन्तर्गत जिन कानूनों को वैधता दी गई है, उनके स्वरूप को जानने वाला ही इस संविधान के दायरे के भीतर उचित और आवश्यक संशोधन या प्रावधान लाकर, आवश्यक कानूनी व्यवस्थाएं बनाकर या बनवाकर, इसी व्यवस्था के भीतर समाजहित में आवश्यक परिवर्तन या प्रबंध कर सकता है। इसके लिए कानून के स्वभाव और प्रकृति की अच्छी तरह जानकारी आवश्यक है। अभी तक यह जानकारी केवल कांग्रेस के प्रमुख शासकों, देश के प्रमुख प्रशासकों और प्रमुख विधिवेत्ताओं, न्यायाधीशों आदि को तथा कतिपय प्रमुख व्यापारिक घरानों को ही थी। इसीलिए उन्होंने अपने पक्ष में अब तक लगभग 100 संशोधन इस संविधान में किए हैं और जैसा स्वाभाविक है, उन्हें जनहितकारी प्रचारित किया है। इसी प्रकार, अनेक कानून इस अवधि में बनाए गए हैं। श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में नागरिक समाज के प्रबुध्द तथा सजग ऐसे लोग पहली बार बड़े पैमाने पर एकत्र हुए हैं, जिन्हें कानून की इन व्यवस्थाओं की जानकारी है और जो पहली बार देश के सामने वे कानूनी प्रावधान पूरे ब्यौरों के साथ ला रहे हैं, जो कालाधन, प्रशासन के अन्याय और भ्रष्टाचार की आड़ बनते रहे हैं, जिन कानूनी प्रावधानों की ही आड़ लेकर, जनता की सेवा के लिए स्वयं को समर्पित बताने वाले शासक और प्रशासक उसे बुरी तरह नचाते और थकाते रहे हैं। स्पष्ट है कि ये लोग संविधान में पूर्ण श्रध्दा रखने वाले और वर्तमान व्यवस्था को बेहतर बनाने के इच्छुक लोग हैं। इनमें से किसी ने कभी भी यह नहीं कहा है कि कानून बनाने का काम संसद नहीं करेगी, अपितु वे करेंगे। उन्होंने तो हमारे माननीय सांसदों में से उन लोगों का काम हल्का कर दिया है, जो विधायिका में जनता के प्रतिनिधि के रूप में चुने जाते हैं, परन्तु किन्हीं कारणों से विधायिका के विशेषज्ञ के रूप में सक्षम नहीं सिध्द हो पाते और उनमें से जो सचमुच देश का भला चाहते हैं, वे श्री अन्ना हजारे और उनकी टीम के द्वारा तैयार ड्राफ्ट से यह सहजता से देख सकेंगे कि किन कानूनी और वैधानिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के द्वारा भ्रष्टाचार को रोका जाना सरल हो सकता है तथा अफसरशाही की मनमानी और भ्रष्टता रोकी जा सकती है। जाहिर है कि यह भ्रष्टता राजनैतिक संरक्षण में ही संभव होती हैं अत: अन्ना हजारे की टीम के द्वारा तैयार प्रावधान ऐसे राजनैतिक संरक्षण को भी कठिन बना देने वाले हैं। ये सब बातें पहली बार सभाओं, आन्दोलनों और संचार माध्यमों के द्वारा व्यापक समाज के सामने आ रही हैं। सभी का न्यूनतम विधिक प्रशिक्षण इसके द्वारा हो रहा है। साथ ही संविधान की यह सुंदरता भी सबके सामने आ रही है कि इसके अनुसार राय की स्वामी देश की सम्पूर्ण जनता है अर्थात देश ही स्वामी है, शासन और प्रशासन के विभिन्न पदों पर बैठे हुए जिम्मेदार लोग देश और राय की सेवा के लिए वहां हैं। इस सच्चाई को सामने लाकर स्वयं अन्ना हजारे और उनकी टीम देश की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं।

