‘वेद और धर्म’

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ओ३म्

मनमोहन कुमार आर्य

संसार की अधिकांश जनसंख्या धर्म पारायण या धर्म को मानने वाली है। धर्म क्या है? धर्म सत्य व असत्य के ज्ञान, असत्य को छोड़ने व सत्य को ग्रहण करने, उसका पालन, आचरण व धारण करने को कहते हैं। संसार के सभी धार्मिक ग्रन्थों में धर्म व सत्य का ज्ञान पूर्ण रूप से विद्यमान नहीं है। इसके अतिरिक्त धार्मिक सभी ग्रन्थों में कुछ सत्य व कुछ असत्य, दोनों का मिश्रण है जिससे सत्य व असत्य का निर्णय सामान्य धर्मानुयायी के लिए सम्भव नहीं है। वह मत या मजहब तो कहला सकते हैं परन्तु धर्म तो शत-प्रतिशत जीवन में धारण करने योग्य गुणों को ही कहते हैं। क्या जीवन में असत्य को धारण करना चाहिये, इसका उत्तर कहीं से कोई भी हां में नहीं देगा। इसका कारण क्या है कि सबको ज्ञान है कि मनुष्य जीवन असत्य का आचरण करने के लिए लिए वरन् सत्य का आचरण करने के लिए ही ईश्वर से मिला है। जब हम धर्म की बात करते हैं तो हमारे सामने ईश्वर का नाम व काम भी उपस्थित वा विद्यमान होता है। हम स्वयं को बनाने वाली सत्ता को नहीं जानते या कुछ-कुछ ही जानते हैं। किसने व क्यों हमें बनाया है, यह ज्ञान संसार में बहुत कम लोगों को होगा। जो लोग इसका यह उत्तर देते हैं कि हमें भगवान ने बनाया है, उनका उत्तर तो ठीक है परन्तु यदि उनसे यह पूछंे कि बताओं, भगवान कहां है? कैसा है? क्या करता है? क्या भगवान को भी किसी ने बनाया है? यदि नहीं बनाया है तो अपने आप कैसे बन गया? यह सत्य है कि हमारा जन्म हमारे माता व पिता से हुआ है। माता के गर्भ में हमारे शरीर का निर्माण हुआ है। परन्तु यह भी सत्य है कि हमारे माता व पिता को भी हमारे शरीर को बनाने का किंचित भी ज्ञान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि माता के गर्भ व पिता के शरीर के भीतर एक ऐसा तत्व व सत्ता विद्यमान है जो वहां रहकर माता के गर्भ में शिशुओं का निर्माण करती है। वह है, तभी तो हमारा शरीर माता के गर्भ में बना था और यदि बनाने वाला होता ही न, तो फिर वह बनता भी नहीं। हमें आश्चर्य होता है कि आज भी बहुत से लोग संसार में ऐसे हैं जो एक अज्ञानतापूर्ण व बुद्धिहीन उत्तर देते हैं कि मनुष्य अपने आप स्वतः बिना ईश्वर या माता-पिता से भिन्न सत्ता के द्वारा बन जाता है। यदि हम उनसे एक उदाहरण मांगे कि बताओं कि संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना रचयिता या निर्माता के बनी है, तो वह निरूत्तर हो जाते हैं। यह तीन काल में भी सभव नहीं है कि मानव शरीर माता के गर्भ में अपने आप बन जाये।

 