जहां तक स्वामी रामदेव के नेतृत्व में चल रहे जनान्दोलन की बात है, वह दार्शनिक और आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक गहराई से सम्पन्न जनान्दोलन है। व्यक्ति और समाज का चित्त कैसे शुध्द और सात्विक बने, आहार-विहार तथा जीवन में कैसे स्वास्थ्य और संयम की साधना हो, बौध्दिक सामर्थ्य तथा आध्यात्मिक ऊर्जा कैसे बढ़े, ज्ञान कैसे प्रखर हो, प्रदीप्त हो, यह सब करने का काम रामदेवजी के नेतृत्व में हो रहा है। केवल तेजस्वी और आत्मबल सम्पन्न लोग ही ऐसी मांग कर सकते हैं कि विदेशों में जमा भारतीय कालाधन राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित हो। क्योंकि शेष सब प्रावधान तो उस सम्पत्ति को भारत लाकर फिर उसके बंदरबाँट की गुंजाइश छोड़ते हैं। परन्तु राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित हो जाने पर तथा उसकी सार्वजनिक जानकारी हो जाने पर ऐसी बंदरबाँट की जगह बहुत कम बचती है।

प्र.- लोगों का कहना है कि श्री रामदेवजी को सभा स्थल पर ही प्राण दे देना चाहिए था, प्राण लेने को उतारू पुलिस से बचकर निकलना नहीं चाहिए था?

उ.- ये वे लोग हैं जिन्हें रामदेवजी से किसी कारणर् ईष्या या द्वेष है अथवा फिर जो मूर्खतापूर्ण ढंग से तथाकथित सत्याग्रह के विषय में रूमानी हैं। प्रत्येक सत्याग्रह का एक लक्ष्य होता है। लक्ष्य विहीन सत्याग्रह एक निरर्थक कार्य है। स्वामीजी के न रहने पर सत्याग्रह का लक्ष्य नष्ट हो जाता, अत: स्वामी जी का जीवित रहना अत्यंत आवश्यक था। फिर जो लोग प्राण देने का बहुत आग्रह कर रहे हैं, उन्हें कृपाकर यह अवश्य बताना चाहिए कि किन-किन चीजों के लिए कब-कब प्राण दे देना धर्म है या उचित है। तब पता चलेगा कि ऐसे लोगों में से अधिकांश को अब तक कई बार मर जाना चाहिए था क्याेंकि जिन चीजों के लिए प्राण देने को सनातन धर्म में कहा गया है,उनमें से तो अनेक प्रसंग इनमें से हरेक के जीवन में आ चुके हैं- गौ-रक्षा, गंगा प्रदूषण, धर्म विहीन राजनीति, किसी विदेशी की चाटुकारिता के लिए विवश होने की दयनीय दशा में पहुंचा हुआ जीवन, अपने आसपास बढ़ रहे पाप को देख रहा जीवन, जिस दल में हम हैं, वह भारत में परम्परागत राजधर्म को नहीं मानता अत: इस अर्थ में धर्म विहीन और पापमय जीवन, किसी संन्यासी को अपशब्द कहने की विवशता से भरा दयनीय जीवन, अपनी मर्यादा प्रतिक्षण त्यागने की विवशता से भरा आत्मदैन्य-युक्त जीवन आदि। अत: स्वामीजी को प्राण देने की सलाह देने वालों को तो सलाह देने से बहुत पहले स्वयं ही प्राण दे देना चाहिए था। दिया नहीं है अभी तक। ऐसे में एक संन्यासी क्या करे, यह बताने वाला गृहस्थ तो हिन्दू धर्म में पापी ही कहा जाता है।

प्र.- स्वामी रामदेव ने 11 सौ या 11 हजार युवक-युवतियों को सैनिक प्रशिक्षण देने की बात कही है। यह तो हिंसा का मार्ग है?

उ.- पहली बात तो यह है कि अहिंसा की जो परिभाषा महर्षि पतंजलि ने दी है और जिसे स्वयं महात्मा गांधी बारंबार उध्दृत करते थे, वह यह है कि सर्वथा, सर्वदा सभी प्राणियों के प्रति द्वेष और द्रोह का अभाव ही अहिंसा है। जाहिर है कि स्वामी रामदेव के प्रति द्वेष रखने वाले लोग इस परिभाषा के अन्तर्गत हिंसक हैं। फिर, विकास की विगत डेढ़ सौ वर्षों से यूरोप के नेतृत्व में चल रही दौड़ हिंसा का साकार रूप है, यह सर्वविदित है। अत: उस विकास के लिए संकल्पित राजनैतिक दलों और रायकर्ताओं को अहिंसा का बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। क्योंकि वे हिंसा के साकार रूप के उपासक हैं।

इससे भिन्न, तथ्य यह है कि स्वयं गांधीजी ने प्रथम महायुध्द में सैनिक भर्ती का अभियान चलाता था तथा स्वयं सेना में भर्ती हुए थे। साथ ही, भगवान परशुराम से लेकर समर्थ स्वामी रामदास, 1857 ईस्वी में स्वामी विशुध्दानंद आदि महान योगियों एवं संन्यासियों ने सैन्य प्रशिक्षण दिए हैं और संचालित किये हैं। इसके अतिरिक्त, संयुक्त राय अमेरिका तथा विभिन्न यूरोपीय देशों में सैनिक प्रशिक्षण का काम शासन से बाहर की संस्थाएं भी निरंतर करती हैं। हर बात में अमेरिका और यूरोप की नकल करने वाले लोग इस विषय में भारत को अपवाद रखना चाहते हैं। फिर यह भी है कि 19वीं शताब्दी ईस्वी तक तो भारत सहित विश्व के प्रत्येक राष्ट्र में, जिसमें स्वयं इंग्लैंड शामिल है, समस्त सैनिक प्रशिक्षण शासन से बाहर की संस्थाएँ भी देती आईं थीं और दे रहीं थीं। 1858 ईस्वी में पहली बार अंग्रेजों ने ‘इंडियन र्ऑम्स एक्ट’ बनाकर ऐसे सैनिक प्रशिक्षण की संभावना ही समाप्त कर दी। महात्मा गांधी ने बारंबार कहा था कि मैं अंग्रेजों की हर गलती माफ कर सकता हूँ, परन्तु 1858 के ‘इंडियन र्ऑम्स एक्ट’ के लिए मैं अंग्रेजों को कभी माफ नहीं करूंगा, क्योंकि इसके द्वारा उन्होंने भारत को नामर्द बना दिया है। जाहिर है, स्वामीजी के विरोधी लोग उन्हीं अंग्रेजों के बौध्दिक अनुयायी हैं और वे भारत को नामर्द बनाए रखना चाहते हैं। इस प्रकार वे अंग्रेजों के बनाए 1858 के उस ‘र्ऑम्स एक्ट’ को भारत में लागू रखना चाहते हैं, जिसका पालन कभी भी स्वयं इंग्लैंड में नहीं किया गया। यह भी स्मरणीय है कि संयुक्त राय अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस सहित विश्व के अनेक देशों में प्रत्येक वयस्क युवक और युवती को शस्त्र प्रशिक्षण प्राप्त करना और सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करना कानूनन अनिवार्य है। यह भी स्मरणीय है कि महात्मा गांधी ने 1948 ईस्वी में बारंबार कहा था कि इतिहास मुझे क्षमा नहीं करेगा, समय रहते मुझे देश को सशस्त्र कर देना चाहिए था। वस्तुत: भारत की संसद को ऐसा कानून शीघ्र ही बनाना चाहिए जिससे इच्छुक और स्वस्थ युवक-युवतियों को शस्त्र प्रशिक्षण करने की सुविधा दी जाए। वैश्विक आतंकवाद के मुकाबले के लिए तो यह अत्यंत आवश्यक है। इसका विरोध करने वाले लोग जाने-अनजाने आतंकवादियों के लिए खुला मैदान रखना चाहते हैं।

प्र.- कांग्रेस के लोगों का कहना है कि रामदेव जी या अन्ना हजारे जी राजनीति कर रहे हैं?

उ.- तो राजनीति करना अपराध है? देश की सम्पूर्ण व्यवस्था राजनैतिक व्यवस्था है। तो क्या कांग्रेस के लोग चाहते हैं कि देश का प्रबुध्द वर्ग देश की राजनैतिक व्यवस्था के बारे में विचार न करे, चिंतन न करे। उस पर मर्ूच्छित रहे, ऊंघता रहे, सोता रहे? क्या भारत का संविधान केवल किसी एक पार्टी के लोगों को ही राजनीति करने का आदेश देता है? लोगों के द्वारा राजनीति करने को एक गलत काम करने की तरह प्रस्तुत करना संविधान का अपमान है, देश की व्यवस्था का अपमान है और देश के प्रति लोगों को संवेदनहीन बनाए रखने की जड़ इच्छा का सूचक है। राजनीति अगर गलत है तो फिर कोई भी उसे न करे। कांग्रेस क्यों राजनीति कर रही है। वह घोषणा कर दे कि हम राजनीति नहीं करेंगे, अमुक-अमुक लोगों की सेवा मात्र करेंगे। देश के विषय में विचार करना प्रत्येक प्रबुध्द व्यक्ति कार् कत्तव्य है और प्राय: ऐसे विचार करने को ही राजनीति करना कह दिया जाता है।