मानव शरीर इस ब्रह्माण्ड की सर्वोत्तम रचना कही व मानी जाती है। क्या ऐसा हो सकता कि कोई सर्वोत्कृष्ट कार्य स्वतः, बिना रचयिता के हो जाये। यह असम्भव है। इतना ही नहीं, माता के गर्भ में उस सत्ता ने मनुष्य के शरीर को ही नहीं बनाया अपितु शरीर में एक सजीव, विचार व मननशील जीवात्मा को, जो कि ज्ञान व क्रियाओं को करने वाला एक चेतन तत्व है, उसे भी शरीर में प्रतिष्ठित किया है। हम संसार में दो प्रकार की रचनायें देखते हैं। एक मनुष्यों द्वारा बनाई गई होती हैं तो दूसरी रचनायें दिखाई तो देती हैं परन्तु उनके बनाने वाला दिखाई नहींे देता है। जो रचनायें बनी तो हैं परन्तु जिनका बनाने वाला दिखाई नहीं देता और एक मनुष्य या सभी संसार के मनुष्य भी मिलकर जिसको बना नहीं सकते, तो उन रचनाओं को हम अपौरूषेय रचना कह सकते हैं जिसका अर्थ होगा कि यह रचना तो है, किसी ने बनाई भी है, अनुसंधान कर उसको जानना है परन्तु इस रचना को मनुष्यों ने नहीं बनाया है यह निश्चित है और यह अज्ञात रचयिता की रचना है। अब प्रश्न यह है कि इन अपौरूषेय रचनाओं यथा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि सभी पदार्थ किसने बनाये हैं? इनका सरल उत्तर है कि यह उसने बनाये हैं जो इन्हें बना सकता है। अब, वह कौन है तो इसका उत्तर ऊहापोह करने से मिल जाता है। अपौरूषेय रचना करने वाला रचयिता सत्य, चेतन तत्व, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, स्वाधीन, सर्वज्ञ, ऐसी सत्ता जिसने इससे पूर्व भी अनेकानेक बार इस प्रकार की अपौरूषेय रचनायें की हों, वह ही है या हो सकता है। यही सत्य है और यही यथार्थ ईश्वर का वास्तविक स्वरूप भी है। इसी स्वरूप का सृष्टि के आदि ज्ञान जो संसार का सर्वप्रथम ज्ञान है, चार वेदों में उल्लेख है। वह ईश्वर कैसा है, इसका वेदों का गहन अध्ययन कर स्वामी दयानन्द ने संक्षेप में लिखा है कि ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र व सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।‘‘ यह आर्य समाज का दूसरा नियम भी है। पहले नियम में भी ईश्वर के बारे कहा गया है कि ‘‘वह ईश्वर सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल है।’’ इतना जान लेने के बाद हम वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने ज्ञान का विस्तार कर सकते हैं। ऐसा जो ईश्वर है, वह इस संसार का रचयिता भी है और मानव सहित सभी प्राणियों के शरीरों की रचना करता है। विकासवाद अथवा स्वयं हो जाने व बन जाने वाला सिद्धान्त दोष पूर्ण एवं मिथ्या है। अब आईये, कुछ चर्चा वेद और धर्म की भी कर लेते हैं।

 

वेद संसार की सबसे प्राचीनतम् पुस्तकें हैं। पुस्तकों से पूर्व वेद श्रुति नाम व रूप में विद्यमान थे। श्रुति ऐसे ज्ञान को कहते हैं जिसे सुनकर अर्थात् श्रवण के द्वारा जाना, समझा व माना जाता है। इससे पूर्व इन चार वेदों का ज्ञान ईश्वर ने आदि चार ऋषि – अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा जिन्हें ईश्वर नेे सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न किया था, उनकी आत्माओं में अपने जीवस्थ स्वरूप या सर्वान्तरयामी स्वरूप से देकर इन्हें इस ज्ञान व शक्ति सम्पन्न किया था। आज भी हमें इसका कुछ-कुछ प्रमाण मिल जाता है। हम जब कोई अच्छा कार्य करते हैं तो हमारे हृदय के अन्दर निर्भयता, सुख, प्रसन्नता, आनन्द, उत्साह की अनुभूति होती है और जब कोई बुरा कार्य, चोरी आदि, करते हैं तो मन में भय, शंका, चिन्ता, दुःख, लज्जा आदि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति किससे व किसके द्वारा होती हैं? इसका उत्तर है कि ईश्वर सर्वान्तरयामी होने से आत्मा के भीतर भी विद्यमान है और उसी के द्वारा यह अनुभूतियां कराईं जाती है। इसी ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। इसके बाद इन ऋषियों से श्रवण द्वारा ज्ञान के प्रचार प्रसार, पठन-पाठन व जनकल की परम्परा चली।

 