9 COMMENTS

  1. इस लेख पर श्री आर एन शिंह जी की टिप्पणी न होना देख मन में कुछ संसय हो रहा है .
    आज कल चोर भी पुलिस के कपड़े फन क्र चोरी करने आते है .

    साथियों सावधान ऐसे बहुरूपियो से

  2. बहन कुसुमलता जी को साधुवाद. इतनी स्पष्टता से हर प्रश्न का उत्तर दिया है की कोई भ्रम नहीं रह जाता.मै आगे आने वाले समय में काफी कठिन दौर देख रहा हूँ. १९७४ में मीसा के दौर में कवी गोपाल दस नीरज ने एक कविता जनवरी ७५ में सुनाई थी.वो याद आ रही है. फूलों की आँखों में आंसू उतरा है रंग बहारों का, लगता है आने वाला है मौसम फिर से अंगारों का………आतंरिक सुरक्षा (मीसा) के डर से बुलबुल ने गाना छोड़ दिया गोरी ने पनघट पर जाकर गागर छलकाना छोड़ दिया. सभी देशभक्तों को आसन्न संकट का सामना करने के लिए सतत सिद्धता की स्थिति में रहने की तैयारी करनी होगी. अगले कुछ महीने भारी उथल पुथल वाले होने वाले हैं. पहले मारन और उसके बाद चिदंबरम का नंबर आने वाला है और उसके बाद महारानी सोनिया का. इनके अपराधों का संज्ञान अदालत को लेना होगा.लेकिन जिस प्रकार हाल में ७/८ जून से ११ जून की अवधि में सोनिया,राहुल, रोबेर्ट वाड्रा, सुमन दुबे,विन्सेंट जोर्ज तथा १२ अन्य लोग जिन्होंने इमिग्रेशन पर अपना व्यवसाय वित्तीय सलाहकार बताया था, किसी निजी बोईंग से स्वित्ज़रलैंड की गुप्त यात्रा पर गए थे. मुझे आशंका है की अदालत द्वारा संज्ञान लेते ही पूरा कुनबा देश छोड़ कर भाग सकता है.

  3. उपरोक्त लेख को पड़ने के बाद मेरे ख्याल से उन सभी कांग्रेस प्रेमियों रामदेव & अन्ना विरोधी प्रबुद्धो….. के मुह बंद हो जाने चाहिए .

    देश के दलालों सावधान ये पब्लिक है घसीट घसीट कर जूतों से मारती है

  4. आदरनीय केडिया जी आपके निष्पक्ष तर्क सांगत इस व्याख्यान .को मेरा अभिनन्दन .
    निश्चय ही भारत कभी गुलाम नहीं रहा आज पहली बार मुझे आभास हो रहा है .
    समय समय पर देश की जनता ने जाग्रत हो कर विदेशियों को कुत्ते की तरह खदेड़ा है .

    मुझे लगता है आज फिर से जन जागरण हो रहा है .
    यदि मेरा अनुमान ठीक है तो निश्चित रूप से जो विदेशी आज देश पर साशन कर रहे है

    मैडम एंटोलिया (सोनिया gadhi)
    रोयोल विंची (राहुल गधा )
    साथियों उपरोक्त दोनों प्रमाणिक नाम है किसी तरह का भ्रम मत रखना.
    २०० साल पहले भी अंग्रेजी कुत्तो को देसी फौज सुरक्षा देती थी .
    फिर भी देश के शेरों ने उन्हें सुअरों की तरह खदेड़ा था .
    लगता है अब वह दिन दूर नही है.