वेदाध्ययन करने पर पता चलता है कि वेद वस्तुतः संसार का सर्वप्रथम सर्वांगपूर्ण सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण धर्म का पुस्तक या ग्रन्थ है। वेदानुकूल मान्यतायें धर्म व इसके विरूद्ध मान्यतायें असत्य व अधर्म की संज्ञा को प्राप्त हैं। महाभारत काल तक यही वेद धर्म सारे संसार में प्रचलित व प्रतिष्ठित था। महाभारत युद्ध के बाद सारे संसार में अज्ञान का अन्धकार फैल गया जिस कारण लोगों ने वेदों को विस्मृत कर अपने अज्ञान के आधार पर सत्यासत्य मिश्रित ग्रन्थ बनायें और उन्हें धर्मग्रन्थ के नाम से प्रतिष्ठित किया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत की धरती पर महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने अपने अभूतपूर्व पुरूषार्थ से चारों वेद व उनके सत्य अर्थों की खोज कर उन्हें महाभारत काल व उससे पूर्व, वह जैसा था, पूर्ण व लगभग वैसा प्रतिष्ठित कर दिया। वेदों के ज्ञान, प्रचार व प्रसार के लिए उन्होंने बोल-चाल की भाषा ‘हिन्दी’ में वैदिक सत्य मान्यताओं का धर्म ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ लिखकर भी प्रकाशित किया जिससे वेदों की अप्रसिद्धि के काल में व उसके बाद उत्पन्न धर्माधर्म युक्त मजहबी ग्रन्थों से उत्पन्न अज्ञान व अन्धविश्वास, पाखण्डों व कुरीतियों का ज्ञान आम व्यक्ति तक को हो गया है। अतः अब वेद से इतर व वेद विरूद्ध ग्रन्थों को धर्म के नाम पर मानने व उनका आचरण व अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति को किसी विषय का ज्ञान हो जाने पर वह अपनी अज्ञानतापूर्ण पूर्व मान्यताओं को छोड़कर ज्ञान व अनुभव से सिद्ध सत्य मान्यताओं का अनुसरण करता है, उसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी संसार के सभी लोगों को अपनी भ्रान्त व संशयों से परिपूर्ण मान्यताओं को छोड़कर वेद की सत्य व ज्ञान पर आधारित मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिये और उसे अपने जीवन में धारण कर व उन्हें आचरण में लाकर अपने जीवन को सफल व सार्थक सिद्ध करना चाहिये।

 

आज वस्तुतः वेद ही धर्माचरण की एक मात्र सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण पुस्तक हैं। जो इनको जानकर इनकी शिक्षाओं के अनुसार आचरण करेगा वही व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है, अन्यथा, ‘नान्यः पन्था विद्यते अयनायः’ की उक्ति की भांति उसका जीवन असफल होगा। सत्य के ग्रहण और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आईये, इन वैदिक मन्तव्यों वा वाक्यों का मर्म जानकर इससे लाभ उठायें और सत्य धर्म, जिसका आदि स्रोत वेद है और जो आज भी प्रासंगिक एवं अपरिहार्य है, का पालन कर जीवन को सफल बनायें। एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति में कैसे गुण होते हैं इसके लिए हम स्वामी दयानन्द के गुणों को स्मरण करते हैं। इन गुणों वाला व्यक्ति ही वस्तुतः देश, समाज के लिए उपयोगी होता है और ऐसे व्यक्ति का जीवन ही सफल होता है। वैदिक विद्वान पण्डित शिवशंकर शर्मा जी काव्यतीर्थ के अनुसार महर्षि दयानन्द — ‘‘निर्भय, न्यायकर्ता, सर्वप्राणिहितकर, दीर्घदर्शी, समदृष्टि, पक्षपातरहित, प्रभावशाली, प्रतिभावान, महासमीक्षक, महासंशोधक, तेजस्वी, ब्रह्मवर्चसी, ब्रह्मवित्, ब्रह्मपरायण, बाल ब्रह्मचारी, उध्र्वरेता, सुवक्ता, वाग्मी, जितेन्द्रिय, योगिराज, आचार्यों का आचार्य, गुरूओं का गुरू, पूज्यों का भी पूज्य, जगद्वन्द्य, प्रहसितवदन, प्रांशूबाहू, समुन्नतकाय, सदा आनन्द, निर्मल, निर्विकार, समुद्रवत्गम्भीर, पृथ्वीवत्क्षमाशील, अग्निवत् देदीप्यमान्, पर्वत्वत् कर्तव्यस्थिर, सद्गतिवायुक्त निरालस, रामवतलोकहितकारी, परशुरामवत् अन्याय संहारी, बृहस्पतिवत् वेदवक्ता, वसिष्ठवत् वेद प्रचारक, असत्य का परमद्वेषी, सत्य का परम पक्षपाति, आर्यावत्र्त के परम पिता (स्वामी दयानन्द) हैं।’’ महर्षि दयानन्द के सभी व अधिकांश गुण मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, धर्मराज युधिष्ठिर आदि सभी ऋषि-मुनियों में विद्यमान रहें हैं। यह ऐसे महापुरूष थे जिन्होंने अपने जीवन व कार्यों से धर्म का साक्षात् उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसका आधार एवं आदिस्रोत वेद था व आज भी है।

 

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