  5. सत सत आभार कुसुमलताजी ………………
    ……………………..बहुत ही सटीक व् स्पष्ट व्याख्या ………………………………
    ………………….वामपंथी लोगो के सारे प्रश्नों का उत्तर
    ………………………………………..धन्यवाद

  6. सुश्री केडिया जी अभी आप पर इलज़ाम लगेंगे की बाबा की और से आप को घूस दी गयी है, मैं तो निराश हो चला था की अब शायद भारत में भारत की प्रगती की भारत के स्वाभीमान की बातें करने वाले देश-द्रोही कहलाने के लिए पूरी तरह अभिशिप्त हो चुके हैं, आपके लेख ने मन को बहुत ठंडक पहुंचायी है, कुछ मूढ़-बुद्धी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने को सिर्फ और सिर्फ ढोंग मानते हैं, अन्ना के बारें में मैं कुछ नहीं जानता जितना जानता हूँ वह मीडिया के माध्यम से जानता हूँ पर बाबा रामदेव को मैं बहुत करीब से जानता हूँ, जो लोग उनपर अनर्गल टिप्पणियाँ करते हैं उनको रामदेव बाबा के स्तर तक पहुँचने में कई जन्म लेना पड़ेंगे, मेरे कहने से कुछ नही होगा पर ज़रा सा आत्म मंथन किया जाए तो बात स्वतः समझ में आ जायेगी की कोई भी व्यक्ती भ्रष्टाचार के विरुद्ध शासन से बैर बिना देशहित की भावना के नहीं ले सकता, जहां तक राजनीतिक महत्वाकान्षा का सवाल है रामदेव जी की इतनी हैसियत कई साल पहले हो चुकी थी की कोई भी पार्टी उन्हें टिकट दे सकती थी और वे निर्विवाद रूप से विजयी भी हो सकते थे, पर यह अधिकतर लोग जानते हैं की उनके मन में वास्तव में ही भारत को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना है, उन्होंने कभी किसी भी धर्म से दुर्भावना नहीं राखी, ना ही कभी भक्ति-भाव की बाते की,इस साक्षात्कार के बाद अब आप कुछ बुद्धी से परे टिप्पणियों के लिए तैयार रहे, कुछ आर्य-आर्य चिल्लाते हुए आयेंगे कुछ ओसामा जी (?) के भक्तों के भक्त आयेंगे कुछ तथाकथित बुद्धीजीवी जो किसी भी बात को पहले सिर्फ झूटा साबित करने पर आमादा रहते है ऐसे लोग बड़ी ही मनोरंजक टिप्पणियाँ करेंगे.

  7. प्रो. कुसुमलता केडिया जी।
    अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालने के लिए, धन्यवाद।
    विशेष गांधी जी का १९४८ का उद्धरण===>”यह भी स्मरणीय है कि महात्मा गांधी ने 1948 ईस्वी में बारंबार कहा था कि इतिहास मुझे क्षमा नहीं करेगा, समय रहते मुझे देश को सशस्त्र कर देना चाहिए था।” <==== चिंतक के लिए, सारासार विवेक, सत्‌ असत्‌ विवेक, समयोचितता इत्यादि उसे किसी भी सुभाषित या सूक्ति के पार ले जाते हैं। वह किसी नियमसे बंधता नहीं है। नए सीरे से सोचने कि क्षमता रखता है। यही बात गांधी जी के इस उद्धरण से निष्पन्न होती है। आपने सही सही मीमांसा प्रस्तुत की। अतः धन्यवाद।

  8. प्रोफ कुसुम लता जी आप ने सभी प्रश्नों का बहुत ही विस्लेश्नात्मक उत्तर दिया है. मैं आप के विचारों से बिलकुल सहमत हूँ. अगर इस प्रकार के कुछ और विचारक भी भारत में हो तो भर फिर से भारत भारत हो जयेगा. जैसा की आपने कहा है की भारत कभी भी गुलाम नहीं रहा है मेरा भी विश्वाश है की एक बार फिर भारत खड़ा होगा और इस विदेशी विचार और सत्ता को उखड देगा. यह दुर्भाग्य है की ६० वार्स पहेले हम ने विदेसियुं को बहार निकला परन्तु कुछ चाटुकार लोगों के कारन फिर से विदेशी चंगुल में फँस गये. आप के विचारों के लिए दन्यवाद. जन जागरण का कम करती रहिए भगवन आप को शक्ति दे.

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